छठ पर्व और जलनिधियों का संरक्षण
छठ पर्व लोक आस्था का प्रमुख सोपान है- प्रकृति ने अन्न-जल दिया, दिवाकर का ताप दिया, सभी को धन्यवाद और ‘तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा’ का भाव. सनातन धर्म में छठ एक ऐसा पर्व है, जिसमें किसी मूर्ति-प्रतिमा या मंदिर की नहीं, बल्कि प्रकृति यानी सूर्य, धरती और जल की पूजा होती है.
गाजियाबाद की हिंडन नदी को अब नाबदान कहना बेहतर होगा. चूंकि दिल्ली से सटे इस महानगर में कई लाख पूर्वांचल वासी हैं, सो छठ पर्व अब राजनीति का प्रश्न है. जिस नदी के लिए सारे साल समाज बेपरवाह रहता है, उसके घाटों को साफ किया जा रहा है. बीते बीस दिनों से गंगा नदी से आने वाली नहर भी बंद है, ताकि हिंडन में एक साथ इतना पानी गंग-नहर से डाला जाये कि छठ के व्रती उसमें खड़े हो सकें.
कहने को वहां पूजा के लिए स्थायी चबूतरे हैं, लेकिन साल के 360 दिन यह सार्वजनिक शौचालय अधिक होता है. जिस नदी में भक्त खड़े थे, पर्व का समापन होते ही वह नदी बदबूदार नाला बन जाती है. गगनचुंबी इमारतों के गंदे पानी का निस्तार भी इसी में होता है. देशभर में अधिकतर नदियों और तालाबों की यही गाथा है. समाज कोशिश करता है कि घर से दूर अपनी परंपरा का जैसे-तैसे पालन हो जाये, लेकिन वह बेपरवाह रहता है कि असली छठ मैया तो उस जल-निधि की पवित्रता में बसती है, जहां उसे सारे साल सहेज कर रखने की आदत हो.
यह ऋतु के संक्रमण काल का पर्व है, ताकि कफ-वात और पित्त दोष को नैसर्गिक रूप से नियंत्रित किया जा सके, और इसका मूल तत्व है जल- स्वच्छ जल. जल यदि स्वच्छ नहीं है, तो जहर है. छठ पर्व वास्तव में बरसात के बाद नदी-तालाब व अन्य जल-निधियों के तटों पर बह कर आये कूड़े को साफ करने, प्रयोग में आने वाले पानी को स्वच्छ करने,
दीपावली पर मनमाफिक खाने के बाद पेट को नैसर्गिक उत्पादों से पोषित करने और विटामिन के स्त्रोत सूर्य के समक्ष खड़े होने का वैज्ञानिक पर्व है. दुर्भाग्य है कि अब इसकी जगह ले ली है आधुनिक और कहीं-कहीं अपसंस्कृति वाले गीतों ने, आतिशबाजी, दिखावटी सफाई, नेतागिरी, गंदगी, प्लास्टिक-पॉलीथीन जैसी प्रकृति-हंता वस्तुओं और बाजारवाद ने.
अस्थाई जल कुंड या स्वीमिंग पुल में छठ पूजा की औपचारिकता पूरा करना इस पर्व का मर्म नहीं है. लोग नैसर्गिक जल-संसाधनों तक जाएं, वहां घाट व तटों की सफाई करें तथा संकल्प करें कि पूरे साल इस स्थान को वे देव-तुल्य सहेजेंगे और फिर पूजा करें. अपने घर के पास एक गड्ढे में पानी भर कर पूजा के बाद उसे गंदा छोड़ देना, तो इसकी आत्मा को मारना ही है. दूषित जल से महिलाओं के संक्रमित होने की आशंका भी रहती है. पर्व के बाद चारों तरफ फैली पूजा सामग्री में मुंह मारते मवेशी और उसमें कुछ तलाशते गरीब बच्चे आस्था की औपचारिकता को उजागर करते हैं.
इस साल बिहार और पूर्वोत्तर के राज्य जलवायु परिवर्तन की मार को भी छठ में महसूस करेंगे- एक तो चक्रवात के कारण बेमौसम बरसात, दूसरा देर तक मानसून का डेरा पड़े रहना. इस कारण बिहार में गंगा, कोसी, गंडक, घाघरा, कमला, बलान जैसी नदियों का जलस्तर लगातार ऊपर-नीचे होता रहता है. इसके चलते न तो तट पर घाट बन पा रहे हैं और वहां जाने के मार्ग. तभी बिहार के 25 हजार से अधिक तालाब, नहर व आहर पर घाट बनाने की तैयारी हो रही है.
लगभग 350 पार्कों में स्थित फव्वारे वाले तालाब को भी अर्घ्य के लिए तैयार किया जा रहा है. बिहार में कोई 1.06 लाख तालाब, 34 सौ आहर और लगभग 20 हजार जगहों पर नहर का प्रवाह है. लेकिन दिल्ली में यमुना में छठ को लेकर सियासत हो रही है. पिछले साल झाग वाले दूषित जल में खड़ी महिलाओं के चित्रों ने दुनिया में किरकिरी करायी थी. इस बार दिल्ली में कोई 11 सौ अस्थायी तालाब बनाये जा रहे हैं. यहां एक सवाल उठता है कि इन तालाबों या कुंड को नागरिक समाज को सौंप कर इन्हें स्थायी क्यों नहीं किया जा सकता.
छठ पर्व लोक आस्था का प्रमुख सोपान है- प्रकृति ने अन्न-जल दिया, दिवाकर का ताप दिया, सभी को धन्यवाद और ‘तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा’ का भाव. सनातन धर्म में छठ एक ऐसा पर्व है, जिसमें किसी मूर्ति-प्रतिमा या मंदिर की नहीं, बल्कि प्रकृति यानी सूर्य, धरती और जल की पूजा होती है. धरती की समृद्धि के लिए भक्तगण सूर्य के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं.
बदलते मौसम में जल्दी सुबह उठना और सूर्य की पहली किरण को जलाशय से टकरा कर अपने शरीर पर लेना वास्तव में एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है. व्रतियों के भोजन में कैल्शियम की प्रचुर मात्रा होती है, जो हड्डियों की सुदृढ़ता के लिए अनिवार्य है. वहीं सूर्य की किरणों से महिलाओं को सालभर के लिए जरूरी विटामिन डी मिल जाता है. तप-व्रत से रक्तचाप नियंत्रित होता है और सतत ध्यान से नकारात्मक विचार मन-मस्तिष्क से दूर रहते हैं.
छठ पर्व की वैज्ञानिकता, मूल-मंत्र और आस्था के पीछे तर्क को प्रचारित-प्रसारित किया जाना चाहिए. जल-निधियों की पवित्रता व स्वच्छता के संदेश को आस्था के साथ लोक रंग में पिरोया जाए, तो यह पर्व अपने आधुनिक रंग में धरती का जीवन कुछ और साल बढ़ाने का कारगर उपाय हो सकता है.