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पलायन की मानवीय त्रासदी

प्रवासी मजदूरों की मदद में समाज के सभी वर्गों को आगे आना चाहिए. हम सभी को इस मानवीय त्रासदी में अपना सामाजिक दायित्व निभाने की आवश्यकता है.

आशुतोष चतुर्वेदी, प्रधान संपादक, प्रभात खबर

ashutosh.chaturvedi@prabhatkhabar.in

इसके पहले किसी विषय ने मुझे इतना नहीं झकझोरा. जैसे-जैसे सूचनाएं आ रही हैं, उनसे पता चल रहा है कि प्रवासी मजदूरों की त्रासदी इतनी ह्दयविदारक है कि वह किसी भी शख्स को अंदर तक हिला सकती है. केंद्र और राज्य सरकारें इन्हें ट्रेनों से इनके गंतव्य तक पहुंचा रही हैं, लेकिन इनकी संख्या बड़ी है और ये प्रयास पर्याप्त नहीं हैं. हताश होकर ये पैदल ही निकल पड़े हैं. पिछले दिनों हमारे साथियों ने बताया कि हाइवे पर उन्हें प्रवासी मजदूरों का एक जत्था मिला, जो आंध्र प्रदेश के गुंटूर से लगभग एक हजार किलोमीटर का सफर तय कर रांची पहुंचा था. बातचीत में श्रमिकों ने बताया कि वे वहां मिर्च उद्योग में काम करते थे. लॉकडाउन के कारण काम बंद हो गया. लिहाजा वे वहां से पैदल चल पड़े. उन सभी के पैर लहूलुहान थे. खाने का कोई ठौर-ठिकाना नहीं था.

एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि रांची उनका पड़ाव भर था, उनका गंतव्य बिहार का दरभंगा जिला था यानी एक हजार किलोमीटर का रास्ता पैदल तय करने के बाद भी लगभग 600 किलोमीटर का उनका सफर बाकी था. बहुत से प्रवासी मजदूर नंगे पांव चल रहे हैं. समाज के कुछ लोग और हमारे साथी भी अपने स्तर से ही उन्हें हवाई चप्पलें और खाना उपलब्ध कराने का सराहनीय कार्य कर रहे हैं, लेकिन ये प्रयास व्यापक होने चाहिए. सरकारों की अपनी सीमाएं हैं. मुझे लगता है कि इस कार्य में समाज के सभी वर्गों को तत्काल आगे आना चाहिए और हाइवे पर जो मजदूर चल रहे हैं, उन्हें खाना-पानी और सामान्य चिकित्सा सहायता उपलब्ध करानी चाहिए. भारतीय समाज की यह खासियत है कि वह हमेशा सुख-दुख में एक-दूसरे का साथ निभाता है. हमें इस मानवीय त्रासदी के प्रति भी अपने सामाजिक दायित्व को निभाने की आवश्यकता है.

हम सब जानते हैं कि पलायन की शुरुआत तब हुई, जब लॉकडाउन के दौरान लोगों को अपने गांव जाने के संसाधन उपलब्ध नहीं हुए और लोग पैदल ही चल पड़े. लॉकडाउन शुरू होने तक उनके पास कुछ पैसे थे, लेकिन लॉकडाउन के महीने भर बाद जो लोग अपने गांवों के लिए निकले हैं, उनके पास इतना पैसा भी नहीं है कि वे खाना भी खा सकें. केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से कई कदम उठाये गये हैं, लेकिन इनमें ऐसी कोई पहल शामिल नहीं है, जो पैदल चल रहे इन प्रवासी मजदूरों को तत्काल मदद पहुंचा सके. इन मजदूरों पर हर तरफ से मार पड़ रही है. मजदूरों को लेकर हादसों की दिल को हिला देने वाली खबरें आ रही हैं. घर जाते हुए मजदूर रास्ते में हादसों का भी शिकार हो रहे हैं.

हाल में उत्तर प्रदेश से खबर आयी कि 24 मजदूरों की मौत सड़क हादसे में हो गई. उत्तर प्रदेश के औरैया में बिहार-झारखंड लौट रहे मजदूरों के ट्रक से एक दूसरे ट्रक से टक्कर हो गयी, जिससे 24 मजदूरों की मौत हो गयी और 15 मजदूर अस्पताल में गंभीर स्थिति में है. रविवार को भी मप्र और पश्चिम बंगाल में आठ ऐसे मजदूरों की मौत हो गयी. लॉकडाउन के बीच अब तक विभिन्न हादसों में 55 से ज्यादा मजदूर अपनी जान गंवा चुके हैं. महाराष्ट्र से अपने घर जाने की चाह में पैदल निकले 16 मजदूर औरंगाबाद में ट्रेन की चपेट में आने से दर्दनाक मौत के शिकार हो गये थे. मध्य प्रदेश के ये मजदूर महाराष्ट्र के एक स्टील प्लांट में काम करते थे. ये सभी 16 मजदूर उमरिया और शहडोल जिले के थे. औरंगाबाद से 10 किलोमीटर दूर स्थित करमाड में ट्रेन की चपेट में आने के कारण इनकी मौत हो गये थी.

ये मजदूर जालना से भुसावल की ओर रेल की पटरियों के किनारे पैदल ही चल रहे थे, लेकिन लंबी दूरी तय करने के कारण इन्हें थकान हो गयी और ये पटरियों पर ही सो गये थे, तभी एक मालगाड़ी ने इन्हें रौंदती हुई चली गयी. 14 मई को उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में एक दर्दनाक सड़क हादसे में बिहार के छह मजदूरों की मौत हो गयी थी. ये सभी मजदूर बिहार के गोपालगंज, आरा और पटना के रहनेवाले थे और हरियाणा से पैदल ही अपने घरों के लिए वापस लौट रहे थे. उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर-सहारनपुर हाइवे पर यह दर्दनाक सड़क हादसा हुआ, जहां पैदल अपने गांव जा रहे मजदूरों को एक तेज रफ्तार बस ने कुचल दिया था.

13 मई को मध्य प्रदेश के गुना में हुए एक ऐसे ही सड़क हादसे में आठ मजदूरों की जान चली गयी, जबकि 50 से ज्यादा घायल हो गये. मध्य प्रदेश के गुना जिले में मजदूरों से भरी कंटेनर की टक्कर एक खाली बस से हो गयी थी. हादसा इतना भयावह था कि मौके पर ही आठ लोगों की मौत हो गयी, जबकि 50 घायल हो गये थे. 29 मार्च को गुड़गांव के पास एक कंटेनर की चपेट में आकर पांच अन्य मजदूरों की मौत हो गयी. यह हादसा कुंडली-मानेसर-पलवल हाइवे पर हुआ. इससे पहले तेलंगाना में 27 मार्च को आठ मजदूर एक सड़क हादसे जान गंवा बैठे थे. आशय यह कि हर तरफ से मजदूरों पर मार पड़ रही है.

इन प्रवासी मजदूरों की आर्थिक स्थिति का पता इस बात से चलता है कि इनमें से अधिकांश ने अपनी आखिरी कमाई मार्च के शुरुआत में की थी. उसके बाद से उनकी कमाई के सारे स्रोत बंद हैं. इनमें से कई की आमदनी 7-8 हजार से लेकर 20 हजार रुपये महीने तक थी, जिसमें वे किसी तरह जीवन-यापन कर लेते थे. अधिकांश प्रवासी मजदूर साल में दो बार होली और दीपावली-छठ पर घर आते हैं और जमा पूंजी घरवालों को दे आते हैं. इन मजदूरों के पास बचत के नाम पर कुछ नहीं होता है. लॉकडाउन के बाद से इनकी कमाई पूरी तरह बंद हो गयी और देश की एक बड़ी आबादी अचानक से मोहताज हो गयी. इनमें ऐसे भी लोग हैं, जो वर्षों से शहरों में रह रहे थे और घर नहीं आये थे, लेकिन लॉकडाउन के बाद वे भी घरों को लौट रहे हैं.

इनमें से अनेक के पास गांव में जमीन- जायदाद नहीं है. कमाई की कोई व्यवस्था नहीं है. अपने सगे-संबंधियों के आसरे ये गांव जा रहे हैं. अलबत्ता, 20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज की घोषणा से इनके लिए कुछ उम्मीदें बंधी हैं. खास कर मनरेगा में अतिरिक्त 40 हजार करोड़ रुपये के प्रावधान और इसके तहत 300 करोड़ दिहाड़ी सृजित करने की केंद्र सरकार की पहल इसके लिए कुछ हद तक राहत ला सकती है. जरूरत इस बात की भी है कि इस पैकेज के तहत घोषित राशन देने की व्यवस्था, रेहड़ी वालों को कर्ज देने और प्रधानमंत्री आवास जैसी योजनाओं का लाभ इन तक जल्द पहुंचाया जाए. बहरहाल, यह बात एकदम साफ है कि बड़े शहरों में हुनरमंद मजदूरों की कमी होने जा रही है, जिसका खामियाजा उद्योगों को उठाना पड़ेगा. कुल मिला कर, कोरोना लॉकडाउन से जिन परिस्थितियों का निर्माण हो रहा है, वह देश के सामाजिक तानेबाने के लिए ठीक नहीं है.

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