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नयी तरह से सोचने का साल

नयी तरह से सोचने का साल

आशुतोष चतुर्वेदी

प्रधान संपादक

प्रभात खबर

ashutosh.chaturvedi@prabhatkhabr.in

हरिवंश राय बच्चन की कविता है

वर्ष पुराना, ले, अब जाता,

कुछ प्रसन्न-सा, कुछ पछताता

दे जी भर आशीष, बहुत ही इससे तूने दुख पाया है

साथी, नया वर्ष आया है!

उठ इसका स्वागत करने को

स्नेह बाहुओं में भरने को

नये साल के लिए, देख, यह नयी वेदनाएं लाया है

साथी, नया वर्ष आया है!

वर्ष 2020 हम सबके लिए एक बुरे सपने की तरह रहा है. हम सब यह दुआ कर रहे हैं कि 2020 जितनी जल्दी हो सके, हमारे जीवन से चला जाए. इस वर्ष के 365 दिन कैसे बीते, इसके एक-एक दिन का हमें एहसास रहेगा. पूरी दुनिया के लिए यह साल बेहद कठिन रहा. यह हमारे जीवन में अनेक घाव छोड़ कर जा रहा है. कोरोना ने हमारे कई करीबियों को हमसे छीन लिया. हम सब लगभग पूरे साल घरों में बंद रहे.

सारी गतिविधियां, काम धंधे ठप पड़ गये. जीवन पूरी तरह से पटरी से उतर गया, लेकिन भारतीय मनीषीयों की सलाह है- बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि लेय. पिछले साल से सीख लेकर उत्साह के साथ आगे का रुख करें. जीवन की गाड़ी धीरे-धीरे पटरी पर लौटने लगी है. नये साल का आगाज नयी उम्मीदों के साथ हो रहा है. कोरोना की वैक्सीन ने नयी उम्मीद जगायी है. जिंदगी में उतार-चढ़ाव जीवन का अभिन्न अंग हैं. इनसे बचा नहीं जा सकता है. हां, पिछले साल से कुछ सबक लेना जरूरी है. यह साल इतिहास में दुनिया के लिए कठिनतम वर्ष के रूप में याद किया जायेगा.

उदारवादी अर्थव्यवस्था की सुख-सुविधाओं से हम सब आत्ममुग्ध थे कि अचानक कोरोना आ गया और इसने हमारी जिंदगी की गाड़ी को जैसे पटरी से उतार दिया है. देश में कोरोना से सवा लाख से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी हैं. संक्रमित लोगों की संख्या एक करोड़ को पार कर गयी है.

कोरोना का टीका आने वाला है, लेकिन यह हम तक कब तक पहुंचेगा, इसकी सही-सही जानकारी किसी के पास नहीं है. हां, जो चीज हमारे हाथ में हैं, लोग उनका भी पालन करते नजर नहीं आ रहे हैं. भीड़-भाड़ वाले स्थान पर मास्क बेहद जरूरी है, पर आपको बड़ी संख्या में लोग नजर आयेंगे, जो मास्क नहीं लगाये हुए होंगे. मेहरबानी करके मास्क जरूर पहनें.

यह कोरोना संक्रमण की रोकथाम का सबसे अहम अस्त्र है. इस मामले में लापरवाही न केवल आपको, बल्कि आपके परिवार और पूरे समाज को संकट में डाल सकती है. कोरोना काल में तकनीक के सहारे ही हमारी जिंदगी चली. इसने हमारी जिंदगी बदल दी है. स्वास्थ्य, शिक्षा, बैंकिग व्यवस्था हो अथवा घर-दफ्तर की जरूरतें, सबका संचालन तकनीक की मदद से हुआ. लॉकडाउन के दौर में तो इंटरनेट एक अत्यंत महत्वपूर्ण माध्यम बन कर सामने आया.

लोगों के खातों में पैसे पहुंचाने हों, प्रवासी मजदूरों की वापसी का मामला हो अथवा प्रभावित लोगों तक प्रशासनिक मदद पहुंचानी हो, सभी कुछ डिजिटल माध्यम से हुआ. टेक्नोलॉजी का हमारे जीवन में हस्तक्षेप व्यापक हो गया है. नये साल में टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल और बढ़ना है. यह जान लीजिए कि टेक्नोलॉजी दोतरफा तलवार है. एक ओर जहां यह वरदान है, तो दूसरी ओर मारक भी है. हम सब चाहते हैं कि देश में आधुनिक टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल बढ़े, लेकिन उसके साथ किस तरह तारतम्य बिठाना है, इस पर विमर्श की जरूरत है.

कोरोना ने हमारी व्यवस्था की कमजोरियों को उजागर कर दिया है. अनेक क्षेत्रों में उल्लेखनीय उपलब्धि के बावजूद हम स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में बहुत पिछड़े हैं. कोरोना ने स्पष्ट कर दिया है कि देश में स्वास्थ्य सेवाओं की हालत चिंताजनक है. देश में न तो पर्याप्त संख्या में डॉक्टर हैं, न स्वास्थ्य कर्मी. शहरी और ग्रामीण इलाकों में तो स्वास्थ्य सुविधाओं में खाई बहुत चौड़ी है. ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति तो बेहद चिंताजनक है. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के आंकड़ों के अनुसार सवा सौ करोड़ की आबादी का इलाज करने के लिए भारत में केवल 10 लाख एलोपैथिक डॉक्टर हैं.

इनमें से केवल 1.1 लाख डॉक्टर सरकारी स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करते हैं. ग्रामीण क्षेत्रों की लगभग 90 करोड़ आबादी स्वास्थ्य देखभाल के लिए सीमित डॉक्टरों पर ही निर्भर है. बजट की कमी, राज्यों के वित्तीय संकट, डॉक्टरों और उपकरणों की कमी के कारण सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरायी हुई है. यह कमी कोरोना काल के दौरान साफ उजागर हुई है.

कोरोना ने शिक्षा के चरित्र को भी बदल दिया है. मौजूदा दौर में बच्चों का पढ़ाना कोई आसान काम नहीं रहा है. कुछ समय पहले तक माना जाता था कि बच्चे, शिक्षक और अभिभावक शिक्षा की तीन महत्वपूर्ण कड़ी हैं. हमारी शिक्षा व्यवस्था इन तीनों कड़ियों को जोड़ने में ही लगी थी कि इसमें डिजिटल की एक और कड़ी जुड़ गयी है. इसमें कोई शक नहीं है कि शिक्षक शिक्षा व्यवस्था की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कड़ी है, लेकिन वर्चुअल कक्षाओं ने इंटरनेट को भी शिक्षा की एक अहम कड़ी बना दिया है. वर्चुअल क्लास रूम को लेकर खासी चर्चा हो रही है, लेकिन देश में एक बड़े तबके के पास न तो स्मार्ट फोन है, न ही कंप्यूटर और न ही इंटरनेट की सुविधा.

जाहिर है कि बच्चों को ये सुविधाएं उपलब्ध कराने का दबाव है. गरीब तबका इस मामले में पहले से ही पिछड़ा हुआ था, कोरोना ने इस खाई को और चौड़ा कर दिया है. कोरोना ने मीडिया, खासकर सोशल मीडिया के चरित्र को भी बदल दिया है. सोशल मीडिया पर कोरोना को लेकर फेक खबरों की बाढ़-सी आ गयी है. हम सबके पास सोशल मीडिया के माध्यम से रोजाना कोरोना के बारे में अनगिनत खबरें और वीडियो आते हैं. इनमें से अनेक किसी जाने-माने डॉक्टर के हवाले होते हैं.

कभी फेक न्यूज में कोरोना की दवा निकल जाने का दावा किया जाता है, तो कभी वैक्सीन के बारे में भ्रामक सूचना फैलायी जाती है. आम आदमी के लिए यह अंतर कर पाना बेहद कठिन होता है कि कौन-सी खबर सच है और कौन-सी फेक? यह बात एकदम साफ है कि सोशल मीडिया बेलगाम हो गया है, तो दूसरी ओर वह एक वैकल्पिक माध्यम के रूप में भी उभरा है. इस संकट से एक लाभ यह भी हुआ है कि अखबार खबरों के सबसे विश्वसनीय स्रोत के रूप में उभर कर सामने आये हैं.

यह तथ्य एक बार फिर स्थापित हो गया है कि अखबार खबरों को छापने के पहले तथ्यों की गहन जांच-परख करते हैं और अपनी खबरों के प्रति हमेशा जवाबदेह होते हैं. और अंत में अशोक चक्रधर कविता की कुछ पंक्तियां-

न धुन मातमी हो न कोई गमी हो

न मन में उदासी, न धन में कमी हो

न इच्छा मरे जो कि मन में रमी हो

साकार हों सब मधुर कल्पनाएं

नव वर्ष की शुभकामनाएं!

Posted By : Sameer Oraon

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