Child marriage : बाल विवाह मुक्त भारत बनाने की तैयारी, पढ़ें क्षमा शर्मा का आलेख
Child Marriage In India : लड़कियों के प्रति माता-पिता और समाज की उपेक्षा और लड़कियों को बोझ माने जाने के कारण जैसे-तैसे उसे निपटाना बाल विवाह का बड़ा कारण है. एक सर्वे के अनुसार पश्चिम बंगाल, बिहार और त्रिपुरा में 40 प्रतिशत लड़कियों का विवाह अट्ठारह वर्ष से पहले हो जाता है.
Child Marriage In India: यह इस साल की शुरुआत की बात है. इन पंक्तियों की लेखिका की घरेलू सहायिका ने कहा कि उसे तमिलनाडु में अपने गांव जाना है, भतीजी का विवाह है. यह पूछने पर, कि क्या वह पढ़ाई खत्म कर चुकी है, उसने कहा कि नहीं, भतीजी आठवीं कक्षा में पढ़ती है. आठवीं में! उम्र कितनी है? जवाब आया, सोलह से कम. अब मेरे चौंकने की बारी थी. पर घरेलू सहायिका का कहना कि उसके यहां ऐसा ही होता है, वर्ना लड़के नहीं मिलते. मैं तो शादी के वक्त तेरह साल की ही थी. उसकी बात सुनकर बहुत आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में ही अनेक लड़कियां ऐसी हैं, जो बहुत छोटी उम्र में ही दो-तीन बच्चों की मां बन जाती हैं. दिल्ली में अट्ठारह से कम की उम्र में बड़ी संख्या में लड़कियां ब्याह दी जाती हैं.
गरीब परिवारों में होते हैं 75 प्रतिशत बाल विवाह
माना यह जाता है कि देश के ग्रामीण इलाकों में बाल विवाह ज्यादा होते हैं, मगर शहरों में भी बाल विवाह कम नहीं होते. लगभग 75 प्रतिशत बाल विवाह गरीब परिवारों में होते हैं. स्त्री शिक्षा, बाल विवाह, विधवा विवाह सब एक-दूसरे से जुड़े हैं. बाल विवाह की इजाजत शरीर नहीं देता, क्योंकि उस उम्र में शरीर अविकसित अवस्था में होता है. बाल विवाह एनीमिया समेत कई बीमारियों का कारण बनता है. बचपन में हुए विवाह और उसके बाद विधवा हो जाने के दंश को हमारी बच्चियां सदियों से झेलती आयी हैं.
लिंगभेद की वजह से भी होते हैं बाल विवाह
लड़कियों के प्रति माता-पिता और समाज की उपेक्षा और लड़कियों को बोझ माने जाने के कारण जैसे-तैसे उसे निपटाना बाल विवाह का बड़ा कारण है. एक सर्वे के अनुसार पश्चिम बंगाल, बिहार और त्रिपुरा में 40 प्रतिशत लड़कियों का विवाह अट्ठारह वर्ष से पहले हो जाता है. उसके बाद झारखंड, असम, आंध्र प्रदेश, राजस्थान और तेलंगाना का नंबर आता है. बंगाल और त्रिपुरा में अरसे तक वामपंथी शासन रहा है. लिहाजा उन राज्यों में बाल विवाह का चलन ज्यादा होना समझ से परे है. जबकि सती प्रथा और बाल विवाह जैसी कुरीतियों के खिलाफ अभियान चलाने वाले राजा राममोहन राय बंगाल से ही थे.
वर्ष 1929 में अपने यहां बाल विवाह के विरुद्ध कानून बनाया गया था. लेकिन उस कानून में सजा सिर्फ उस वयस्क को मिलती थी, जिसने एक बच्ची से विवाह किया और उन माता-पिता को जिन्होंने अपनी बच्ची छोटी उम्र में ही ब्याह दी. समय के अनुसार जुर्माने की रकम भी बहुत कम थी. वर्ष 2006 में बाल विवाह कानून में सुधार किया गया और इसमें लड़कों के विवाह की कम से कम उम्र 21 और लड़कियों के विवाह की 18 वर्ष कर दी गयी थी. वर्ष 2021 में सरकार ने 2006 के कानून में सुधार कर लड़कियों की भी शादी की उम्र 21 वर्ष करने का प्रस्ताव किया था.
43 प्रतिशत लड़कियों का विवाह 18 साल से कम उम्र में
यूनिसेफ के अनुसार भारत में 43 प्रतिशत लड़कियों का विवाह अट्ठारह साल से कम उम्र में ही कर दिया जाता है. इंडिया चाइल्ड प्रोटेक्शन ने 2011 के नेशनल क्राइम ब्यूरो और नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 2019 की रिपोर्टस् के आधार पर एक अध्ययन किया था. इस अध्ययन के मुताबिक, देश में हर रोज 4,400 बाल विवाह होते हैं. हर मिनट देश में तीन बच्चियों की शादी हो जाती है. हाल के वर्षों में असम सरकार ने बाल विवाह के खिलाफ कठोर कदम उठाए हैं. इसलिए वहां 2021-22 में 3,225 बाल विवाह हुए थे, जो 2023-24 में घटकर 627 रह गये. अन्य राज्य भी ऐसे कदम उठा सकते हैं.
बाल विवाह मुक्त अभियान की शुरुआत
बाल विवाह से होने वाले नुकसान को ध्यान में रखते हुए केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री अन्नपूर्णा देवी ने बाल विवाह मुक्त अभियान की जो शुरुआत की है, वह स्वागतयोग्य कदम है. इस अवसर पर केंद्रीय मंत्री ने बढ़ते लैंगिक अनुपात का जिक्र करते हुए कहा कि देश में 2014-15 में प्रति 1,000 लड़कों पर 918 लड़कियां थीं, जो 2023-24 में बढ़कर 930 हो गयीं. उन्होंने यह भी कहा कि पिछले साल एक लाख बाल विवाह रोकने में सफलता मिली है. केंद्र सरकार के ताजा कदम का उद्देश्य देश को बाल विवाह से पूरी तरह मुक्त करना है. इसके लिए एक पोर्टल बनाया गया है, जिस पर बाल विवाह से संबंधित शिकायत की जा सकती है और बाल विवाह रोकने के लिए नियुक्त किये गये अधिकारियों के बारे में जानकारी प्राप्त की जा सकती है.
कानून से समस्या का समाधान संभव नहीं
संयुक्त राष्ट्र ने भी माना है कि भारत में बाल विवाहों में कमी आयी है. अब सरकार ने यह कदम उठाकर बहुत सही किया है. लेकिन यह भी सच है कि लड़कियों के बारे में जब तक समाज में व्याप्त सोच से मुक्ति नहीं मिलेगी, तब तक सरकार और कानून से भी समस्या को पूरी तरह हल नहीं किया जा सकता. आश्चर्य है कि समाज का जो हिस्सा लड़कियों को छोटी उम्र में ब्याह देने को अच्छा काम समझता है, उसे छोटी उम्र में मां बनने से लड़कियों की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं की कोई चिंता ही नहीं होती. क्या लड़कियों के स्वास्थ्य और उनके जीवन की कोई कीमत नहीं है? जाहिर है कि बाल विवाह जैसी कुरीति को खत्म करने के क्षेत्र में मिलने वाली सफलता हमारे समाज की बदलती सोच पर भी निर्भर है.
(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)