गौरवशाली है 1971 की जीत
गौरवशाली है 1971 की जीत
गौरवशाली है 1971 की जीत
मेजर जनरल (रिटा.)
अशोक मेहता
रक्षा विशेषज्ञ
delhi@prabhatkhabar.in
वर्ष 1971 का भारत-पाकिस्तान युद्ध देश के इतिहास में एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाक्रम के रूप में दर्ज है. पहली बार 1976 में इस उपलक्ष्य पर विजय दिवस की शुरुआत की गयी. साथ ही इंडिया गेट की अमर जवान ज्योति पर वीर शहीदों को श्रद्धांजलि देने की शुरुआत की गयी. इस विजय की सिल्वर जुबली 1996 में मनायी गयी.
उस समय जनरल वेद मलिक सेना प्रमुख थे. औपचारिक तौर पर, विजय दिवस को मनाने के लिए समारोह आयोजित किये गये. हालांकि, सिविल अधिकारियों की तरफ से इसे मनाने को लेकर सवाल भी हुए. कुछ लोगों ने पूछा कि इसे मनाने की आवश्यकता क्या है. हमारे देश में उस समय सामरिक संस्कृति मौजूद नहीं थी. हालांकि, समय के साथ बदलाव आया है.
उस समय यह सवाल उठाने का मतलब, एक महान युद्ध की अहमियत को नजरअंदाज करना था. युद्ध क्षेत्र में भारत ने एक हजार साल बाद इतनी बड़ी कामयाबी हासिल की थी. इतिहास में अनेक युद्ध दर्ज हैं, लेकिन ज्यादातर युद्धों में परिणाम हमारे खिलाफ ही रहे. आक्रांता आये और युद्ध करके यहां कब्जा कर लिये. देश ने एक बड़े युद्ध में इतनी बड़ी विजय प्राप्त की थी.
इस युद्ध में 90 हजार से अधिक युद्ध बंदियों ने हमारी सेना के आगे समर्पण कर दिया था. मार्च, 1971 में पाकिस्तान में चुनाव के बाद नतीजे अस्वीकार कर दिये गये और पूर्वी पाकिस्तान में वहां की सेना ने अपने ही नागरिकों पर जुल्म ढाहने शुरू कर दिये. चुनाव में जीत आवामी लीग यानी शेख मुजीबुर्रहमान की हुई थी. उन्हें पाकिस्तान का प्रधानमंत्री होना चाहिए था, लेकिन उनके खिलाफ जाकर पाकिस्तानी सेना ने सत्ता और नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया.
जब पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने विरोध-प्रदर्शन शुरू किये, तो पाकिस्तानी सेना उन पर हमलावर हो गयी. उस ज्यादती की वजह से लगभग एक करोड़ शरणार्थी पलायन कर भारत में आ गये. इनमें ज्यादातर हिंदू थे. भारत ने उनसे अपने नागरिकों को वापस लेने की मांग उठायी. बातचीत का कोई शांतिपूर्ण नतीजा नहीं निकला. बिगड़ते हालातों को देखते हुए भारत ने युद्ध की तैयारी शुरू कर दी.
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने यूरोप, अमेरिका और अन्य देशों में जाकर यह घोषित किया कि पाकिस्तान अस्थिर हो चुका है और वहां से पलायन कर लाखों शरणार्थी भारत में दाखिल हो गये हैं. इसके लिए हमें कार्रवाई करने की आवश्यकता पड़ेगी.
जब युद्ध की शुरुआत हुई, तो कलकत्ता में बांग्लादेश की अंतरिम सरकार का गठन हो चुका था. साथ ही भारत की मदद से मुक्ति वाहिनी भी गठित हुई. पूर्वी पाकिस्तान की सेना से जुड़े कई लोगों ने विद्रोह कर दिया. कई अधिकारी मुक्ति वाहिनी में शामिल हो गये. मुक्ति वाहिनी के सहयोग से भारतीय सेना इस युद्ध में विजय प्राप्त करने में सफल रही. हमारी रणनीति थी कि पश्चिमी पाकिस्तान के मोर्चे पर बचाव और पूर्वी पाकिस्तान के खिलाफ आक्रामकता से कार्रवाई की जायेगी.
पाकिस्तान की फौज इस स्थिति में नहीं थी कि वह पश्चिमी पाकिस्तान की मदद के बगैर टिक सके. अनियंत्रित होते हालातों के कारण उनकी हार बिल्कुल तय थी. पाकिस्तान की रणनीति थी कि पूर्वी पाकिस्तान की रक्षा के लिए पश्चिमी पाकिस्तान की आक्रामकता जरूरी है. हमारा लक्ष्य था कि शरणार्थी वापस जायेंगे और बांग्लादेश की सरकार बन जायेगी.
आठ-दस महीने पहले ही युद्ध की तैयारी शुरू हो गयी थी और यह अभूतपूर्व थी. वर्ष 1971 में पाकिस्तानी सेना सीमा पर तैनात थी, उसे बाइपास किया गया और बांग्लादेश के अंदर कार्रवाई की गयी. जमीनी लड़ाई में पहली बार हमने हेलीकॉप्टर का इस्तेमाल किया. खुलना की नदी को पार किया गया. पहली बार पैराशूट के जरिये ढाका के निकट एयरबोर्न हमले किये गये.
पहली बार पलटन ने खुखरी हमले का तरीका अपनाया. अखौरा, सिलेट की लड़ाई, पीरगंज, बोखरा, जसौल की लड़ाई बेजोड़ थी. हवाई हमले और हेलीकॉप्टर ऑपरेशन किये गये. पहली बार आर्मी, नेवी और एयरफोर्स का संयुक्त ऑपरेशन किया गया. खुलना और चिटगांव में दोतरफा हमले हुए. इस युद्ध में 4,152 भारतीय सैनिक शहीद हुए और 1,200 से ज्यादा सैनिक घायल हुए थे.
सैनिकों के अदम्य साहस से भारतीय सेना विजय प्राप्त करने में सफल रही. लड़ाई शुरू हुई, तो लोगों को लगा कि ढाका पर कब्जा करना मुमकिन नहीं है. हालांकि, संयुक्त राष्ट्र में सोवियत संघ हमारे पक्ष में डटा रहा. अगर उनका राजनयिक और राजनीति सहयोग नहीं होता, तो लड़ाई के बीच में ही सीजफायर घोषित हो जाता.
अगर पाकिस्तान फौज के आत्मसमर्पण से पहले ही सीजफायर हो जाता, जोकि उनकी कोशिश भी थी, तो हम लक्ष्य से दूर रह जाते. उस समय अमेरिका और चीन एक तरफ थे. वहीं भारत के साथ सोवियत संघ खड़ा था. जब शेख हसीना के प्रधानमंत्री बनने, खासकर 2011, के बाद बाकायदा विजय दिवस का आयोजन होता है. इसका एक आयोजन कोलकाता में भी होता है, क्योंकि जीत मुख्य रूप से पूर्वी कमान की थी, उसका मुख्यालय कोलकाता में है.
वहां बांग्लादेश के लोग आते हैं. बांग्लादेश में भी इस जीत के उपलक्ष्य में मुक्ति दिवस का आयोजन होता है. कुछ वर्ष पहले एक कार्यक्रम के मौके पर मैं ढाका गया था. बांग्लादेश की मुक्ति में जितने लोग भी शामिल थे, उनको ढाका में मुक्ति योद्धा के तौर पर आमंत्रित किया जाता है. हमारे यहां दिल्ली और कोलकाता में इस उपलक्ष्य पर विशेष शौर्य उत्सव होते हैं.
posted by : sameer oraon