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अफगानिस्तान में भारत की चिंता

अफगानिस्तान में भारत की चिंता

By प्रो सतीश | December 14, 2020 9:22 AM
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प्रो सतीश कुमार

राजनीतिक विश्लेषक

singhsatis@gmail.com

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुक्रवार को कहा कि अफगानिस्तान में शांति बहाली के लिए ऐसी प्रक्रिया की आवश्यकता है, जिसका नेतृत्व खुद अफगानिस्तान करे और इस पर उसका स्वामित्व और नियंत्रण भी हो. उन्होंने पिछले दो दशकों की उपलब्धियों को संरक्षित रखने की जरूरत पर भी जोर दिया. भारत-उज्बेकिस्तान डिजिटल शिखर सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री ने उज्बेकिस्तान के राष्ट्रपति शौकत मिर्जियोयेव के साथ चर्चा की शुरुआत करते हुए कहा कि भारत और उज्बेकिस्तान आतंकवाद के खिलाफ दृढ़ता से एकजुट खड़े हैं और क्षेत्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर भी हमारा नजरिया एक जैसा है.

अफगानिस्तान पर प्रधानमंत्री मोदी का बयान ऐसे वक्त आया है, जब अफगान शांति प्रक्रिया गति पकड़ रही है. कुछ महीने पहले ही अफगानिस्तान के शीर्ष शांति वार्ताकार अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने दिल्ली में उनसे मुलाकात की थी और उन्हें अफगान सरकार तथा तालिबान के बीच दोहा में चल रही शांति वार्ता के बारे में अवगत कराया था.

पिछले साल दोहा शांति वार्ता के शुरू होने के बाद से लेकर आज तक जो कुछ भी परिवर्तन हुए हैं, वे बहुत सुकूनदेह नहीं हैं. अफगानिस्तान में तालिबान की ताकत निरंतर बढ़ती जा रही है. चिंता का विषय यह भी है कि वहां विदेशी शक्तियों की एक बड़ी जमात अपनी मजबूत पैठ बना चुकी है. इस बात का खुलासा सयुंक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में दर्ज है, जो जुलाई, 2020 में प्रकाशित हुई थी. ऐसे तत्वों में हक्कानी ग्रुप के साथ पाकिस्तान के जैशे मोहम्मद और अन्य आतंकवादी गिरोह शामिल हैं.

पाकिस्तान की आइएसआइ के नक्शेकदम पर हक्कानी गिरोह काम करता है. यह भी मसला गंभीर है कि इन आतंकी गिरोह की बड़ी फौज पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा पर तैनात है. इसलिए ऐसी आशंका है कि पाकिस्तान अफगानिस्तान मुद्दे को लेकर कश्मीर में अपनी आतंकी गतिविधियों को तेज करेगा क्योंकि अमेरिकी सेना की वापसी के बाद पाकिस्तान के हाथ में कमान होगी. इसी वर्ष जून में चीन, पाकिस्तान और तालिबान के बीच वार्ता हुई थी.

अर्थात चीन पाकिस्तान के जरिये अफगानिस्तान को अपने कब्जे में करना चाहता है और उसकी व्यूह रचना भी बन चुकी है. भारत की चिंता लाजमी है. भारत शुरू से यह कहता आ रहा है कि अफगानिस्तान की राजनीतिक व्यवस्था अफगान लोगों के दिशा-निर्देश में चले. लेकिन दोहा वार्ता हर पहलु से एकांगी है. इसमें तालिबान की शक्ति और हित का संवर्धन हुआ है, न कि अफगानियों का.

साल 1996 से लेकर 2001 के बीच तालिबान के जुल्म को दुनिया देख चुकी है. इस बार का तालिबान पिछले तालिबान से ज्यादा मजबूत होगा. चीन और पाकिस्तान की नीयत भारत के विरुद्ध है, इसलिए चिंता और बढ़ जाती है.

अफगानिस्तान में शांति के सवाल पर कतर की राजधानी दोहा में कई महीनों से बातचीत चल रही है. अफगान सरकार और तालिबान के बीच अभी भी युद्ध जैसी स्थिति है. तालिबान ने सरकारी ठिकानों पर हमला जारी रखा हुआ है. विश्लेषकों के मुताबिक, अगर यह बात सही है कि प्रगति दिखाने की मजबूरी में समझौता किया गया है, तो इसमें आगे दिक्कतें आ सकती हैं. उन्होंने ध्यान दिलाया कि दोनों पक्षों में अभी किसी मुख्य मुद्दे पर सहमति नहीं बनी है, बल्कि सिर्फ यह सहमति बनी है कि दोनों पक्ष इन मुद्दों पर बातचीत जारी रखेंगे.

इसलिए इस करार से ज्यादा उम्मीद की गुंजाइश नहीं है. जानकारों ने यह ध्यान भी दिलाया है कि इस प्रक्रिया में मुख्य भूमिका अमेरिका की है. अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की प्राथमिकता थी. लेकिन अब निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडन की क्या नीति होगी, इस बारे में अभी स्थिति साफ नहीं है. क्या बाइडन प्रशासन ट्रंप के दौर में तालिबान से हुए समझौते पर कायम रहेगा, यह भी साफ नहीं है.

वैसे जो समझौता अब हुआ है, उस पर पिछले महीने ही सहमति बन गयी थी, पर तब तालिबान ने आखिरी वक्त पर उस पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया. इसकी वजह यह थी कि समझौते की प्रस्तावना में एक पक्ष को अफगान सरकार कह कर संबोधित किया गया था. तालिबान मौजूदा अफगान सरकार को अफगान जनता का वैध प्रतिनिधि नहीं मानता. अब तालिबान ने कहा है कि प्रस्तावना कैसे तय होगी, इस बारे में बातचीत होगी.

इसके लिए संयुक्त कार्य समिति बनी है. साफ संकेत हैं कि तालिबान अपनी बात मनवाने में कामयाब रहा है, जिससे पाकिस्तान का खुश होना लाजिमी है. पिछले दो दशकों में भारत ने अफगानिस्तान में बड़ी रकम खर्च की है. भारत की पहल विकास की रही है, जिसके तहत सड़क, डिजिटल नेटवर्क, हॉस्पिटल और स्कूल बनाये गये. वहां के लोग भारत की कोशिश की खूब तारीफ भी करते है.

लेकिन बाधा पाकिस्तान की नीयत है. साल 1996 से 2001 की तालिबानी सरकार का कोई भी संबंध भारत के साथ नहीं था. भारत ने उसे कूटनीतिक मान्यता भी नहीं दी थी. लेकिन इस बार की समस्या कुछ और ही है. भूराजनीतिक समीकरण बदल चुका है. चीन भारत के प्रति आक्रामक है. पाकिस्तान सीमावर्ती इलाको में आतंकी घुसपैठ करा रहा है.

जम्मू-कश्मीर के बुनियादी आंतरिक परिवर्तन से उत्पन्न चुनौतियों को देखते हुए चीन और पाकिस्तान नयी रणनीति बना रहे है. इसमें अफगानिस्तान का मसला अहम बन सकता है. तालिबान का वर्चस्व बढ़ने से भारत की समस्या बहुत गंभीर बन जायेगी. इसलिए अमेरिका समेत दुनिया को तालिबान की वापसी को गंभीरता से लेना होगा.

posted by : sameer oraon

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