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भारत के आंतरिक मामलों में टिप्पणी अनुचित

जब भी कोई देश हमारे बारे में अनाप-शनाप आरोप लगाये, तो जवाब में हमें भी सार्वजनिक रूप से उनके बारे में बोलना चाहिए और यह पूछना चाहिए कि इन कमियों के बारे में वे देश क्या कर रहे हैं.

By अनिल त्रिगुणायत | April 5, 2024 7:59 AM

भारत के आंतरिक मामलों में अमेरिका और जर्मनी की टिप्पणी अनावश्यक भी है और कूटनीतिक मर्यादाओं के विरुद्ध भी है. ऐसे राजनीतिक बयानों पर भारत द्वारा आपत्ति दर्ज करना स्वाभाविक है. विदेश मंत्री एस जयशंकर ने ऐसे व्यवहार पर सही ही कहा है कि यह उनकी पुरानी आदत है, जिसे वे छोड़ नहीं पा रहे हैं. अमेरिका और कुछ पश्चिमी देश ऐसी बयानबाजी पहले भी करते रहे हैं. अभी भारत में लोकसभा के चुनाव होने हैं. वैसे तो पश्चिमी देश कहते रहते हैं कि वे लोकतंत्र का समर्थन करते हैं, पर उनकी हरकतें इसके विपरीत होती हैं. चुनाव के अवसर पर ऐसी बातें करना असल में लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने की उनकी मंशा को दर्शाता है. ऐसा केवल उनकी सरकारों द्वारा ही नहीं किया जाता है. उनकी ऐसी संस्थाएं हैं, जिन्हें वे गैर-सरकारी संगठन या सिविल सोसायटी समूह की संज्ञा देते हैं, जिनका काम ही यही है कि कैसे दूसरे देशों की कमियों को खोज-खोजकर निकाला जाए. कई बार मनगढ़ंत और झूठी बातें भी कही जाती हैं. उन बातों को उनकी मीडिया द्वारा भी खूब प्रचारित और प्रसारित किया जाता है. इसके पीछे केवल यही मानसिकता काम करती है कि ऐसे पैंतरों से उन देशों पर दबाव बनाया जाए.

इन देशों के साथ भारत की मित्रता है, रणनीतिक साझेदारी है और अच्छा-खासा व्यापार होता है, पर बीच-बीच में जिस तरह के बयान आते रहते हैं, वह मित्रता का व्यवहार तो नहीं ही कहा जा सकता है. इस बात को हमें ठीक तरह से समझ लेना चाहिए. उदाहरण के लिए, अमेरिका में रह रहे आतंकी पन्नू के मामले को देखा जाए. उसको लेकर कई बातें अमेरिका की ओर से कही गयीं, पर वे इस तथ्य की अनदेखी कर देते हैं कि पन्नू एक आतंकवादी है. उन्हें यह स्पष्ट करना चाहिए कि वे आतंकवाद, अलगाववाद और कट्टरपंथ के साथ हैं या विरोध में हैं. उन देशों में मानवाधिकार के उल्लंघन के चाहे जितने मामले हों, उनके बारे में वे चर्चा नहीं करते.

आप ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल, ह्यूमन राइट्स काउंसिल आदि जैसे संगठनों की रिपोर्ट उठाकर देखें, नस्लभेद हो, रंगभेद हो, अन्य ऐसे आचरण हों, किसी भी सूची में सबसे पहले पश्चिमी देशों के ही नाम मिलेंगे, जो अपने को कथित रूप से लोकतांत्रिक कहते हैं. उनके यहां लोकतंत्र का क्या हाल है, यह सारी दुनिया जानती है. पिछले चुनाव में अमेरिका में सत्ता हस्तांतरण के समय क्या हुआ, यह सभी को पता है. हमारे देश में लगभग 97 करोड़ मतदाता हैं. चाहे विधानसभाओं के चुनाव हों या लोकसभा के, सत्ता हस्तांतरण शांतिपूर्ण ढंग से संपन्न होता है.

आज भारत तेजी से उभरता हुआ देश है. अर्थव्यवस्था उल्लेखनीय रूप से गतिशील है. देश की कमान मजबूत नेतृत्व के हाथ में है. इससे इन देशों को परेशानी हो रही है और उनमें एक प्रकार की कुंठा पैदा हो रही है. पश्चिम के देशों को अपने को विशिष्ट मानने की गोरी मानसिकता से बाहर निकलना चाहिए. उन्हें यह समझना चाहिए कि इक्कीसवीं सदी वह सदी नहीं है, जब दुनियाभर में पश्चिमी देशों ने उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद फैलाया था. कोई भी देश हर तरह से पूर्ण नहीं होता. व्यवस्था में खामियां होती हैं. यदि किसी देश को अन्य देश को लेकर सचमुच चिंता है, कोई सही वजह है, तो उसे सामने रखने की एक स्थापित प्रक्रिया है. लेकिन बेमानी आधारों पर किसी देश में कमियां निकालना और उसकी संस्थाओं को खराब दिखाना किसी भी दृष्टि से सही नहीं है. ऐसा करना आपत्तिजनक है और आतंरिक मामलों में राजनीति करने का प्रयास है. पश्चिमी देश बहुत सुनियोजित ढंग से इस टूल-किट का इस्तेमाल करते हैं.

असल में पश्चिमी देशों को भारतीय विदेश नीति की स्वायत्तता अखर रही है. उन्हें यह पसंद नहीं है कि हम उनके मना करने के बावजूद रूस या किसी अन्य देश से तेल खरीदें या व्यापार करें. उन्हें यह भी रास नहीं आता कि भारत अंतरराष्ट्रीय मसलों पर बिना लाग-लपेट के अपने विचार रखे. भारत आज ग्लोबल साउथ की आवाज बनकर उभरा है. यह आवाज असल में तो विकसित पश्चिमी देशों के ही खिलाफ है. इससे भी उन्हें असुविधा हो रही है. उनकी मानसिकता है कि भारत जैसे देशों को वे अपने प्रभाव में रखें और उनकी इच्छा से चलें. यही दबाव बनाने के लिए उन्होंने चुनाव के मौके पर टिप्पणियां की हैं. अरविंद केजरीवाल का मसला हो या कुछ और, यह भारत का आंतरिक मामला है.

यह फैसला करना हमारी अदालतों का काम है कि क्या सही है और क्या गलत. जो आचरण अमेरिका और जर्मनी ने किया है, उसे ‘ग्रेजोन वारफेयर’ कहते हैं, जिसमें मनचाहा नैरेटिव फैलाकर किसी देश के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश होती है. सरकार को मेरी सलाह है कि उन देशों के भीतर मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों तथा लोकतंत्र-विरोधी हरकतों की सूची तैयार करनी चाहिए. जब भी कोई देश हमारे बारे में अनाप-शनाप आरोप लगाये, तो जवाब में हमें भी सार्वजनिक रूप से उनके बारे में बोलना चाहिए और यह पूछना चाहिए कि इन कमियों के बारे में वे देश क्या कर रहे हैं. विदेश मंत्री जयशंकर ने कहा भी है कि अगर ऐसी हरकतें बंद नहीं हुईं, तो उन देशों को बहुत कठोर जवाब सुनने के लिए तैयार रहना चाहिए.

हमें इस संबंध में आक्रामक रवैया अपनाना चाहिए. वे देश अभी भी इस गफलत में हैं कि दुनिया उनके अनुसार चलनी चाहिए. इसीलिए वे परेशान हो रहे हैं कि कई सारे देश उन्हें छोड़कर भारत जैसे देशों के साथ क्यों खड़े हो रहे हैं. कुछ दिन पहले अमेरिकी राष्ट्रपति की ओर से पाकिस्तान को चिट्ठी भेजी गयी, जिसमें पूरा सहयोग और समर्थन का वादा किया गया है. आखिर यह सब तो भारत के हितों के खिलाफ ही किया जा रहा है. यह भी सच है कि भू-राजनीतिक परिस्थितियों के कारण पश्चिम को भारत का साथ भी चाहिए. यह उनकी मजबूरी भी है. लेकिन उन्हें यह भी देखना चाहिए कि भारत के साथ विरोधाभासी रवैया अपनाने से कुछ भी हासिल नहीं होगा. भारत को भी सोचना चाहिए कि पश्चिमी देशों से हमारी दोस्ती है या और कुछ. दोस्त की कमियां दोस्त बताता है, पर यह व्यवहार तो दोस्ताना नहीं कहा जा सकता है. कभी सरकार के स्तर पर, कभी मीडिया के सहारे, कभी संस्थाओं के जरिये, तो कभी अपनी संसदों से भारत और उसके संस्थानों पर टिप्पणी कर पश्चिमी देश दबाव बनाना चाहते हैं. ऐसे रवैये का कड़ा प्रतिकार आवश्यक है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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