दक्षिणी एशिया में तेज गर्मी के बाद अब यूरोप बहुत अधिक तापमान से जूझ रहा है. ब्रिटेन में तो पारा ऐतिहासिक रूप से 40 डिग्री सेल्सियस से आगे जा चुका है. जलवायु वैज्ञानिकों का कहना है कि हाल के वर्षों में यह चिंताजनक रुझान बढ़ता गया है और जलवायु परिवर्तन के कारण ऐसा होना अपेक्षित भी है. भारत में गर्मी के मौसम में असहनीय लू और बीते कुछ समय में देश के पूर्वी हिस्से में आयी भारी बाढ़ बिगड़ती जलवायु स्थिति को इंगित करती हैं, जिससे मौसम के मिजाज में लगातार गंभीर बदलाव हो रहे हैं. ये जलवायु समस्याएं शासन के लिए चुनौती बनती जा रही हैं. ऐसे में जो आधिकारिक प्रतिक्रियाएं होती है, वे या तो अधिक समस्याएं खड़ी करती हैं या ठीक से चिंताओं पर विचार नहीं करतीं. वन्यजीव अभयारण्यों के पास आर्थिक क्षेत्र बनाने से संबंधित सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय इसका एक हालिया उदाहरण है. अदालत ने अपने आदेश में अभयारण्यों की सीमा से एक किलोमीटर की परिधि में पर्यावरण के प्रति संवेदनशील क्षेत्र बनाने को कहा है. इन क्षेत्रों में मानवीय सक्रियता या तो पूरी तरह प्रतिबंधित रहेगी या फरवरी, 2011 में पर्यावरण मंत्रालय द्वारा जारी दिशानिर्देश के अनुसार ऐसी अनुमति केवल प्रमुख वन संरक्षक दे सकते हैं.
मंत्रालय के दिशानिर्देश में इस तरह की अनुमति के आधारों का विस्तार से वर्णन है, लेकिन चिंता यह है कि ‘व्यापक जनहित’ को आधार बना कर एक किलोमीटर की न्यूनतम सीमा में बदलाव भी किया जा सकता है. इस निर्णय के बाद से ‘व्यापक जनहित’ को आधार बनाने के कई मामले सामने आ चुके हैं. इनमें से एक केरल में खड़ा हुआ विवाद है, जिसका आधार यह है कि अदालती आदेश से कई किसानों की आजीविका पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है. केरल के किसानों के एक संगठन के प्रमुख ने इसे लाखों लोगों के जीवन-मरण का प्रश्न बताया है. वायनाड से सांसद राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से प्रभावित लोगों की चिंताओं पर विचार करने का आग्रह किया है. दूसरा उदाहरण है पश्चिमी घाट को पारिस्थितिकी के लिहाज से संवेदनशील क्षेत्र घोषित करने के नियमों का प्रस्ताव. पश्चिमी घाट को दुनिया के सर्वाधिक जैव विविधता वाले क्षेत्रों में गिना जाता है. यहां पांच हजार प्रकार के पौधों और वैश्विक स्तर पर विलुप्ति की कगार पर खड़े 325 जीवों का वास है. देश व दुनिया के लिए इनका बहुत महत्व है, लेकिन कर्नाटक सरकार ने इस घोषणा का विरोध करने का संकल्प उन्हीं आधारों पर किया है, जिनका उल्लेख केरल के नेता कर रहे हैं कि इससे लोगों की आजीविका बाधित होगी. ऐसे में क्या संरक्षण की आवश्यकता को चिंताओं से अधिक महत्व दिया जाना चाहिए?
अस्पष्ट अर्थ वाली धारणा ‘व्यापक जनहित’ की तरह किसी कामकाज का निर्धारण उसी दृष्टि से होगा, जिससे स्थिति को देखा जायेगा. राजनीतिक संदर्भ में, और इसके कारण आर्थिक दृष्टि से देखते हुए, जनहित में लिया गया कोई भी फैसला उन निर्धारित संवेदनशील क्षेत्रों में बसने वाले लोगों के जीवन को पूरी तरह बदल सकता है. उदाहरण के लिए, मुंबई के संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यान की सीमा पर झुग्गी कॉलोनियां और उसके निकट इमारतें बनी हुई हैं. वे वर्षों से वहां हैं और उन्हें दूसरी जगह नहीं बसाया जा सकता है. जिन मामलों में आबादी कम है और बिखरी हुई है, वहां रह रहे लोग अब वन विभाग और सरकारी अधिकारियों की दया पर हैं. दूसरी ओर वन्य अभयारण्यों तथा राष्ट्रीय उद्यानों के संरक्षण की भी आवश्यकता है. जब लोग लगातार सघन हो रहे कंक्रीट के जंगलों में बसे जा रहे हैं, तब हरे-भरे ये क्षेत्र उनके जीवन की गुणवत्ता में अहम भूमिका निभाते हैं. यह फिर रेखांकित किया जाना चाहिए कि इन निर्धारित क्षेत्रों में जैव विविधता का संरक्षण, पेड़ों का होना, वन्य जीव और इनके कारण कॉर्बन डाईऑक्साइड में कमी हमारे सामने खड़े जलवायु संकट से लड़ने के लिए जरूरी हैं. हमें वनों के व्यापक प्रभाव को भी नहीं भूलना चाहिए. इसी कारण आमेजन के जंगलों की बर्बादी को मानवता के विरुद्ध अपराध माना जा रहा है.
जहां तक राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों की बात है, तो जैव विविधता में आमतौर पर 180 देशों की सूची में भारत 179वें पायदान पर है. येल/कोलंबिया पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक (ईपीआइ) के जैव विविधता सूचकांक में भारत का स्थान 175वां है. इस सूचकांक के निर्धारण में पौधों व जीवों के निवास स्थान के लोप होने, वनों का क्षरण होने तथा क्षेत्रीय विविधता के बचाव में बाधा आदि के प्रभावों का संज्ञान लिया जाता है. भारत ने इस सूचकांक को यह कहते हुए खारिज कर दिया है कि यह ‘अनुमानों और अवैज्ञानिक तरीकों’ पर आधारित है. भले ही इस बात में कुछ सच हो, पर यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि सूचकांक को खारिज तभी किया गया, जब देश को लगभग सबसे नीचे रखा गया. इससे चुनींदा असहमति का खतरनाक संदेश निकलता है.
जैव विविधता सूचकांक को नकारना और विरोधों को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की समीक्षा की मांग करना तस्वीर का एक पहलू हैं. दूसरी ओर सर्वोच्च न्यायालय के ही कुछ हालिया आदेश हैं, जहां पर्यावरण मंजूरी नहीं लेने को महज ‘तकनीकी अनियमितता’ कह दिया गया. एक मामले में एक इलेक्ट्रोस्टील कंपनी ने अपना संयंत्र बिना किसी मंजूरी के एक जगह से हटा कर पांच किलोमीटर से अधिक दूर स्थापित कर दिया, तो दूसरे मामले में एक रसायन बनाने वाली इकाई बिना किसी पर्यावरण मंजूरी के चल रही थी. इन दोनों मामलों में आर्थिक कारकों को स्पष्ट रूप से प्राथमिकता दी गयी, लेकिन आज की असहज स्थिति में पर्यावरण के संबंध में कठोर फैसला लेने की दरकार है. दुर्भाग्य से जलवायु संकट हमारे जीवन का नियमित हिस्सा बन जायेगा. ऐसी स्थितियों के लिए हमें हर तरह से तैयार रहने की योजनाएं बनानी होंगी, क्योंकि कार्बन उत्सर्जन और मानवीय गतिविधियों के मौजूदा स्तर को देखते हुए कहा जा सकता है कि जलवायु संबंधी विस्थापन में वृद्धि ही होगी. हम लोग मौसम की मार के लगातार गवाह बनेंगे. किसे अनुमान था कि 18 जुलाई को फ्रांसीसी शहर कजाओ में तापमान 42.4 डिग्री सेल्सियस हो जायेगा, जो बीते 101 वर्षों में सबसे अधिक है, जब से रिकॉर्ड रखा जा रहा है. किसे यूरोप में ऐसी गर्मी पड़ने का अहसास था? अभी चुनौती यह है कि हम किस प्रकार अभी प्रभावित और बाद में प्रभावित होने वाले लोगों की चिंता के समाधान के लिए क्या कर पाते हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)