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प्रवासी नहीं, अपने हैं मजदूर

कभी सुनाकिसी नेता को दिल्ली में प्रवासी कहा गया?” मेरे मोहल्ले के रिक्शा वालेसीताराम के इस सवाल का जवाब मेरे पास नहीं था.

आलोक मेहता, वरिष्ठ पत्रकार

alokmehta7@hotmail.com

“अरे साहब, हमें दिल बहलाने के लिए कर्मवीर मत कहिए. बीस बरस से तो आप भीदिल्ली में हमें देख रहे हैं ना और हमरा एक भाई मुंबई में ऑटो भी 25 सालसे चला रहा है, हम तो अब भी प्रवासी कहला रहे हैं. आपके पड़ोसी सिंह साहब भी तो 20 साल से यहीं जमे हैं. उनको या उनके साथ वाले केवल आइएएस,आइपीएस, आइएफएस का दर्जा देकर कभी प्रवासी अधिकारी तो नहीं कहा गया.कितने मंत्री-सांसद बीसों बरस से यही घर बार जमाकर बैठे हैं. कभी सुनाकिसी नेता को दिल्ली में प्रवासी कहा गया?” मेरे मोहल्ले के रिक्शा वालेसीताराम के इस सवाल का जवाब मेरे पास नहीं था. परेशान होकर मैंने डॉक्टररघुवीर, कामिल बुल्के और अन्य शब्द शास्त्रियों के शब्दकोषों, अरविंदकुमार के हिंदी के समानांतर कोष से बचाव का तर्क खोजने की कोशिश की,लेकिन माइग्रेंट को लेकर मूल शाब्दिक अर्थ यही मिला कि तरगमन,देशांतरगामी, देशांतरी ही नहीं उपनिवेशी तक लिखा गया है.

विदेश में बसगये लोगों के लिए एक हद तक यह उपयुक्त हो सकता है. हजारों ऐसे भी हैं, जोभारतीय पासपोर्ट रखते हुए प्रवासी के बजाय भारतवासी कहलाना पसंद करतेहैं. इस दृष्टि से कोरोना संकट में अपने घर जा रहे या अब भी यहीं कामकरनेवालों को अपना कहने पर भी ध्यान दें. बाहर से आकर बसे अमेरिका मेंलाखों लोग सिर्फ अमेरिकी कहलाते हैं. एक भारत, सशक्त भारत के संकल्प केसाथ हम सब भारतीय मेहनतकश कहलाने के अधिकारी हैं. आजादी के अधिकार के साथहमारे कर्तव्य भी तो समान हैं.भावना के इस मुद्दे से आगे बढ़कर व्यावहारिक आर्थिक दशा को भी समझा जाये.मोदी सरकार ने अपने संसाधनों, खजाने आदि से सहायता, अनुदान, कर्ज आदिदेने की कोशिश की है. सरकार ने योजनाओं, कार्यक्रमों के नाम बदले हैं,लेकिन महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार योजना का नाम नहीं बदला है, आखिरगांधी और उनकी लाठी ही तो सबसे बड़ा सहारा है.

अप्रैल, 2007 में अपनीपत्रिका आउटलुक सप्ताहिक की एक रिपोर्ट का मुझे ध्यान आ गया. रिपोर्ट मेंआर्थिक विशेषज्ञों, अधिकारियों और मजदूरों से बातचीत, तथ्य लिखे गये थे.शुरुआत ही इस बात से है कि 2020 तक विकास दर बढ़ने के साथ बेरोजगारीबढ़ती जायेगी. वर्ष 2007 में मैनुफैक्चरिंग क्षेत्र में तीन प्रतिशत लोगबेरोजगार हो गये थे. टेक्नोलॉजी के साथ सर्विस सेक्टर में अवश्य नयीनौकरियां मिलीं, लेकिन बेरोजगारी बढ़ती गयी. तब दस फुट गड्ढा खोदने परग्रामीण मजदूर को 14 रुपये 50 पैसे मिल रहे थे और लगभग एक दिन में एक सौरुपये मिल जाता था. मनमोहन सरकार ने उस वर्ष के बजट में इसी ग्रामीणरोजगार योजना के लिए 11,300 करोड़ में 700 करोड़ रुपयों की बढ़ोतरी कर दीथी. असल में योजना तब तक केवल 200 जिलों तक लागू थी और नये 130 जिलेजोड़ने के लिए रकम बढ़ायी गयी थी. तब सरकार विकास की गति 27 प्रतिशत बतारही थी.

यह आकलन किया गया था कि इसी गति से विकास होते रहने पर 2020 मेंबेरोजगारी 30 प्रतिशत हो जायेगी. खासकर ग्रामीण क्षेत्रों और 18 से 30वर्ष के आयु वर्ग में बेरोजगारी का संकट होगा.बहरहाल, प्रदेशों से भी यह खबरें मिलती रहीं कि राज्य सरकारें, स्थानीयप्रशासन ग्रामीणों को केंद्र की योजना का पूरा लाभ नहीं पहुंचा रहे हैं.मजदूरी का कार्ड बनाने के लिए 25 रुपये वसूले जा रहे थे. कुछ राज्यों मेंबड़े घोटाले भी उजागर हुए. अब महामारी और लॉकडाउन के दौर में घर-गांवलौटनेवाले श्रमिक के लिए 203 रुपये की मजदूरी की घोषणा सुनकर कुछ अजीब सालगा. अपने घर खेत-खलिहान में उसे तात्कालिक राहत तो मिल जायेगी, लेकिनक्या उसे कुछ हफ्ते या कुछ महीने बाद फिर शहर लौटने, कारखाने की याद नहींआने लगेगी?दूसरी तरफ, प्रधानमंत्री मोदी द्वारा मुख्यमंत्रियों के साथ चार-चारवीडियो मीटिंग के बावजूद कई राज्यों ने बेघर और बेरोजगार श्रमिकों के लिएआवंटित बजट में से रैनबसेरों और अनाज वितरण में भी बड़ी ढिलाई दिखायी.केंद्र की नाक के नीचे दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार व महाराष्ट्र कीकांग्रेस समर्थित शिवसेना सरकार ने पर्याप्त इंतजाम नहीं किये.

उल्टेराजनीतिक बयानबाजी से गरीबों को विचलित किया. संविधान निर्माताओं ने कभीसपने में नहीं सोचा होगा कि संघीय ढांचे और प्रादेशिक स्वायत्तता का ऐसागंभीर परिणाम भी हो सकता है. जब शताब्दी के सबसे बड़े संकट में सत्ता यालोकतांत्रिक विपक्ष की सरकारें और नेता न केवल अपनी ढपली बजा रहे होंगे,बल्कि गरीबों की मदद के बजाय आपस में राजनीतिक तलवारें भांज रहे होंगे.उत्तर प्रदेश सरकार ने अर्दली भत्ते जैसे अनावश्यक कुछ भत्तों में कटौतीकर दी और वेतन, डीए, आवास भत्ते में कोई कमी नहीं की. तब भी भड़काऊनेताओं ने विद्रोह का बिगुल बजा दिया, ताकि 26 लाख कर्मचारी काम रोक दें.क्या यही त्याग समर्पण है? आंदोलन और सत्ता के लिए कुछ महीने भी इंतजारनहीं हो सकता है? पहले मांग थी ट्रेन चलाओ, बसें दो. अब रेल मंत्रालयट्रेन देने को तैयार है, तो पश्चिम बंगाल जैसे राज्य अपने लोगों के लिएट्रेन लेने को तैयार नहीं है.

जहां हजारों लोग सेवा भावना से सहायता कररहे हैं, वहां लुटेरे इस मौके पर भी गरीबों को लूट रहे हैं. उन राज्योंकी पुलिस क्यों सतर्क होकर मदद नहीं करती?कोरोना ने देश को नव निर्माण की चुनौतियां भी दी हैं. संघर्ष के बजायसमन्वय, सहयोग और साधन शक्ति से आगे जाना है. ग्रामीण क्षेत्रों औरशहरों, दोनों स्थानों पर मजदूरी समान हो, छत, न्यूनतम शिक्षा और चिकित्साकी सुविधा तो हो. जरा सोचिए विदेशों में बसे भारतवासी यदि सामान बांधकर आजायें, तो अमेरिका और ब्रिटेन जैसी महाशक्तियां बिना किसी हथियार केबर्बाद हो जायें. इसलिए भारत के किसी भी इलाके में काम करनेवाला प्रवासीनहीं है, तरक्की और संकट में साथ देनेवाला अपना भाई और परिवार है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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