आनुवंशिक रोगों की दवा बनाने की सराहनीय पहल
जिन विशेष रोगों की चर्चा हो रही है, उनमें से अधिकतर आनुवंशिक बीमारियां हैं. इन बीमारियों में जीन में गड़बड़ी से गर्भ में पल रहे बच्चे प्रभावित होते हैं. उन्हें जीवनभर दवाओं पर निर्भर रहना पड़ सकता है. ऐसे में उपचार बेहद महंगा हो जाता है.
केंद्र सरकार ने ऐसी 13 बीमारियों के लिए दवाओं को देश में ही बनाने की पहल की है, जिनसे बहुत कम लोग प्रभावित होते हैं, पर उनके उपचार पर भारी खर्च आता है. अभी तक इन रोगों के लिए दवाएं आयात की जाती हैं. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, इस तरह के रोगियों की कुल संख्या 8.4 से दस करोड़ के बीच हो सकती है. जिन विशेष रोगों की चर्चा हो रही है, उनमें से अधिकतर आनुवंशिक बीमारियां हैं. इन बीमारियों में जीन में गड़बड़ी से गर्भ में पल रहे बच्चे प्रभावित होते हैं. उन्हें जीवनभर दवाओं पर निर्भर रहना पड़ सकता है. ऐसे में उपचार बेहद महंगा हो जाता है. पहली बार हो रही इस पहल से दवाओं की कीमत में बड़ी गिरावट की उम्मीद की जा रही है.
इन रोगों के बारे में शोध और अनुसंधान करने में लंबा समय लगता है. दवा बनाने से पहले बीमारी को ठीक से समझना आवश्यक होता है. ऐसे शोधों के आधार पर जांच उपकरणों और दवाओं की खोज होती है और उनका उत्पादन किया जाता है. इस तरह के शोध मुख्य रूप से अमेरिका और यूरोप में होते हैं तथा वहीं उपकरणों और दवाओं का पेटेंट भी होता है. उपकरणों और दवाओं की कीमत तय करने के बारे में दावा किया जाता है कि अनुसंधान में लगे समय और निवेश के अनुपात में दाम निर्धारित किये जाते हैं. लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं होता. वे अपने उत्पादों की मनमानी कीमत रखते हैं. इन दवाओं के महंगे होने में वहां से लाने में होने वाले खर्च तथा वितरकों के लाभ का भी योगदान होता है.
इस मसले में मैंने पाया कि एक दवा है ‘कैनबिनिडॉल’, जो भांग से बनायी जाती है. आयुर्वेद में भांग का इस्तेमाल बहुत पहले से होता आ रहा है. हमारे देश में आयुर्वेद के नाम पर तरह-तरह के कारोबार हो रहे हैं, लेकिन गंभीर शोध और अनुसंधान का बड़ा अभाव है. इतिहास से पता चलता है कि चीन में 27 सौ ईसा पूर्व में भांग का उपयोग उपचार के लिए किया गया था. उसी से दवा निकाल कर आज उच्च दाम पर बेचा रहा है. सो सवाल उठना स्वाभाविक है कि भारत में भांग पर शोध नहीं हो सकता था. यह एक उदाहरण है. इस तरह के कई मामले हैं. दवाओं को सस्ता करने के लिए मूल रूप से पेटेंट का स्वामित्व रखने वाली कंपनी से अनुमति लेनी होगी. यह अनुमति भारत सरकार ले सकती है या दवा निर्माता कंपनी ले सकती है.
इसके एवज में मूल कंपनी को रॉयल्टी देना होगा. फिर संबंधित कच्चे माल और विशेषज्ञता जुटाने की आवश्यकता होगी. चूंकि यह पहल भारत सरकार की ओर से हो रही है, तो शुल्क और करों में छूट मिलने की संभावना है. साथ ही, दामों पर नियंत्रण भी होगा. ऐसा करने से जो खर्च अभी ढाई करोड़ रुपये का है, वह ढाई लाख रुपये आने की आशा जतायी जा रही है. ऐसा होने से रोगियों को बड़ी राहत तो मिलेगी ही, विदेश जाने वाली भारी रकम को भी बचाया जा सकेगा. सरकार ने कहा है कि अगले वर्ष अप्रैल तक अनेक दवाओं को उपलब्ध करा दिया जायेगा.
पेटेंट वाली या विदेशों में निर्मित दवाओं के बहुत महंगे होने की बात समझ आती है, पर यह भी देखना चाहिए कि जो दवाएं पेटेंट से मुक्त हो चुकी हैं, उनके लिए बीमार को अधिक दाम क्यों देना पड़ता है. ऐसी दवाओं को दो श्रेणियों में बांटा गया है- जरूरी दवाएं और गैर-जरूरी दवाएं. कोई भी शौक से दवा नहीं खाता. तो, गैर-जरूरी दवाओं की श्रेणी बनाने का कोई अर्थ नहीं है. सभी दवाएं जरूरी श्रेणी में रखी जानी चाहिए. ऐसा नहीं होना चाहिए कि कुछ दवाओं की कीमतों को नियंत्रित किया जाए और कुछ पर मनमाने ढंग से मुनाफा बनाने की छूट दी जाए. विटामिन की गोलियों या प्रोटीन पाउडर आदि को गैर-जरूरी श्रेणी में रखा जा सकता है. दवाओं के दाम तय करने का जिम्मा केंद्रीय रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय की एक संस्था का है. उसे हर तरह की दवाओं के दाम पर अंकुश लगाना चाहिए. बेसिक दवाओं का देश में बड़े पैमाने पर उपभोग होता है, पर कंपनियां अपने मन से उनके दाम रखती हैं.
सरकार ने सस्ती दवाएं उपलब्ध कराने के लिए जन औषधि केंद्र स्थापित करने की सराहनीय पहल की है. स्वास्थ्य केंद्रों में भी अधिक दवाएं मुहैया कराने की कोशिशें हो रही हैं. लेकिन उपलब्ध दवाओं की गुणवत्ता को लेकर शिकायतें आती रहती हैं. जैविक समानता जांच में अनेक दवाओं को कमतर पाया गया है. इस जांच में स्तरीय दवाओं की गुणवत्ता की तुलना में जेनेरिक दवाओं की गुणवत्ता को परखा जाता है. इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए, अन्यथा इन केंद्रों की विश्वसनीयता में कमी आयेगी. इसके अलावा, इन केंद्रों पर बहुत कम तरह की दवाएं होती हैं. ऐसे में लोगों को निजी दुकानों का रुख करना पड़ता है. नकली दवाओं की समस्या भी चिंता की बात है. जेनेरिक दवाओं की दो श्रेणी होती है- ब्रांडेड और नॉन-ब्रांडेड. ब्रांडेड दवाएं कुछ महंगी होती हैं. यदि उन्हें भी जन औषधि केंद्रों पर रखा जाए और उनके दाम भी नॉन-ब्रांडेड दवाओं के बराबर रखा जाए, तो नॉन-ब्रांडेड दवाओं की गुणवत्ता बेहतर करने का दबाव बढ़ेगा. दवा निर्माण में भारत अग्रणी देशों में है. यदि हम शोध और अनुसंधान में तीव्र प्रगति करें, कई समस्याओं का समाधान हो जायेगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)