लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाते हैं जलवायु सम्मेलन

कॉप जैसी बैठकें अंतरराष्ट्रीय हैं, पर देखा गया है कि यह मात्र 10 से 20 प्रतिशत से ज्यादा अपने संकल्प पर खरी नहीं उतरतीं. इसलिए अब दुनियाभर में कॉप जैसी बैठकों पर भी सवाल खड़े होने लगे हैं कि ये अपने लक्ष्य तक क्यों नहीं पहुंच पाती हैं.

By डॉ अनिल प्रकाश जोशी | December 8, 2023 4:41 AM

इस बार कॉप 28 सम्मेलन कई गंभीर मुद्दों को लेकर दुबई में हो रहा है, जिसमें दुनियाभर के विकासशील से लेकर विकसित देश भागीदारी कर रहे हैं. सम्मेलन में सबसे अधिक जोर इसी बात पर है कि किस तरह हम जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित कर सकते हैं. इसकी बहस का हिस्सा पेरिस समझौते के वादों की याद दिलाना भी है. उसमें कार्बन उत्सर्जन को लेकर सबसे अधिक चर्चा हुई थी और यह भी बात हुई थी कि हम कब तक कार्बन उत्सर्जन को कम करेंगे, इसके लिए एक लक्ष्य तय करें. इसके बाद 2030 का लक्ष्य तय किया गया था कि धरती के तापमान को 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक होने से रोकना है. इन्हीं बातों को लेकर कॉप 28 में भी बहस हो रही है. पारिस्थितिकी को लेकर चिंतित संयुक्त राष्ट्र के जनरल सेक्रेटरी ने कहा है कि ‘आज हम सबका एक ही बड़ा दायित्व है कि हम एक ऐसे विश्वसनीय प्रतिबद्धता की बात करें, जिससे हम 2030 के लक्ष्य को प्राप्त कर सकें.’

आज भी बैठकों में चरणबद्ध तरीके से धीरे-धीरे फ्यूल के उपयोग को कम करने को लेकर बहस जारी है. पर भारत जैसे व अन्य विकासशील देशों में यह तत्काल संभव नहीं है. क्योंकि यहां की बड़ी आबादी ऊर्जा की अपनी आवश्यकता के लिए आज भी परंपरागत ईंधन पर ही निर्भर है. संभवत: इसलिए भारत ने ऐसे किसी भी समझौते पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया है. वैसे 117 देशों ने इस बात पर रजामंदी दिखाई है कि वे 2030 तक नवीन ऊर्जा के उपयोग को तीन गुना बढ़ायेंगे. रिन्यूएबल एनर्जी के साथ ही फ्यूल उपयोग को चरणबद्ध तरीके से कम करने पर भी बात हो रही है. इसी कड़ी में यूएनएफसीसीसी की हाल में आयी रिपोर्ट में स्पष्ट कहा गया है कि हम 1.5 और दो डिग्री सेंटीग्रेड तापक्रम को नियंत्रित करने के लक्ष्य से अभी भी बहुत पीछे है. आने वाले दिनों में इस सम्मेलन में जिस अन्य मुद्दे पर चर्चा होनी है, वह है निम्न कार्बन ट्रांजिशन और उससे जुड़ी वित्तीय आवश्यकता. इसमें इन्वेस्टर्स, कैपिटल मार्केट की भागीदारी भी तय होनी है कि हम किस तरह कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करें? मतलब, स्वीकार योग्य कार्बन मार्केट को लेकर बात होगी और यह भी अपेक्षा की गयी है कि हम डी-कार्बोनाइजेशन का विधिवत अकाउंट रखते हुए आगे बढ़ें.

क्लाइमेट में जीरो सॉल्यूशन हमेशा से ही इस तरह की गोष्ठियों में काफी गर्माता है, क्योंकि आज भी हम इस लक्ष्य से बहुत दूर हैं. इसके अतिरिक्त, कार्बन मार्केट के लिए हम किस तरह से अपनी रणनीति बना सकते हैं, इस पर भी चर्चा होगी. जैव-विविधता, वनों का विस्तार व सुरक्षा भी कॉप की बैठकों का मुद्दा रहा है. हम आज 28 कॉप तक पहुंच चुके हैं, पर क्या इसके परिणाम सार्थक रहे हैं, यह भी बहस का हिस्सा होगा. क्योंकि प्री-इंडस्ट्रियल युग से आज तक करीब 1.1 डिग्री सेंटीग्रेड पृथ्वी के तापमान में बढ़ोतरी हुई है. समुद्र के लगातार बढ़ते ताप पर भी चर्चा होनी चाहिए. इस बार की मेजबानी दुबई को दी गयी है. इसमें चिंतन तो फ्यूल को लेकर भी है और चर्चाओं का स्पॉटलाइट भी यही है. जबकि दुबई ही ऑयल का सबसे बड़ा बाजार भी है और इस बात का लांछन भी झेल रहा है कि सम्मेलन की आड़ में ऑयल व्यापार भी होगा. इसके अलावा, लॉस एंड डैमेज फंड को क्रिएट करने की बात अभी तक बहुत गंभीर शक्ल नहीं ले पायी है, पर इस ओर प्रगति दिखाई दे रही है. क्योंकि यह माना गया है कि विकसित देशों ने जिस तरह कार्बन उत्सर्जन किया है, उसका खामियाजा कहीं न कहीं विकासशील देशों को भुगतना पड़ रहा है. इसकी आर्थिक तौर पर भरपाई विकसित देशों द्वारा क्रिएट किये गये फंड से संभव होगी. परंतु आज भी हम लगातार बहसों के बाद फॉसिल फ्यूल को न तो कम कर पाये हैं, न ही इससे उत्पन्न विसंगतियों पर चर्चा ही कर पाये हैं. जैसे ऑयल, गैस और फ्यूल से जुड़े रोजगार का क्या विकल्प होगा. इसके अलावा, सरकारों के जीरो क्लेम पर भी चर्चा का यह समय है कि किस तरह से इस क्लेम की स्क्रूटनी की जाए, ताकि यह बात सामने आये कि हम जलवायु परिवर्तन के प्रति खरे उतरे हैं. इसके लिए एक स्टैंडर्ड पर भी चर्चा होगी कि किस स्तर पर हम धीरे-धीरे फेज आउट हों और फॉसिल फ्यूल से दूसरे अन्य ऊर्जा के साधनों से कैसे जुड़ पाएं.

एक ग्लोबल गोल की चर्चा की भी संभावना है. अडॉप्टेशन को लेकर पिछली बैठकों में जो चर्चा हुई है, उनके लिए क्लाइमेट फाइनेंस जरूरी होगा. जो ज्यादा कार्बन उत्सर्जक देश हैं, वे इसमें भागीदारी करें. पिछली बहसों में यह 100 बिलियन डॉलर मानी गयी थी, जिसका लक्ष्य अभी तक पूरा नहीं हुआ है. कॉप जैसी बैठकें अंतरराष्ट्रीय हैं, पर देखा गया है कि यह मात्र 10 से 20 प्रतिशत से ज्यादा अपने संकल्प पर खरी नहीं उतरतीं. इसलिए अब दुनियाभर में कॉप जैसी बैठकों पर भी सवाल खड़े होने लगे हैं कि ये अपने लक्ष्य तक क्यों नहीं पहुंच पाती हैं. कॉप बैठकों को आपस में भी आत्ममंथन करके यह तय करना चाहिए कि इन बैठकों का स्वरूप कैसा हो? ताकि कार्बन उत्सर्जन पर की जाने वाली ये बैठकें खुद ही कार्बन उत्सर्जन का मुख्य स्रोत न बनें.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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