विकास के लिए जरूरी है स्वच्छ भारत

आगामी तीन दशकों में 45 करोड़ और लोगों के जुड़ने से देश की शहरी आबादी लगभग दुगुनी हो जायेगी. यह शहरीकरण आर्थिक बढ़ोतरी का भी प्रमुख कारक होगा.

By मोहन गुरुस्वामी | December 11, 2020 10:03 AM

मोहन गुरुस्वामी, अर्थशास्त्री

mohanguru@gmail.com

धरती पर भारत के सबसे अधिक प्रदूषित और गंदा देश होने के बारे में हालिया रिपोर्टों को देश में रहनेवाला कोई भी व्यक्ति नकार नहीं सकता है. अधिकतर झील और नदियां रासायनिक तत्वों से गंभीर रूप से जहरीली हो चुकी हैं. अधिकतर शहरों, खासकर उत्तर भारत के, की हवा निर्धारित मानकों से बहुत अधिक प्रदूषित है. यह सब बिना पढ़े भी साफ है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा घोषित स्वच्छ भारत अभियान के छह सालों बाद भी हम देशभर की सड़कों पर बिखरे कचरे का निपटारा नहीं कर सकते हैं.

देशभर में पुरुषों को दीवारों पर या खुले में पेशाब करते देखा जा सकता है. हमारे शहरों में फुटपाथ खोजना लगभग असंभव हो चुका है और जहां ये हैं भी, तो वहां उन पर कचरा बिखरा होता है या वे पेशाब से भीगे होते हैं. सामान्य बुद्धि हमें बताती है कि हमें बहुत अधिक कचरे के डिब्बों और सार्वजनिक शौचालयों की जरूरत है.

लेकिन यह तो मसले का आसान हिस्सा है. उन्हें साफ और इस्तेमाल लायक रखना सबसे मुश्किल हिस्सा है. स्पष्ट है कि हम असफल हो रहे हैं. हमारे पास निम्न स्तर के परिणाम वाली खर्चीली शासन व्यवस्था है. हमें अपने को प्रबंधित करने के लिए नये और बेहतर तरीके की जरूरत है. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में चार फरवरी, 1916 को महात्मा गांधी ने कहा था- ‘मैं बीती शाम विश्वनाथ मंदिर गया था. यदि कोई अपरिचित ऊपर से इस महान मंदिर में आये, तो क्या उसका हमारी निंदा करना सही नहीं होगा?

क्या यह सही है कि हमारे पवित्र मंदिरों की गलियां ऐसी गंदी होनी चाहिए? अगर हमारे मंदिर ही स्वच्छता के आदर्श नहीं हैं, तो हमारा स्वराज कैसा होगा? हम स्वच्छता के बुनियादी सिद्धांत भी नहीं जानते. हम हर जगह थूकते हैं. इसका परिणाम अवर्णनीय गंदगी है.’ पिछले 104 सालों में स्थिति बदतर ही हुई है. हम केवल हर जगह थूकते ही नहीं हैं, बल्कि पेशाब-पाखाना भी करते हैं और कूड़ा-कर्कट भी फेंकते हैं. भारत स्पष्ट रूप से दुनिया का सबसे गंदा और अस्वास्थ्यकर देश है. प्रधानमंत्री ने देश को साफ-सुथरा बनाने के लिए स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत कर सराहनीय पहल की थी.

उन्होंने शहरों में 1.20 करोड़ शौचालय बनाने, ढाई करोड़ सार्वजनिक शौचालय बनाने और तीन करोड़ सामुदायिक शौचालय बनाने का महत्वाकांक्षी कार्यक्रम घोषित किया था. इस योजना के तहत तीस करोड़ से अधिक लोगों को कचरा प्रबंधन के व्यवहारों के लिए सहायता देने का लक्ष्य था, जिसे 2019 में पूरा किया जाना था. इस पर 62 हजार करोड़ रुपये से अधिक के खर्च का अनुमान था. ऐसा नहीं है कि हम इस खर्च को वहन नहीं कर सकते हैं. लेकिन देश के स्वच्छ होने की उम्मीद मुझे तब भी नहीं थी और अब तो यह साफ है कि स्वच्छ भारत अभियान सफल होने से कहीं अधिक असफल हो चुका है.

लेकिन इस मसले को प्राथमिकता देने के लिए प्रधानमंत्री की प्रशंसा की जानी चाहिए, पर नीयत ही सब कुछ नहीं होती. उन्होंने अपनी योजना के लागू करने के तरीकों के बारे में नहीं सोचा. उनके लक्ष्य बहुत बड़े थे. उन्होंने 24 घंटे पेयजल और निकास व्यवस्था से युक्त कचरा प्रबंध के साथ सौ स्मार्ट शहर बनाने का भी वादा किया था. पूर्वी दिल्ली में आप जाकर देख सकते हैं कि भाजपाशासित नगर निगम के तहत कुछ भी नहीं हुआ है. यही स्थिति देशभर में है. भाजपा के घोषणापत्र में सौ नये शहरों का वादा सही था क्योंकि इनकी जरूरत है.

आगामी तीन दशकों में 45 करोड़ और लोगों के जुड़ने से देश की शहरी आबादी लगभग दुगुनी हो जायेगी. यह शहरीकरण आर्थिक बढ़ोतरी का भी प्रमुख कारक होगा. यदि हम इसके लिए धन की व्यवस्था भी कर लें, तो इसे करने के लिए लोक प्रशासन कहां है? हमारे पास एक अत्यधिक केंद्रीकृत व्यवस्था है, जो देश पर शासन करने के लिए उपयुक्त है, पर उसकी सेवा करने के लिए नहीं. राष्ट्रीय स्तर पर और राज्यों की राजधानियों में प्रमुखता के कारण हमारा लोक प्रशासन का बेहद मामूली हिस्सा स्थानीय स्तर पर नागरिकों से आमना-सामना के लिए बच जाता है तथा उसमें भी जवाबदेही की भावना नहीं है. यह देश का बदलाव नहीं कर पाने की हमारी अक्षमता का मूल कारण है.

आजादी के बाद जवाहरलाल नेहरू ब्रिटिश शासन से विरासत में मिली लोक सेवा को समाप्त कर एक नयी प्रणाली के पक्षधर थे, जो सिर्फ उगाही के लिए व्यवस्था न बनाये, बल्कि देश के बदलाव और समतामूलक विकास को भी संचालित करे. सरदार पटेल इससे सहमत नहीं थे और वे आइसीएस जैसी अभिजात्य लोकसेवा को बरकरार रखना चाहते थे. इससे आइएएस और आइपीएस प्रशासन के मुख्य औजार बन गये, पर व्यवस्था पहले की ही तरह रही, जिसका काम बदलाव के बजाय नियंत्रण था. इसके परिणाम हम सबके सामने हैं.

शासन के तीन स्तरों पर लगभग 185 लाख लोग कार्यरत हैं. केंद्र सरकार के 34 लाख, राज्यों के 72.18 लाख और अर्द्ध सरकारी एजेंसियों में 58.14 लाख लोग कार्यरत हैं. इसकी तुलना में नागरिकों से सीधे साबका रखनेवाले स्थानीय शासन के स्तर पर केवल 20.53 लाख लोग ही काम करते हैं. इसका सीधा मतलब यह है कि हमारे पास पांच लोग आदेश देनेवाले हैं, जबकि उनका अनुपालन करने के लिए एक ही व्यक्ति है. हम अधिक शौचालय अगर बना दें, तो उन्हें साफ करने के लिए लोग समुचित संख्या में उपलब्ध नहीं हैं. यही बात नालियों और कचरा के मामले में लागू होती है.

ऐसा नहीं है कि इस केंद्रीकृत व्यवस्था में बदलाव की कोशिशें नहीं हुई हैं, पर वे नियंत्रण के उद्देश्य व लक्ष्य से प्रेरित शासकीय व्यवस्था के कारण सफल नहीं हो सकीं. इसका एक परिणाम यह हुआ कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में कोई योग्य स्थानीय शासन नहीं है. शहरों के नगर निगम और नगरपालिकाएं भी राज्य सरकार के नियंत्रण के कारण स्वतंत्र नहीं है. ऐसी स्थिति है, मानो सामान्य लोग अपने जीवन पर अपना नियंत्रण खो चुके हैं और वे कहीं दूर बैठे मालिकों की मनमानी के भुक्तभोगी हैं.

प्रधानमंत्री ने कचरा न फैलाने और अपने आस-पड़ोस को साफ रखने के लिए लोगों को प्रेरित कर स्वागतयोग्य पहल की है, पर सरकार को भी संसाधन व व्यवस्था को दुरुस्त रखना होगा. प्रधानमंत्री को इस पर भी ध्यान देना चाहिए कि समुचित सेवा देने में सरकार क्यों विफल रही है. तभी स्वच्छ भारत बन सकता है, जिससे विकास दर में एक से दो प्रतिशत की बढ़ोतरी हो सकती है और हम लोक सेवा को सही में राष्ट्रीय आय में योग देनेवाली सेवा मान सकते हैं.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

Posted by : Pritish Sahay

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