छठ बने पर्यावरण संरक्षण महापर्व

स्वच्छता का काम केवल सरकार के बूते का नहीं है. इसमें जन भागीदारी जरूरी है. यदि हम छठ को पर्यावरण संरक्षण का पर्व बना दें, तो देश और समाज का बहुत कल्याण हो सकता है.

By Ashutosh Chaturvedi | November 16, 2020 6:32 AM

आशुतोष चतुर्वेदी, प्रधान संपादक, प्रभात खबर

ashutosh.chaturvedi@prabhatkhabr.in

भारत में उत्सव और त्योहारों की प्राचीन परंपरा है. पूर्वी भारत का बड़ा पर्व है छठ और इसे महापर्व भी कहा जा सकता है. दीपावली निकल गयी है और छठ का माहौल बन गया है. व्रत रखनेवाली महिलाओं ने तैयारी शुरू कर दी है. कोरोना काल में थोड़ी बाधा भले ही आ गयी हो, लेकिन लोगों की आस्था में कोई कमी नहीं आयी है. कठिनाई के बावजूद लोग अपने घर पहुंचने लगे हैं. कुछ अरसा पहले तक छठ बिहार, झारखंड और पूर्वांचल तक ही सीमित था, लेकिन अब यह पर्व देश-विदेशव्यापी हो गया है. वैसे तो सभी पर्व-त्योहार महत्वपूर्ण होते हैं, लेकिन पूर्वांचल के लोगों के बीच धर्म और आस्था के प्रतीक के तौर पर छठ सबसे महत्वपूर्ण है.

छठ सूर्य अराधना का पर्व है और सूर्य को हिंदू धर्म में विशेष स्थान प्राप्त है. देवताओं में सूर्य ही ऐसे देवता हैं, जो मूर्त रूप में नजर आते हैं. कोणार्क का सूर्य मंदिर तो इसका जीता-जागता उदाहरण है. इस पर्व में अस्त होते अौर उगते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है. सूर्य को आरोग्य-देवता भी माना जाता है. सूर्य की किरणों में कई रोगों को नष्ट करने और निरोग करने की क्षमता पायी जाती है. माना जाता है कि ऋषि-मुनियों ने कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को इसका प्रभाव विशेष पाया और यहीं से छठ पर्व की शुरुआत हुई.

छठ को स्त्री और पुरुष समान उत्साह से मनाते हैं, लेकिन इस पुरुष प्रधान समाज में व्रत की प्रधान जिम्मेदारी केवल महिलाओं की है. आप एक सिरे से देख लीजिए- पति से लेकर बच्चों तक के कल्याण के सभी व्रत महिलाओं के जिम्मे हैं. छठ व्रत निर्जला और बेहद कठिन होता है, और बड़े नियम-विधान के साथ रखा जाता है. हालांकि कुछ पुरुष भी इस व्रत को रखते हैं, लेकिन अधिकांशत: कठिन तप महिलाएं ही करती हैं. चार दिनों के इस व्रत में व्रती को लंबा उपवास करना होता है. भोजन के साथ ही सुखद शय्या का भी त्याग किया जाता है. पर्व के लिए बनाये गये कमरे में व्रती फर्श पर एक कंबल अथवा चादर के सहारे ही रात बिताती है. छठ पर्व को शुरू करना कोई आसान काम नहीं है.

एक बार व्रत उठा लेने के बाद इसे तब तक करना होता है, जब तक कि अगली पीढ़ी की कोई विवाहित महिला इसके लिए तैयार न हो जाए. इसके नियम बहुत कड़े हैं. इसमें छूट की कोई गुंजाइश नहीं है. इसका मूल मंत्र है शुद्धता, पवित्रता और आस्था. इस दौरान तन और मन दोनों की शुद्धता और पवित्रता का भारी ध्यान रखा जाता है, लेकिन तकलीफ तब होती है कि जिस शुद्धता और पवित्रता की अपेक्षा इस त्योहार से की जाती है, उसका सार्वजनिक जीवन में ध्यान नहीं रखा जाता. यह महापर्व नदी-तालाबों के तट पर मनाया जाता है. दुखद यह है कि छठ के बाद इन स्थलों की स्थिति देख लीजिए.

वहां गंदगी का अंबार लगा मिलता है. हम स्वच्छता के इस महापर्व के बाद पूरे साल अपनी नदियों-तालाबों की कोई सुध नहीं लेते हैं और उन्हें जम कर प्रदूषित करते हैं, जबकि हमारे देश में नदियों को देवी स्वरूप मान कर उन्हें पूजा जाता है. यह हमारे संस्कार और परंपरा का हिस्सा है. एक तरफ नदियों को मां कह कर पूजा जाता है, तो दूसरी ओर हम उनमें गंदगी प्रवाहित करने में कोई संकोच नहीं करते हैं. हमने नदियों को इतना प्रदूषित कर दिया है कि वे पूजने लायक नहीं रहीं हैं. नदियों को जीवनदायिनी माना जाता है. यही वजह है कि अधिकांश प्राचीन सभ्यताएं नदियों के किनारे विकसित हुईं हैं.

आप गौर करें, तो पायेंगे कि उत्तर भारत के सभी प्राचीन शहर नदियों के किनारे बसे हैं, लेकिन हमने इन जीवनदायिनी नदियों की बुरी गत कर दी है. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार देश में अधिकांश नदियों का अस्तित्व संकट में हैं. बोर्ड देश की 521 नदियों के पानी पर नजर रखता है. उसका कहना है कि देश की 198 नदियां ही स्वच्छ हैं. इनमें अधिकांश छोटी नदियां हैं, जबकि ज्यादातर बड़ी नदियां प्रदूषित हैं. दरअसल, हमें स्वच्छता के प्रति अपना नजरिया बदलना होगा. छठ में इतनी शुद्धता और पवित्रता का ध्यान, लेकिन अपने आसपास की स्वच्छता को लेकर ऐसा नजरिया किसी सूरत में स्वीकार्य नहीं हो सकता.

दरअसल, हम भारतीयों का सफाई के प्रति नकारात्मक रवैया है. भारतीय सफाई के लिए कोई प्रयास नहीं करते हैं और जो लोग सफाई के काम में जुटे होते हैं, उन्हें हम हेय दृष्टि से देखते हैं. स्वच्छता और सफाई के काम को करने में सांस्कृतिक बाधाएं भी आड़े आती हैं. देश में ज्यादातर धार्मिक स्थलों के आसपास अक्सर बहुत गंदगी दिखाई देती है. इन जगहों पर चढ़ाये गये फूलों के ढेर लगे होते हैं. कुछेक मंदिरों ने स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद से फूलों के निस्तारण और उन्हें जैविक खाद बनाने का प्रशंसनीय कार्य प्रारंभ किया है, जिसकी जितनी तारीफ की जाए, कम है.

अन्य धर्म स्थलों को भी ऐसे उपाय अपनाने चाहिए. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का सफाई के प्रति विशेष प्रेम था. वह लोगों से किसी काम का अनुरोध बाद में करते थे, पहले उस पर खुद अमल करते थे. 11 फरवरी, 1938 को हरिपुरा अधिवेशन में गांधीजी ने कहा था- जो लोग गंदगी फैलाते हैं, उन्हें यह नहीं मालूम कि वे क्या बुराई कर रहे हैं. महात्मा गांधी ने धार्मिक स्थलों में फैली गंदगी की ओर भी ध्यान दिलाया था. अगर आप गौर करें, तो पायेंगे कि आज भी अनेक धार्मिक स्थलों में गंदगी का अंबार लगा रहता है. यंग इंडिया के फरवरी, 1927 के अंक में गांधी ने बिहार के पवित्र शहर गया की गंदगी के बारे में भी लिखा था.

उनका कहना था कि उनकी हिंदू आत्मा गया के गंदे नालों में फैली गंदगी और बदबू के खिलाफ विद्रोह करती है. लोगों में जब तक साफ सफाई और प्रदूषण के प्रति चेतना नहीं जगेगी, तब तक कोई उपाय कारगर साबित नहीं होगा. हम लाखों-करोड़ों रुपये खर्च करके सुंदर मकान तो बना लेते हैं, लेकिन नाली पर ध्यान नहीं देते. अगर नाली है भी, तो उसे पाट देते हैं और गंदा पानी सड़क पर बहता रहता है. यही स्थिति कूड़े की है. हम कूड़ा सड़क पर फेंक देते हैं, उसे कूड़ेदान में नहीं डालते.

यह बात सबको स्पष्ट होनी चाहिए कि स्वच्छता का काम केवल सरकार के बूते का नहीं है. इसमें जन भागीदारी जरूरी है. सरकारें नदियों-तालाबों का प्रदूषण नियंत्रित करने की जिम्मेदारी अकेले नहीं निभा सकती हैं. प्रदूषण मुख्य रूप से मानव निर्मित होता है इसलिए इसमें सुधार एक सामूहिक जिम्मेदारी है. साथ ही हमारी जनसंख्या जिस अनुपात में बढ़ रही है, उसके अनुपात में सरकारी प्रयास हमेशा नाकाफी रहने वाले हैं.

हमें अपनी नदियों व तालाबों के प्रदूषण को नियंत्रित करने के प्रयासों में योगदान करना होगा, तभी स्थितियों में सुधार लाया जा सकता है. अगर हम ठान लें, तो यह कोई मुश्किल काम नहीं है. इसमें हर व्यक्ति कुछ न कुछ योगदान कर सकता है. यदि हम छठ पर्व को पर्यावरण संरक्षण का पर्व बना दें, तो देश और समाज का बहुत कल्याण हो सकता है.

Posted by: Pritish sahay

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