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बढ़ती जा रही है चीन की बौखलाहट

दक्षिण चीन सागर के पड़ोसी देशों के साथ मिलकर उसने हांगकांग और ताइवान को चीन का हिस्सा बनाने की पहल भी शुरू कर दी है. उसने भारत के साथ भी सीमा विवाद पैदा कर दिया है.

By प्रो सतीश | June 9, 2020 1:48 AM
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प्रो सतीश कुमार, राजनीतिक विश्लेषक

singhsatis@gmail.com

चीन ने अपने श्वेत पत्र में गलत लिखा है कि उसने समय रहते दुनिया को सच्चाई बता दी थी. दरअसल, श्वेत पत्र लाना चीन की बौखलाहट दर्शाता है. सामान्यतः चीन अपनी गलतियां बताने के लिए ऐसे दस्तावेज नहीं निकालता, बल्कि वह दुनिया को डराने के लिए ऐसा करता रहा है. कोविड-19 पर चीन बुरी तरह घिर चुका है. उसकी बौखलाहट की वजह यही है. पर भारत के साथ उसकी मुठभेड़ को केवल कोविड-19 से जोड़कर नहीं देखा जा सकता.

असल में चीन, एशिया में कुछ वर्षों से एक नयी व्यवस्था बना रहा है, जिसके तहत वह दक्षिण चीन सागर, ताइवान, हांगकांग और भारतीय क्षेत्र लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश पर कब्जा करना चाह रहा है. दक्षिण चीन सागर के पड़ोसी देशों के साथ मिलकर उसने हांगकांग और ताइवान को चीन का हिस्सा बनाने की पहल भी शुरू कर दी है. उसने भारत के साथ भी सीमा विवाद पैदा कर दिया है.

चीनी सेना भारत के लद्दाख सेक्टर में गश्त लगा रही है. अस्वाभाविक रूप से चीन की सैन्य टुकड़ी भी वहां जमा है. डोकलाम विवाद के समय भी चीन के तेवर इतने तीखे नहीं थे, जितने अभी हैं. इसके कई कारण हैं. कोविड-19 ने चीन की विश्वसनीयता पर ऐसा धब्बा लगाया है, जिससे उबरने में उसे वर्षों लगेंगे. विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ उसकी मिलीभगत ने दुनिया को खतरे में डाल दिया है.

कोरोना वायरस की उत्पत्ति और फैलाव को लेकर अमेरिका के अलावा ऑस्ट्रेलिया और फ्रांस तक चीन को घेरने का मन बना चुके हैं. इसमें बेल्ट-रोड परियोजना में चीन के सहयोगी कई देश भी शामिल हैं. अपने आपको घिरता देख और देश के भीतर सुलगते राजनीतिक अविश्वास पर रोक लगाने के लिए ही चीन पड़ोसी देशों से उलझ रहा है. पहले हांगकांग, उसके बाद ताइवान और दक्षिण चीन सागर में अपने उग्र राष्ट्रवादी तेवर से उसने अपनी खामियों को ढकने का प्रयास किया. फिर भारत के लद्दाख में घुसपैठ कर दी. यह सबकुछ अचानक हुआ है.

चीन के अनुसार, अरुणाचल प्रदेश तिब्बत का दक्षिणी हिस्सा है, इसलिए वह चीन का अभिन्न अंग है. चीन सीमा विवाद को लेकर खुद तार्किक नहीं रहा है. कभी पैकेज डील के तहत पूर्वी भाग पर विशेष रियायत मांगता है और उसके बदले पश्चिमी सीमा पर भारतीय शर्त को मानने के लिए तैयार दिखता है, तो कभी पश्चिमी सीमा को अपना मानने लगता है. यह चीन की सोच का सामरिक तत्व है जिसे ‘सलामी’ व्यवस्था के रूप में जाना जाता है. इसका अर्थ अपने विरोधी की शक्ति और मनोविज्ञान के आधार पर सीमा क्षेत्र का निरंतर विकास करना है. दौलत बैग ओल्डी में भी चीन वही कर रहा है.

चीन का क्षेत्रफल भले ही बड़ा है, लेकिन उसकी समुद्री सीमा संकुचित है. इसलिए वह निरंतर हिंद महासागर में अपनी पकड़ मजबूत बनाने की कोशिश में लगा हुआ है. दक्षिण चीन सागर विवाद के घेरे में है. अमेरिका और चीन के पड़ोसी देश मलक्का स्ट्रेट पर चौकसी कर रहे हैं. चीन के व्यापार की जीवन रेखा भी वही समुद्री सेतु है. पाकिस्तान और म्यांमार की मदद से चीन वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में हिंद महासागर में अपनी पहुंच बनाने में सफल रहा है. यहीं से चीन का समुद्री विस्तार खाड़ी देशों से होता हुआ पूर्वी अफ्रीका तक पहुंचता है.

अमेरिका का वर्तमान चीन विरोध शीत युद्ध के माहौल से अलग है. वर्ष 1950 से 1972 तक यह विरोध वैचारिक था. लेकिन, 2016 से 2020 के बीच का द्वंद्व अस्तित्व की लड़ाई है. अमेरिका किसी भी कीमत पर चीन को दुनिया का मठाधीश बनते हुए नहीं देख सकता. अमेरिका की इस सोच को अगर कोई देश सार्थक मदद देने की स्थिति में है, तो वह भारत है. भारत की अपनी जरूरतें है. भारत-अमेरिका संबंध के कई मायने हैं. लेकिन चीन इसे अपने लिए एक खतरा मानता है.

उसकी नजर में अमेरिका की दूरी और भारत की मजबूरी अपने अकेले के दम पर चीन का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती. लेकिन दोनों देशों के एक साथ होने पर चीन को तिब्बत को लेकर असुरक्षा महसूस होती है. आधुनिक चीन के निर्माता माओत्से तुंग ने कहा था कि तिब्बत चीन के लिए दंत सुरक्षा का काम करती है, जब तक दंत शृंखला मजबूत है, जिह्वा सुरक्षित रहेगी, लेकिन इसमें दरार पड़ते ही बाहरी शक्तियां चीन पर हावी हो जायेंगी. यह डर चीन में आज भी बखूबी बना हुआ है.

चीन ने दुनियाभर को दुश्मन बना लिया है. अमेरिका अभी चीन से शक्तिशाली है और उसने रूस को भी इस मुहिम में शामिल करने की चाल चली है. यूरोपीय देश पहले से ही अमेरिका के साथ हैं. ऐसे में चीन के सामरिक समीकरण को तोड़ने के लिए अमेरिका सहित कई देश भारत के साथ आयेंगे. क्या चीन एक साथ जापान, अमेरिका और भारत के साथ लड़ सकता है? ऐसा संभव नहीं है. इसलिए चीन की सेना खुद ही कुछ दिनों में लद्दाख के पूर्वी क्षेत्र से वापस लौट जायेगी.

(यह लेखक के निजी विचार हैं.)

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