प्रतिमाओं के निर्माण में हो पर्यावरण की चिंता

प्रतिमाओं का विसर्जन जल-निधियों की जगह अन्य किसी तरीके से करने, उन्हें बनाने में पर्यावरण-मित्र सामग्री का इस्तेमाल करने जैसे प्रयोग किये जा सकते हैं.

By पंकज चतुर्वेदी | September 2, 2022 8:08 AM

मौसम का बदलता मिजाज उमंगों के स्वागत की तैयारी है. सनातन मान्यताओं की तरह प्रत्येक शुभ कार्य के पहले गजानन गणपति की आराधना अनिवार्य है और इसीलिए उत्सवों का प्रारंभ गणेश चतुर्थी से होता है. कुछ साल पहले प्रधानमंत्री ने अपील की थी कि देव प्रतिमाएं प्लास्टर ऑफ पेरिस (पीओपी) से नहीं, बल्कि मिट्टी की ही बनाएं. तेलंगाना, महाराष्ट्र और राजस्थान सरकारें भी ऐसे आदेश जारी कर चुकी हैं,

लेकिन देश की राजधानी दिल्ली में ही कई जगह धड़ल्ले से पीओपी की प्रतिमाएं बिक रही हैं. ऐसा ही दृश्य हर बड़े-छोटे कस्बे में देखा जा सकता है. यह तो प्रारंभ है. इसके बाद दुर्गा पूजा, दीपावली से लेकर होली तक आने वाले कई त्योहार असल में किसी जाति-पंथ के नहीं, बल्कि भारत की समृद्ध सांस्कृतिक परंपराओं के प्रतीक हैं. विडंबना है कि कभी त्योहारों के रीति-रिवाज, खानपान समाज और प्रकृति के अनुरूप हुआ करते थे, पर आज पर्व के मायने हैं पर्यावरण, समाज और संस्कृति का क्षरण.

निर्देश, आदेश व अदालती फरमान के बावजूद गणपति पर्व का मिजाज नहीं बदल रहा है. महाराष्ट्र, गोवा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, गुजरात व मध्य प्रदेश के मालवा-निमाड़ अंचल में पारंपरिक रूप से मनाया जाने वाला गणेशोत्सव अब देश में हर गांव-कस्बे तक फैल गया है. दिल्ली में ही हजार से ज्यादा छोटी-बड़ी मूर्तियां स्थापित हो रही हैं. पारंपरिक तौर पर मूर्ति मिट्टी की बनती थी,

जिसे प्राकृतिक रंगों, कपड़ों आदि से सजाया जाता था. आज वे पीओपी से बन रही हैं, जिन्हें रासायनिक रंगों से पोता जाता है. कुछ सरकारों ने ऐसी मूर्तियों को जब्त करने की चेतावनी भी दीं, पर ऐसा हो नहीं पाया और पूरा बाजार ऐसी प्रतिमाओं से पटा हुआ है. इंदौर के पत्रकार सुबोध खंडेलवाल ने गोबर व कुछ अन्य जड़ी बूटियों को मिला कर ऐसी गणेश प्रतिमाएं बनवायीं,

जो पानी में एक घंटे में घर में ही घुल जाती हैं, लेकिन बड़े गणेश मंडलों ने ऐसे पर्यावरण-मित्र प्रयोगों को स्वीकार नहीं किया. मुंबई में भी गमले में बीज के साथ गणपति प्रतिमा के प्रयोग हुए, लेकिन लोगों को तो चटक रंगों वाली विशाल, जहरीली प्रतिमा में ही भगवान का तेज दिख रहा है.

दुर्गा पूजा भी लगभग पूरे भारत में मनायी जाने लगी है. विश्वकर्मा पूजा में भी प्रतिमाएं बनाने का रिवाज शुरू हो गया है. कहना गलत न होगा कि प्रतिमा स्थापना कई हजार करोड़ की चंदा वसूली का जरिया है. अनुमान है कि हर साल देश में इन तीन महीनों के दौरान 10 लाख से ज्यादा प्रतिमाएं बनती हैं और इनमें से 90 फीसदी पीओपी की होती हैं.

इस तरह ताल-तलैया, नदियों, समुद्र में कई सौ टन पीओपी, रासायनिक रंग, पूजा सामग्री आदि मिल जाती हैं. पीओपी ऐसा पदार्थ है, जो कभी समाप्त नहीं होता है. इससे वातावरण में प्रदूषण की मात्रा के बढ़ने की संभावना बहुत अधिक है. प्लास्टर ऑफ पेरिस कैल्शियम सल्फेट हेमी हाइड्रेट होता है, जो जिप्सम से बनता है. इन मूर्तियों के विसर्जन के बाद पानी का जैविक ऑक्सीजन तेजी से घट जाता है, जो जलीय जीवों के लिए कहर बनता है.

हर साल विसर्जन के बाद लाखों मछलियों के मरने की खबरें आती हैं. मानसून में नदियों के साथ ढेर सारी मिट्टी बह कर आती है- चिकनी मिट्टी, पीली, काली या लाल मिट्टी. परंपरा तो थी कि कुम्हार नदी तट से यह चिकनी महीन मिट्टी ले कर आता था और उससे प्रतिमा गढ़ता था.

पूजा होती थी और ‘तेरा तुझको अर्पण’ की सनातन परंपरा के अनुसार उस मिट्टी को फिर से जल में ही प्रवाहित कर दिया जाता था. जो अन्न, फल विसर्जित होता था, वह जलचरों के लिए भोजन होता था. नदी में रहने वाले मछली-कछुए आदि ही तो जल को शुद्ध रखने में भूमिका निभाते हैं. उन्हें भी प्रसाद मिलना चाहिए. लेकिन आज हम नदी में जहर बहा रहे हैं.

अब सवाल यह है- तो क्या पर्व-त्योहारों का विस्तार गलत है? क्या इन्हें मनाना बंद कर देना चाहिए? हमें प्रत्येक त्योहार की मूल आत्मा को समझना होगा. जरूरी नहीं कि बड़ी प्रतिमा से ही भगवान ज्यादा खुश होंगे. प्रतिमाओं का विसर्जन जल-निधियों की जगह अन्य किसी तरीके से करने, उन्हें बनाने में पर्यावरण-मित्र सामग्री का इस्तेमाल करने जैसे प्रयोग किये जा सकते हैं.

पूजा में प्लास्टिक का प्रयोग वर्जित करना, फूल-ज्वारे आदि को जमीन में दबा कर कंपोस्ट बनाना, चढ़ावे के फल व अन्य सामग्री को जरूरतमंदों को बांटना, मिट्टी के दीयों का प्रयोग ज्यादा करना, तेज ध्वनि बजाने से बचना जैसे साधारण प्रयोग पर्व से उत्पन्न प्रदूषण व बीमारियों पर काफी हद तक रोक लगा सकते हैं. पर्व आपसी सौहार्द बढ़ाने, स्नेह व उमंग का संचार करने के और बदलते मौसम में स्फूर्ति के संचार के वाहक होते हैं.

इन्हें अपने मूल स्वरूप में अक्षुण्ण रखने की जिम्मेदारी भी समाज की है. भारतीय पर्व असल में प्रकृति को उसकी देन के लिए धन्यवाद देने के लिए होते हैं, लेकिन बाजारवाद से वे प्रकृति-हंता बन कर उभरे हैं. प्रशासन के लिए प्रधानमंत्री की अपील काफी है कि वह बलात पीओपी प्रतिमाओं पर पाबंदी लगाये. समाज को भी गणपति या देवी प्रतिमाओं को पानी में विसर्जित करने के बजाय जमींदोज करने के विकल्प पर विचार करना चाहिए.

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