चीन का हो कूटनीतिक समाधान

चीन की यही नीति रही है कि वह पहले किसी क्षेत्र को विवादित बता कर अपना अधिकार जताता है और मौका पाते ही वहां अपनी स्थिति मजबूत कर लेता है.

By मुचकुंद दूबे | June 30, 2020 2:48 AM

मुचकुंद दुबे, पूर्व विदेश सचिव

delhi@prabhatkhabar.in

भारत और चीन के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा के निर्धारण को लेकर चल रहा विवाद नया नहीं है. यह भी उल्लेखनीय है कि चीन का अपने अधिकतर पड़ोसी देशों के साथ सीमा से संबंधित विवाद है. वर्ष 2017 में भी भारत-भूटान-चीन सीमा पर स्थित डोकलाम में विवाद हुआ था, लेकिन बातचीत के बाद 72 दिनों तक चला तनाव सुलझा लिया गया था. लेकिन पूर्वी लद्दाख की मौजूदा तनातनी 1975 के बाद सबसे नाजुक स्थिति में है. भारत-चीन सीमा विवाद में 45 साल बाद इतनी संख्या में सैनिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी है. यह बेहद चिंता की बात है.

पहले जब भी दोनों देशों के बीच सीमा पर तनाव की स्थिति पैदा हुई, उसे आपसी सहमति से सुलझाने के प्रयास किये गये. इस बार भी विवाद के निपटारे के लिए दोनों तरफ के उच्चाधिकारियों के बीच कई दौर की बातचीत हुई और पूर्व की यथास्थिति बनाये रखने पर सहमति बन गयी, लेकिन चीन की मंशा कुछ और थी. इसी कारण चीन ने समझौते को दरकिनार कर बल प्रयोग किया.

चीन का हमेशा से समझौते का पालन करने का व्यवहार नहीं रहा है. पहले वास्तविक नियंत्रण रेखा पर मौसम अच्छा होने पर दोनों देश की सैन्य टुकड़ियां गश्त लगाकर वापस चली जाती थीं. लेकिन इस बार जब भारतीय सैनिक पेट्रोलिंग के लिए गये, तो उन्हें रोकने की कोशिश की गयी.

यही नहीं, विवादित क्षेत्र में चीनी सेना ने कई तरह के निर्माण कार्य कर अपनी स्थिति मजबूत कर ली है. इसके बाद चीन पूर्व की तरह इलाके पर अपना दावा करने लगा. ऐसा ही काम चीन ने साउथ चाइना सी में किया है. वियतनाम और फिलीपींस का उस इलाके पर अधिकार होने के वाबजूद चीन उन्हें वहां फटकने नहीं देता है. साउथ चाइना सी में भी बलपूर्वक चीन कई कृत्रिम द्वीप बनाकर अपने दावे मजबूत करने के प्रयास में लगा हुआ है.

चीन की हठधर्मिता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अंतरराष्ट्रीय अदालत के साउथ चाइना सी पर दिये फैसले को भी वह मानने को तैयार नहीं है. चीन की यही नीति रही है कि वह पहले किसी क्षेत्र को विवादित बता कर अपना अधिकार जताता है और मौका पाते ही वहां अपनी स्थिति मजबूत कर लेता है. गलवान घाटी में भी उसने यही करने की कोशिश की और ऐसा नहीं लगता है कि चीन अपनी नीति में कोई बदलाव करनेवाला है.

चीन के साथ सीमा विवाद सुलझाने के लिए भारत लगातार प्रयासरत रहा है. लेकिन चीन की नजर अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम और अन्य कई भारतीय क्षेत्रों पर है, जबकि वह पहले ही भारत के बड़े भू-भाग पर कब्जा कर चुका है. ऐसे में बातचीत तभी सफल हो सकती है, जब दोनों पक्ष एक-दूसरे को कुछ रियायत देने के लिए तैयार हों. लेकिन चीन रियायत के बजाय बल प्रयोग कर समझौता करना चाहता है. लेकिन इस बार भारत किसी भी कीमत पर झुकने को तैयार नहीं है.

यह भी वास्तविकता है कि चीनी नेतृत्व की महत्वाकांक्षा और उसकी विस्तारवादी नीतियों के कारण वैश्विक स्तर पर उसकी गरिमा और साख में गिरावट आयी है. कोरोना वायरस के संक्रमण से पैदा हुए संकट के कारण पहले ही कई देश चीन के खिलाफ गोलबंद हो रहे हैं. ऐसे में चीन के लिए भारत के साथ बेहतर संबंध बनाये रखना उसके हित में है.

इसलिए चीन को 1962 वाला रवैया छोड़कर बातचीत से विवादित मसलों का निपटारा करना चाहिये. इसके लिए सैन्य मोर्चे के साथ कूटनीतिक स्तर पर समाधान का प्रयास जारी रखना चाहिए. लेकिन पहले के अनुभवों पर गौर करें, तो यही नजर आयेगा कि चीन के बारे में निश्चित रूप से कुछ भी कहना मुश्किल है. भारत और चीन दोनों के लिए युद्ध से कुछ हासिल नहीं होगा. अगर चीन ने 1962 वाली गलती दोहराने की कोशिश की, तो वह दुनिया में पूरी तरह अलग-थलग पड़ जायेगा.

लेकिन भारत को भी इस संबंध में बहुत कुछ करने की जरूरत है. हम 1962 से सुनते आ रहे हैं कि खुद को मजबूत करना है, लेकिन जैसा काम होना चाहिए, वह नहीं हो पाया. मौजूदा विवाद के बीच देश में चीन के आर्थिक बहिष्कार और आत्मनिर्भर होने की बात जोर-शोर से चल रही है, लेकिन ऐसा कर पाना संभव नहीं है.

चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. दोनों देशों के बीच लगभग 70 अरब डॉलर का कारोबार है, लेकिन द्विपक्षीय कारोबार में भी चीन का पलड़ा भारी है. चीन करीब 60 अरब डॉलर की वस्तुएं भारत को निर्यात करता है, जबकि भारत महज 10 अरब डॉलर मूल्य की चीजें ही उसे निर्यात कर पाता है. इन आंकड़ों से जाहिर है कि हमारे देश के आर्थिक विकास में यह पहलू कितना महत्वपूर्ण है.

ऐसे में चीनी उत्पादों का बहिष्कार किस हद तक हो पायेगा, यह तो भविष्य में ही पता चल सकेगा. जहां तक आत्मनिर्भर बनने का सवाल है, तो पहले एक ऐसा दौर था, जब हम कई मामलों में आत्मनिर्भर थे. बहुत से कच्चे माल में हम चीन से काफी आगे थे, लेकिन जान-बूझकर चीन को आगे बढ़ने दिया गया. पहले फार्मा उद्योग का कच्चा माल विश्व में सबसे अधिक भारत में तैयार होता था, उसी तरह जेनरेटर का भी व्यापक उत्पादन भारत में ही होता था.

आज दोनों मामले में हम चीन पर निर्भर हो गये हैं. एक-एक कर हर क्षेत्र में चीन का दखल बढ़ता गया और चीन आर्थिक तौर पर सशक्त बनता गया. भारत ही नहीं, विश्व के प्रमुख देशों के साथ भी चीन का कारोबार अरबों डॉलर का है. यही नहीं, चीन ने कई देशों में अरबों डॉलर का निवेश कर अपना वर्चस्व मजबूत किया है.

भारत के लिए चिंता की बात यह भी है कि पड़ोसी देशों में भी चीन का दखल बढ़ रहा है. नेपाल से हाल के दिनों में संबंध में खटास दिख रही है. यह हमारी गलती है. हम छोटे पड़ोसी देशों की सार्वभौमिक स्थिति को समुचित महत्व नहीं देते हैं, जबकि यह समझना चाहिए कि खराब संबंध कितना नुकसान पहुंचा सकते है. ऐसे में चीन के साथ मौजूदा विवाद से सबक लेते हुए भारत को भावी चुनौतियों का सामना करने की रणनीति बनाने की जरूरत है.

(बातचीत पर आधारित)

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