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नस्लवादी सोच पर चोट की जरूरत

नस्लवादी सोच पर चोट की जरूरत

दुनिया भले ही 21वीं सदी में पहुंच गयी है, लेकिन वह नस्लवादी मानसिकता से मुक्त नहीं हो पायी है. अब भी कुछ लोग ऐसे हैं, जो पुरानी सोच पर कायम हैं और मानते हैं कि उनकी नस्ल अन्य से श्रेष्ठ है. अमेरिका में लोकतंत्र 200 साल से ज्यादा पुराना हो गया, लेकिन वहां एक अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड को नस्लभेद का शिकार होना पड़ा और उसकी मौत हो गयी. यह मुद्दा इतना तूल पकड़ा कि केवल अमेरिका में ही नहीं, बल्कि यूरोप में भी रंगभेद के खिलाफ ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ यानी अश्वतों की जिंदगी भी अहम है जैसा आंदोलन चला. अमेरिकी शहरों और यूरोपीय देशों में हुए प्रदर्शन उस हताशा को दिखाते हैं,

जिसे अश्वेत लोग संस्थागत नस्लवाद की वजह से महसूस करते हैं. हमें इस गलतफहमी में नहीं रहना चाहिए कि यह सिर्फ अमेरिका की समस्या है. नस्लवाद दुनियाभर में है. भारत भी इस व्याधि से अछूता नहीं है. अगर आप गौर करें, तो पायेंगे कि भारत में भी इसके पर्याप्त तत्व मौजूद हैं.

भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच तीसरा टेस्ट मैच क्रिकेट वर्ल्ड कप जैसा रोमांचक हो चला था. तभी कुछ दर्शकों की हरकतों ने इस पर पानी फेर दिया. वैसे तो यह मैच ड्रॉ हो गया और दूसरी पारी में भारतीय बल्लेबाजों के बेहतर प्रदर्शन चर्चा में हैं, मगर मैच के दौरान कुछ दर्शकों ने भारतीय खिलाड़ियों पर नस्लीय टिप्पणियां कीं, जिससे मैच थोड़ी देर के लिए रोक देना पड़ा. मैच के चौथे दिन के दूसरे सत्र के दौरान भारतीय खिलाड़ी मैदान के बीच में जमा हो गये, जब स्क्वायर लेग बाउंड्री पर खड़े सिराज ने अपशब्द कहे जाने की शिकायत की. इसके बाद सुरक्षाकर्मी दर्शक दीर्घा में गये और अपशब्द कहने वाले व्यक्ति को ढूंढने लगे.

दर्शकों के एक समूह को स्टैंड से जाने को कहा गया. ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट बोर्ड ने इस घटना पर माफी मांगी और कड़ी कार्रवाई का वादा किया है. क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया का कहना है कि नस्लवादी टिप्पणी की शिकायत पर कई दर्शकों को स्टेडियम से बाहर निकाल दिया गया था. इससे एक दिन पहले भी जसप्रीत बुमराह और मोहम्मद सिराज पर नस्लीय टिप्पणी की गयी थी.

भारतीय क्रिकेट बोर्ड ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद से भी इसकी शिकायत की है. विराट कोहली ने इस घटना की निंदा करते हुए ट्वीट किया कि इस घटना पर पूरी तत्परता और गंभीरता के साथ गौर करने की जरूरत है और दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए. उन्होंने लिखा कि नस्लभेदी अपशब्द पूरी तरह अस्वीकार्य हैं. मैदान पर ऐसा होते देखना दुखद है.

सचिन तेंदुलकर ने भी निंदा की. उन्होंने ट्वीट किया कि खेल का मतलब हमें जोड़ना है, बांटना नहीं. क्रिकेट कभी भेदभाव नहीं करता. बल्ला और गेंद उन्हें पकड़ने वाले व्यक्ति की प्रतिभा को पहचानते हैं- नस्ल, रंग, धर्म या राष्ट्रीयता नहीं. जो लोग इसे नहीं समझते हैं, उनकी खेल मैदान में कोई जगह नहीं है.

वीरेंदर सहवाग ने ट्वीट किया कि यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ ऑस्ट्रेलियाई दर्शक एक अच्छी टेस्ट सीरीज को खराब कर रहे हैं. गौतम गंभीर ने कहा कि यह किसी भी खेल में स्वीकार्य नहीं हैं. इसके खिलाफ सख्त कानून बनाने की जरूरत है. वेस्टइंडीज के पूर्व तेज गेंदबाज माइकल होल्डिंग मानते हैं कि जब तक समाज नस्लवाद के खिलाफ एकजुट नहीं होगा, तब तक खेलों में इसके खिलाफ नियम घाव पर महज मलहम लगाने जैसे होंगे. खेलों में केवल कड़े नियमों से नस्लवाद को नहीं रोका जा सकता है. इसलिए इसे पूरे समाज से खत्म करने की जरूरत है.

नस्लवाद के कई आयाम हैं. सांस्कृतिक नस्लवाद की मिसाल यह है कि गोरे लोगों की मान्यताओं, मूल्यों और धारणाओं को ही जन धारणा मान लिया जाता है और अश्वेत लोगों की मान्यताओं को खारिज कर दिया जाता है. जब संस्थान इस तरह की सोच को बढ़ावा देने लगते हैं, तो नस्लवाद संस्थानिक हो जाता है. अमेरिका दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र है, लेकिन वह अब तक नस्लवाद से मुक्त नहीं हो पाया है. उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार अमेरिका में गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले लोग लगभग 4.5 करोड़ लोग हैं. इनमें 80 फीसदी अश्वेत हैं.

अमेरिका का नया प्रशासन कई मायनों में ऐतिहासिक है. 20 जनवरी को वहां जो बाइडेन राष्ट्रपति और कमला हैरिस उपराष्ट्रपति बनने जा रहे हैं. अमेरिकी इतिहास में कमला हैरिस महत्वपूर्ण हैं. इसलिए नहीं कि उनका संबंध भारत और अफ्रीका से है, बल्कि इसलिए कि अमेरिका के 200 साल से अधिक के लोकतांत्रिक इतिहास में वह पहली महिला उपराष्ट्रपति होंगी.

साथ ही इस पद तक पहुंचने वाली वह पहली दक्षिण एशियाई और अश्वेत मूल की पहली महिला होंगी. नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडन ने अमेरिकी सेना के रिटायर्ड जनरल लॉयड ऑस्टिन को देश का रक्षा मंत्री चुना है. ऑस्टिन अमेरिका के पहले अश्वेत हैं, जिन्हें रक्षा मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपी जा रही है. ऑस्टिन योग्य हैं. इराक में सैन्य कमांडर रह चुके हैं. युद्ध की चुनौतियों का प्रत्यक्ष अनुभव है. उनसे पहले वहां आज तक कोई अश्वेत रक्षा मंत्री नहीं बना है.

भारत नस्लवाद से अछूता नहीं है. कुछ अरसा पहले वेस्टइंडीज के डेरेन सैमी ने आरोप लगाया था कि इंडियन प्रीमियर लीग में सनराइजर्स हैदराबाद की तरफ से खेलते वक्त उनके लिए नस्ली टिप्पणी की गयी थी. हमारे देश में भी अफ्रीकी देशों के लोगों को उनके रंग के कारण हिकारत की नजर से देखा जाता है. जब अकारण अफ्रीकी छात्र को पीटा जाता है. यह धारणा बना दी गयी है कि कि सभी अश्वेत ड्रग्स का धंधा करते हैं.

राजधानी दिल्ली और कई अन्य शहरों में अफ्रीकी देशों के छात्र काफी बड़ी संख्या में पढ़ने आते हैं. अक्सर लोग उन्हें नस्लवादी संबोधन से पुकारते हैं और हिकारत की नजर से देखते हैं. कुछ समय पहले देश में ऐसी घटनाएं बहुत बढ़ गयीं थीं, तो अफ्रीकी देशों के राजदूतों ने मिल कर इन घटनाओं को भारत सरकार के समक्ष उठाया था. यह अजीब तथ्य है कि सरकारी स्तर पर अफ्रीकी देशों से भारत के रिश्ते घनिष्ठ हैं, पर भारतीय जनता का अश्वेत लोगों से कोई लगाव नहीं है. और तो और, अपने ही पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों को नाक-नक्शा भिन्न होने के कारण भेदभाव और अपमान का सामना करना पड़ता है.

यह विडंबना है कि जिस देश में नस्लभेद व रंगभेद के खिलाफ संघर्ष के सबसे बड़े प्रणेता महात्मा गांधी ने जन्म लिया हो, उस समाज में नस्लभेद की जड़ें बेहद गहरी हैं. दक्षिण अफ्रीका के शहर पीटरमारित्सबर्ग के रेलवे स्टेशन पर सन् 1893 में गांधी के खिलाफ नस्लभेद की घटना घटित हुई थी. उन्हें एक गोरे सह यात्री ने धक्के देकर ट्रेन से बाहर फेंक दिया था. 21वीं सदी में नस्लवादी सोच किसी भी तरह स्वीकार्य नहीं है. भारतीय समाज को भी इससे मुक्त होना होगा.

Posted By : Sameer Oraon

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