गंभीर होता जलवायु संकट
लगभग 80 फीसदी ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन जी-20 समूह के सदस्य देशों द्वारा होता है, जिसमें दुनिया की बड़ी विकसित और विकासशील अर्थव्यवस्थाएं शामिल हैं.
धरती के बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने की कोशिशों के बावजूद संतोषजनक परिणाम नहीं मिल रहे हैं. पिछले साल वातावरण में तीन ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा ने सभी पूर्ववर्ती रिकॉर्ड तोड़ दिया, तो वर्तमान वर्ष के सबसे गर्म साल होने की आशंका है. संयुक्त राष्ट्र के मौसम विज्ञान से संबंधित संगठन ने बताया है कि ग्रीनहाउस गैसों की बढ़ती मात्रा धरती को गर्म करती जा रही है, जिससे मौसम में बड़े बदलाव हो रहे हैं. संगठन के महासचिव पेटेरी टालस ने निराशा व्यक्त करते हुए कहा है कि कई दशकों से वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं, हजारों पन्नों की ढेरों रिपोर्ट प्रकाशित हो चुकी हैं तथा जलवायु पर दर्जनों सम्मेलन हो चुके हैं, फिर भी हम अभी भी गलत दिशा में बढ़ रहे हैं.
इस माह के अंत में दुबई में संयुक्त राष्ट्र का वार्षिक सम्मेलन आयोजित हो रहा है. एक पखवाड़े के इस सम्मेलन में अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों के अलावा इस पर भी चर्चा होनी है कि 2050 तक जीवाश्म ईंधनों- कोयला, तेल, गैस आदि- का इस्तेमाल पूरी तरह बंद करने के लिए क्या उपाय किये जाने चाहिए. ऐसे प्रमुख ऊर्जा स्रोतों की जगह स्वच्छ ऊर्जा के उत्पादन और उपभोग पर बल दिया जा रहा है, लेकिन जो देश सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन करते हैं, उनकी कटौती अपेक्षित नहीं है. हमारे वातावरण में वैश्विक स्तर पर कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा औद्योगिक काल से पूर्व के औसत से 50 फीसदी अधिक है. मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड की मात्रा भी तेजी से बढ़ी है. ये ग्रीनहाउस गैसें धरती के तापमान को वातावरण से बाहर जाने में बाधा बनती हैं, जिससे गर्मी बढ़ती जाती है.
पेरिस जलवायु सम्मेलन में यह तय किया गया था कि धरती के तापमान में वृद्धि को इस सदी के अंत तक औद्योगिक दौर से पहले के तापमान से दो डिग्री सेल्सियस से कम रखा जायेगा. हम अत्यधिक और औचक बारिश, सूखा, बाढ़, ग्लेशियरों के बर्फ पिघलना, समुद्री जल स्तर में बढ़ोतरी, भू-क्षरण, रेगिस्तानों का विस्तार, गर्मी आदि जैसी मुश्किलों का सामना कर रहे हैं. लगभग 80 फीसदी ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन जी-20 समूह के सदस्य देशों द्वारा होता है. ऐतिहासिक रूप जलवायु परिवर्तन के लिए विकसित देश जिम्मेदार हैं, पर वे विकासशील देशों में स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए तकनीकी और वित्तीय मदद नहीं करना चाहते. वे अपने उत्सर्जन को भी कम नहीं कर रहे हैं. विकासशील देशों को अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए ऊर्जा चाहिए, इसलिए उनके लिए उत्सर्जन में बड़ी कटौती कर पाना मुश्किल है. ऐसे में व्यापक वैश्विक सहकार से ही हम धरती को बचा सकते हैं.