15.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

नौकरशाहों के लिए अत्यधिक लोकतंत्र

नौकरशाहों के लिए अत्यधिक लोकतंत्र

प्रभु चावला

एडिटोरियल डायरेक्टर द न्यू इंडियन एक्सप्रेस

prabhuchawla@newindianexpress.com

लोकतंत्र एक विचार भी है और एक आदर्श भी. यह एक प्रारंभ भी है और एक संस्थान भी. यह अधिकतम भागीदारी के सिद्धांत पर बढ़ता है और बचता है. यह शासन का एक प्राचीन यूनानी राजनीतिक और दार्शनिक वास्तु है, जो एथेंस में 507 ईसा पूर्व के आसपास उभरा था. इसकी व्युत्पत्ति दो शब्दों- डेमोस (सामान्य जन) और क्राटोस (सत्ता) के युग्म से हुई है. शताब्दियों से सत्ता का तंत्र सामान्य से विशिष्ट को हस्तांतरित होता रहा, जिसके परिणामस्वरूप लोकतंत्र का आशावादी भाव बाधित रहा.

लोगों के हाथ का मतपत्र कार्यपालिका के हाथ में बुलेट बन गया, जो अपने व्यक्तिगत अधिकार को थोपती है और समावेशी विमर्श के आकार को सीमित करती है. लोकतांत्रिक प्रासाद की लंबाई, चौड़ाई और उंचाई अब एक शातिर समूह द्वारा निर्धारित किया जाता है, जिसने चयन से सत्ता पाया है, चुनाव से नहीं. इनकी भंगिमाओं और अभिव्यक्तियों ने लोकतंत्र को एक प्रेत की छवि दे दी है.

यह समूह उनकी सत्ता को कमजोर कर रहा है, जिन्हें लोगों ने अपने कल्याण के लिए निर्वाचित किया है. नयी व्यवस्था के विद्वान और बहुत दिखनेवाले चेहरे अब इसका नया आख्यान लिख रहे हैं. पिछले सप्ताह नीति आयोग के भड़कीले और कॉकटेल सीईओ अमिताभ कांत ने लोकतंत्र की मात्रात्मक सीमा को परिभाषित किया. उन्होंने घोषणा की कि ‘भारतीय संदर्भ में कड़े सुधार करना बहुत कठिन है, हम एक अत्यधिक लोकतंत्र हैं.’ चूंकि कांत को राजनीतिक सूर्य के अंतर्गत हर विषय पर सबसे शक्तिशाली आधिकारिक आवाज माना जाता है, इसलिए उनके मत को राजनीतिक नेतृत्व के वर्तमान सोच के प्रतिबिंब के रूप में विश्लेषित किया जा रहा है.

उनकी प्रसिद्धि का कारण केवल एक नारा है. दो दशकों में उन्हें जो भी परियोजनाएं सौंपी गयीं, वे सब अधूरी पड़ी हैं. वे इस तथ्य को नजरअंदाज कर देते हैं कि अत्यधिक लोकतांत्रिक प्रक्रिया के कारण ही उन्हें लगभग हर सरकार में ऊंचा ओहदा मिलता रहा है. उनके बयान ने देरी से हो रहे निर्णयों के दोष को सरकार द्वारा आंतरिक असंतोष को दबाने की कार्रवाई से जोड़ दिया.

लोकतंत्र में लोकसेवकों के बजाय राजनीतिक नेतृत्व आम तौर पर संस्थाओं की क्षमता के बारे में विचार व्यक्त करता है. चूंकि अधिकतर केंद्रीय मंत्री अपने विभाग और नीतियों तक अपने को सीमित रखते हैं, सो कांत ने एक सूचना कोष की छवि अख्तियार कर ली है, जिससे सरकार की सोच का पता लगाया जा सकता है.

जब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें वर्तमान पद पर बैठाया है, कांत ने आलू से लेकर राजनीति तक हर विषय पर राय जाहिर की है. इसके फलस्वरूप उनकी टिप्पणियां, जिन पर वे खुद भी बाद में शिकायती लहजे में सवाल उठाते हैं, सरकार के लिए शर्मिंदगी की वजह बन जाती हैं. मुख्यधारा की मीडिया और सोशल मीडिया ने अर्थव्यवस्था के बारे में उनकी समझ पर सवाल उठाया है. ऐसे समय में, जब मोदी के विरोधी उनके शासन पर असंतोष को दबाने और लोकतांत्रिक प्रतीकों को नष्ट करने का आरोप लगा रहे हैं, कांत विपक्ष को अपने बिन मांगे विचार से अधिक घातक हथियार नहीं दे सकते थे.

जैसे ही यह प्रकरण विवादों में आया, कई मंत्रियों ने कांत की हवा-हवाई बुद्धि से पल्ला झाड़ते हुए लोकतंत्र में अपनी अटूट आस्था की घोषणा की. इस शर्मिंदा नौकरशाह ने अखबारों में लेख लिखा और राजनेताओं जैसा आचरण करते हुए मीडिया पर उनकी बात को तोड़-मरोड़कर पेश करने का आरोप लगाया. लेकिन वीडियो कैमरा वही रिकॉर्ड करता है, जो आंखें देखती हैं. अंतत: मोदी को सार्वजनिक रूप से अपनी सरकार को अपने एक अधिकारी के अस्वीकार्य निष्कर्ष से अलग करना पड़ा.

प्रधानमंत्री ने नये संसद भवन की आधारशिला रखते हुए स्पष्ट कहा कि ‘हमारे लिए लोकतंत्र केवल एक शासन व्यवस्था नहीं है. लोकतंत्र भारत के मूल्यों में सदियों से रचा-बसा है. लोकतांत्रिक भावना हमारी संस्कृति का हिस्सा है. भारत में लोकतंत्र एक जीवन-शैली है.’ मोदी जानते हैं कि साधारण पृष्ठभूमि से आये वे और बहुत से अन्य लोग लोकतांत्रिक सत्ता संरचना के ही सृजन हैं.

लिखित और मौखिक परीक्षा के सहारे सत्ता के प्रासाद में आनेवाले बाबुओं के उलट नेताओं को अपनी प्रासंगिकता और पहचान के प्रति लोगों को भरोसे में लेना पड़ता है. मोदी ‘अत्यधिक लोकतंत्र’ होने के कारण ही अति आक्रामक राष्ट्रीय वातावरण में 12 वर्षों तक गुजरात के मुख्यमंत्री रह सके और फिर प्रधानमंत्री बने. वास्तव में, ये द्वेषी नौकरशाह ही राजनेताओं के मस्तिष्क को प्रदूषित करते हैं ताकि वे अपनी सत्ता और निरंतरता को कायम रखने के साथ अपनी विफलता पर भी परदा डाल सकें.

लोकतंत्र में लोगों का विरोध तभी आक्रामक होता है, जब नेता अपने वादों से मुकरते दिखते हैं. हर जगह कठिनाई से ही विद्रोह पनपते हैं. महात्मा गांधी ने ब्रिटिश साम्राज्य के पतन के लिए ‘अत्यधिक लोकतंत्र’ का प्रयोग किया था. बहुत सारे स्वतंत्रता सेनानी ‘अत्यधिक लोकतंत्र’ की रक्षा करते हुए बलिदान हो गये. नेल्सन मंडेला ने कैद की यातना का इस्तेमाल लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बढ़ाने और रंगभेद के खात्मे के लिए किया.

कई यूरोपीय देशों ने संघ बनाने के लिए अपनी संप्रभुता के एक हिस्से को त्याग दिया, जो लोकतंत्र की वजह से ही हुआ क्योंकि लोगों ने समझा कि यह उनके हित में है. लोकतंत्र के कारण ही ब्रिटेन ने यूरोपीय संघ से हटने का निर्णय लिया. मध्य-पूर्व के कुछ इस्लामिक राजशाहियों ने अपनी सामाजिक व्यवस्था को कुछ उदार बनाया है, तो इसीलिए कि उन्हें यह समझ में आया कि लोकतांत्रिक होने से वे अंतत: राजशाही से मुक्त हो जायेंगे. जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी की अकर्मण्य और भ्रष्ट कांग्रेस सरकार से लड़ने के लिए देश को एकजुट किया था.

इंदिरा गांधी ने तब राजकीय सत्ता के प्रयोग से लोकतांत्रिक आवाजों को दबाया था. प्रधानमंत्री समेत आज के अधिकतर नेता- ममता बनर्जी, चंद्रशेखर राव, जगन रेड्डी, जयललिता और लालू ‘अत्यधिक लोकतंत्र’ के ही फल हैं. मायावती और गांधी परिवार सरीखे कुछ नेता हाशिये पर हैं, तो वह भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के कारण. सांस्कृतिक, भाषाई और धार्मिक विविधता के बावजूद भारत एक एकीकृत राष्ट्र के रूप में बना हुआ है क्योंकि नागरिक अपने शासकों को चुनने या अस्वीकार करने के अधिकार का प्रयोग कर सकते हैं. भारत दुनिया की पांच सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में इसलिए शामिल हो सका क्योंकि इसके सभी साझेदारों की अधिकतम भागीदारी है.

posted by : sameer oraon

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें