शास्त्रीय बौद्ध धर्म एवं भारतीय ज्ञान प्रणाली

यह आवश्यक है कि हम नागार्जुन के विचारों की पुनर्रचना करें. उनकी रचना ‘मूलमध्यमककारिका’ के प्रारंभिक पद को देखें- ‘स्वयं से नहीं, न ही अन्य से, दोनों से भी नहीं, बिना कारण किसी की उत्पत्ति नहीं होती.’

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 21, 2024 9:57 PM

प्रो शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित
कुलपति
 जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली

भारत की बौद्धिक एवं सभ्यतागत विरासत में बौद्ध धर्म का एक महत्वपूर्ण स्थान है. भारत से इसका वैश्विक प्रसार हुआ. भारतीय ज्ञान परंपरा के निर्माण में शास्त्रीय भारतीय बौद्ध धर्म स्रोतों का मूल्यवान भंडार शामिल है. भारतीय आख्यान संरचना को इस दार्शनिक परंपरा को पुनर्भाषित और पुनर्संरचित कर पुनः अंगीकार करना चाहिए. नागार्जुन (150-250 ईस्वी) एक महान भारतीय दार्शनिक एवं भिक्षु थे, जिन्हें तिब्बती एवं पूर्वी एशियाई महायान परंपराओं में ‘द्वितीय बुद्ध’ भी कहा जाता है. वे वर्तमान आंध्र प्रदेश से थे और उन्होंने सभी धर्मों में शून्यता की केंद्रीय अवधारणा के इर्द-गिर्द महायान बौद्ध दर्शन को व्यवस्थित किया. उन्होंने मध्यमक या मध्य मार्गीय दर्शन प्रदान किया.

बौद्ध दर्शन की समावेशी एवं सार्वभौमिक प्रकृति भारतीय सभ्यता की विशिष्टताओं- विविधता, असम्मति एवं साहचर्य- को प्रतिबिंबित और रेखांकित करती है. अनेक धारणाओं के विपरीत, भारतीय ज्ञान प्रणाली में समावेशी भावना समाहित है, जो धार्मिक सीमाओं के परे जाकर प्रज्ञा के विविध स्रोतों को अंगीकार करती है. इस मूल्य के केंद्र में यह चेतना है कि ज्ञान सार्वभौमिक है और उसका विस्तार किसी भी धार्मिक परंपरा के दायरे से परे है. हालांकि हिंदू धर्म ने भारतीय ज्ञान प्रणाली में महत्वपूर्ण योगदान दिया, जिसमें वेद एवं उपनिषद् जैसे मूलभूत पाठ भी शामिल हैं, पर भारतीय सभ्यता की बहुलवादी प्रकृति तथा विचारों के समन्वयक आदान-प्रदान को स्वीकार करना महत्वपूर्ण है, जिससे इसकी बौद्धिक धरोहर समृद्ध हुई है.

बौद्ध धर्म समावेशी मूल्य को अंगीकार करता है तथा वास्तविकता एवं मानव स्थिति पर विशिष्ट दृष्टि प्रदान करता है, जो हिंदू दर्शन तंत्र का विरोधाभासी नहीं, बल्कि पूरक है. महान दार्शनिक नागार्जुन ने अपनी रचना ‘मूलमध्यमककारिका’ के माध्यम से महायान बौद्ध दर्शन से मध्यमार्गी दर्शन में योगदान दिया. अपनी पुस्तक ‘ताओ ऑफ फिजिक्स’ में कापरा ने परमाणु एवं क्वांटम भौतिकी के क्षेत्र में शास्त्रीय भारतीय बौद्ध दर्शन की समकालीन प्रासंगिकता को रेखांकित किया है. यह आवश्यक है कि हम नागार्जुन के विचारों की पुनर्रचना करें.

उनकी रचना ‘मूलमध्यमककारिका’ के प्रारंभिक पद को देखें- ‘स्वयं से नहीं, न ही अन्य से, दोनों से भी नहीं, बिना कारण किसी की उत्पत्ति नहीं होती.’ यह कारण और प्रभाव के कर्म सिद्धांत को स्थापित करता है, जो किसी रचनाकार ईश्वर या परस्पर अंतर्निर्भरता के संजाल से परे स्थित किसी अन्य तत्व के प्रति समर्पण के बिना संचालित होता है. कारणों के संजाल के अंतर्गत हर उत्पत्ति होती है, इसलिए कोई पृथक स्वतंत्र अस्तित्व संभव नहीं है. अंतर्निर्भर वास्तविकता में सभी मानसिक प्रक्रियाएं भी समाहित हैं. बुद्ध कहते हैं कि परम वास्तविकता भी स्व-अस्तित्व के बिना है.

भारतीय ज्ञान तंत्र द्वारा प्रोन्नत बौद्ध धर्म की दार्शनिक अवधारणाओं में अन्य बातों के अलावा अनित्य और अनात्म भी शामिल हैं, जो सदियों से भारत में अध्ययन एवं शोध के विषय रहे हैं. बौद्ध परंपरा का अभिन्न तत्व ध्यान तनाव एवं अति-सक्रिय जीवनशैली जैसी आधुनिक चिंताओं के समाधान के लिए प्रभावी उपाय के रूप में सामने आया है. वैज्ञानिक शोधों से साबित हुआ है कि सचेतन जैसी ध्यान प्रक्रियाओं से मस्तिष्क में भावना, ध्यान और संवेदना से संबंधित सकारात्मक संरचनात्मक परिवर्तन होते हैं.

किसी तरह के स्व-अस्तित्व नहीं होने की अवधारणा को ‘शून्यता’ कहते हैं. इसके दो कारण हैं- एक, हर चीज क्षण में प्रवाहित होती है और दो, ये क्षण निरंतर प्रवाह में एक-दूसरे का स्थान लेते रहते हैं. ये क्षणिक धारावाहिक अस्तित्व परस्पर कारणों से संबद्ध होते हैं, जिसे प्रतीत्य-समुत्पाद के नाम से जाना जाता है. सभी घटनाएं, क्षण या वस्तुएं परस्पर संबद्ध है और अंतर्निर्भर हैं. सभी मानसिक प्रक्रियाएं भी अंतर्निर्भर वास्तविकता में शामिल हैं. अध्ययन के एक विषय तथा एक धार्मिक व्यवहार के रूप में बौद्ध धर्म सामाजिक स्तर पर महत्वपूर्ण हो जाता है, विशेषकर समुचित व्यवहार और सहिष्णुता को बढ़ावा देने वाले नैतिक मूल्यों को स्थापित करने में.

भारतीय समाज के वैविध्य परिदृश्य में ये अवधारणाएं समावेश और साहचर्य के साथ रहने को रेखांकित करती हैं. करुणा और जुड़ाव जैसी बौद्ध धारणाओं से प्रभावित लोगों में असाधारण रूप से सहयोग व सहकार की प्रवृत्ति होती है. यह आर्थिक संदर्भों में भी देखने को मिलता है. आर्थिक नीतियों में बौद्ध सिद्धांतों को शामिल कर भरोसे और दीर्घकालिक लाभ पर आधारित एक ठोस आर्थिक व्यवस्था स्थापित की जा सकती है. बौद्ध नैतिक मूल्यों को अपनाने और व्यक्तिगत कल्याण के बारे में हुए शोध रेखांकित करते हैं कि ऐसे लोग अधिक नैतिक, स्वस्थ, संतुष्ट एवं जुझारू होते हैं. ये शोध बौद्ध मूल्यों की निरंतर प्रासंगिकता को स्थापित करते हैं, जिनके आधार पर नैतिक जीवन और साहचर्यपूर्ण समाज स्थापित हो सकते हैं. भारतीय ज्ञान तंत्र में बौद्ध धर्म का अध्ययन एवं प्रसार अब केवल सांस्कृतिक प्रसार या सॉफ्ट पॉवर के औजार भर नहीं हैं. ऐसे प्रयासों के अपने लाभ हैं, पर बौद्ध परंपराओं को बढ़ावा देना अब स्वस्थ जीवनशैली को बढ़ावा देने से जुड़ गया है. लगातार ऐसे शोध सामने आ रहे हैं, जो तनाव, अवसाद, दर्द आदि कम करने में ध्यान के महत्व को स्थापित कर रहे हैं.

ध्यान से लोगों की मानसिक और भावनात्मक क्षमता में उल्लेखनीय वृद्धि को भी रेखांकित किया गया है. इस प्रकार, धार्मिक आयामों से इतर बौद्ध परंपरा का अध्ययन भारतीय ज्ञान प्रणाली की एक और विशेषता को इंगित करता है.
यथार्थ की प्रकृति, सहने की अवधारणा और स्वतंत्र होने की राह जैसे बौद्ध धर्म के दार्शनिक तत्व आज की प्रमुख आवश्यकता हैं. नागार्जुन का मध्य मार्ग रेखांकित करता है कि शून्यता ही परिवर्तन और क्रिया को संभव बनाता है. वे इंगित करते हैं कि सारांश के माध्यम से अस्तित्व नहीं टिक सकता क्योंकि तब परिवर्तन असंभव हो जायेगा. तत्वों को अलग-अलग देखने से शुरू करने और फिर एकता की खोज करने वाली समझ पर यह नागार्जुन का प्रहार है.

वे अभिन्न एकता के प्रचारक हैं. अनिश्चितता और उथल-पुथल से जूझती दुनिया में बौद्ध धर्म की निरंतर धरोहर आशा और प्रबोधन के प्रज्वलित मशाल की तरह है. बौद्ध मध्यमार्गी तर्क उस संदर्भ पर बल देता है, जिससे सत्य को जाना जा सकता है. यह विशिष्टतावाद के पश्चिम के वर्चस्ववादी विमर्शों को खारिज करता है. यह धर्म के मेटाफिजिक्स तथा एक भारतीय आख्यान संरचना उपलब्ध कराता है, जिसमें भारतीय ज्ञान परंपरा को समृद्ध करने वाले साझा सिद्धांत, प्रतीक एवं प्रक्रियाएं समाहित हैं.
(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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