खतरनाक हैं मानसून में रुकावट की घटनाएं
जलवायु परिवर्तन के संकट से जूझ रही दुनिया इसकी भारी आर्थिक कीमत चुका रही है. संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुटेरेस का कहना एकदम सही है कि जलवायु आपदा टालने में दुनिया पिछड़ रही है. समय की मांग है कि विश्व समुदाय सरकारों पर दबाव बनाये. यदि वैश्विक प्रयास तापमान वृद्धि को डेढ़ डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने में कामयाब रहे, तब भी 96.1 करोड़ लोगों के लिए यह खतरा बरकरार रहेगा.
Climate change : स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन समूची दुनिया के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुका है. सबसे अधिक चिंतित करने वाली बात यह है कि इससे जीवन का कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं रहा है. इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि जलवायु परिवर्तन से जहां समुद्र का जलस्तर बढ़ने से कई द्वीपों और तटीय महानगरों के डूबने का खतरा पैदा हो गया है, वहीं सूखे, जमी मिट्टी के ढीली होने के चलते तेजी से बिखरने, मिट्टी में कार्बन सोखने की क्षमता कम होते जाने, खारापन बढ़ने, बेमौसम बारिश के कारण बाढ़ आने, चक्रवात आने, कम समय में ज्यादा बारिश आने, शुष्क भूमि पर निर्भर लोगों के लिए भोजन का संकट बढ़ने, दुनिया के पचास फीसदी चारागाह नष्ट होने, फसल की पैदावार दर में तीन से बारह फीसदी के बीच गिरावट होने, लोगों के मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं होने, 30 फीसदी प्रजातियों के अस्तित्व पर संकट मंडराने, सुपर बग का खतरा बढ़ने, अंटार्कटिका में उल्का पिंडों के गायब होने, बच्चों के उच्च जोखिम की स्थिति में पहुंचने और जीवन का अधिकार प्रभावित होने के साथ-साथ अब मानसून ब्रेक की घटनाओं का खतरा भी पैदा हो गया है.
जलवायु परिवर्तन के संकट से जूझ रही दुनिया इसकी भारी आर्थिक कीमत चुका रही है. संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुटेरेस का कहना एकदम सही है कि जलवायु आपदा टालने में दुनिया पिछड़ रही है. समय की मांग है कि विश्व समुदाय सरकारों पर दबाव बनाये. यदि वैश्विक प्रयास तापमान वृद्धि को डेढ़ डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने में कामयाब रहे, तब भी 96.1 करोड़ लोगों के लिए यह खतरा बरकरार रहेगा. जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा दुष्परिणाम जनसमूहों के पलायन के रूप में सामने आया है. यह प्रवृति गरीब देशों से विकसित देशों की ओर बढ़ती देखी जा रही है, जो दिन-ब-दिन और भयावह हो रही है. यह स्थिति भारी असमानता को बढ़ावा देगी, जिसके परिणाम काफी खतरनाक होंगे.
आजकल मानसून ब्रेक के बारे में चिंताएं ज्यादा हैं. वैज्ञानिकों के अनुसार जलवायु परिवर्तन ने इसे बढ़ाने में खासा योगदान दिया है. इसे यदि मानसून में रुकावट कहें, तो गलत नहीं होगा. यह कम दबाव के क्षेत्र में मानसून गर्त के खिसकने के कारण होता है. जब यह गर्त उत्तर की ओर खिसककर हिमालय की तलहटी से जाकर संरेखित होती है, तब बारिश रुक जाती है. इसे यूं कहें कि मानसून के मौसम में जब झमाझम बारिश हो रही हो और वह अचानक बंद हो जाए, तो उसे मानसून ब्रेक कहते हैं.
ऐसे में प्रभावित क्षेत्र में तीव्र गर्मी वाली स्थिति पैदा हो जाती है. जिस इलाके में बारिश के चलते तापमान कम हो जाता है, वहां वह यकायक बढ़ जाता है. नतीजतन वहां अत्याधिक गर्मी पड़ती है और उसके बाद तेज वर्षा शुरू हो जाती है. यह अक्सर अगस्त के माह में होता है. इसका समय लगभग तीन से पांच दिन तक का रहता है. इसके बाद फिर बारिश शुरू हो जाती है. साल 1976 के बाद से सबसे अधिक लंबा मानसून ब्रेक पिछले साल अगस्त में देखने को मिला. सच तो यह है कि मानसून ब्रेक के बाद उमस बहुत तेजी से बढ़ती है. उस दशा में लोग बेचैनी महसूस करते हैं. उस समय तापमान 26-27 डिग्री सेल्सियस से लेकर 32-33 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है. तापमान में आयी यह बढ़ोतरी अनेक स्वास्थ्य संबंधी विकृतियों-बीमारियों का सबब बनती है. यह मौसमी बदलाव स्वास्थ्य के लिए तो हानिकारक है ही, कृषि भी इससे काफी हद तक प्रभावित होती है. फसलों के उत्पादन पर पड़े असर की वजह से बाजार में कीमतें आसमान छूने लग जाती हैं.
होता यह है कि इस दौरान ट्रफ रेखाएं हिमालय की तलहटी में चली जाती हैं. सामान्यतः ये ट्रफ रेखाएं हमारे मरु प्रदेश राजस्थान के श्रीगंगानगर जिले से होकर कोलकाता तक चलती हैं. मानसून में ठहराव या ब्रेक अस्थिरता का कारण बनता है, जो सूखे की लंबी अवधि और छोटे वर्षाकाल का सबब बनता है. मानसून प्रणालियों में बदलाव कम दबाव और गर्त की स्थिति दक्षिण की ओर चले जाने और अत्याधिक बाढ़ जैसी घटनाओं के जन्म का कारण बनती हैं. परिणामस्वरूप गर्मियों में यह उत्तरी हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी को प्रभावित करता है. इसका प्रभाव क्षेत्र अपेक्षाकृत मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल का करीब 1,000 किलोमीटर की परिधि के क्षेत्र के बराबर हो सकता है. इसमें ला नीना की भयावह स्थिति का बना रहना, पूर्वी हिंद महासागर का असामान्य रूप से गर्म होना, हिमालयी क्षेत्रों की पूर्व मानसूनी गर्मी और ग्लेशियरों के पिघलने की अहम भूमिका रहती है. इस दौरान 35 डिग्री सेल्सियस तक का तापमान ऊष्मा को और बढ़ाता है. इससे कृषि प्रक्रियाएं तो प्रभावित होती ही हैं, इसके परिणामस्वरूप बौनापन, उर्वरता में कमी, गैर व्यवहारी पराग और अनाज की गुणवत्ता गहरे तक प्रभावित होकर कम हो जाती है. निष्कर्ष यह कि ऐसी स्थिति से निपटने के लिए विश्वसनीयता और स्थिरता की दृष्टि से देश के मानसून पूर्वानुमान की बेहतर प्रणाली स्थापित करने की बेहद जरूरत है, तभी इस दिशा में कुछ सार्थक बदलाव की उम्मीद की जा सकती है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)