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खेतिहर मजदूरों की चिंता

काम की अवधि के अंत में मजदूरी तथा श्रम लागत को घटा कर भागिया मजदूरों के पास प्रायः कुछ भी नहीं बचता है और वे लगभग खाली हाथ घर लौटते हैं. इस तरह, ‘भागिया मजदूरी प्रथा’ का नतीजा इन आदिवासी मजदूर परिवारों की अंतहीन गरीबी और कर्जदारी के रूप में सामने आता है.

By संपादकीय | April 13, 2020 10:37 AM

डॉ तारा नायर

प्रोफेसर, गुजरात विकास अनुसंधान संस्थान

editor@thebillionpress.org

कृषि तथा अन्य खाद्य उत्पादक क्षेत्रों पर राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन का असर अब भी पूरी तरह उजागर नहीं किया जा सका है. कुछ राज्यों से ऐसी खबरें आनी शुरू हो चुकी हैं कि बागवानी की नष्ट होनेवाली फसलों के किसान उन्हें बाजार तक नहीं पहुंचा पाने की वजह से नुकसान और कर्जदारी की जोखिम का सामना कर रहे हैं. जहां तक अन्य फसलों की बात है, देश के कई इलाकों में रबी फसलों की कटाई का वक्त निकट है. कई राज्यों द्वारा कृषि और संबद्ध गतिविधियों को लॉकडाउन से मुक्त रखने समेत कुछ अन्य कदमों की घोषणाएं कर रबी कटाई की बाधा दूर करने की कोशिशें की गयी हैं.

इसमें कोई संदेह नहीं कि किसानों की तात्कालिक समस्याएं सुलझाने हेतु व्यावहारिक समाधान जरूरी हैं, पर यहां प्रश्न यह उठता है कि क्या इन कदमों के रणनीतिक लाभ उठा कर कृषि और अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर श्रम बल से संबद्ध वर्तमान संस्थागत माहौल को भी लगे हाथों रूपांतरित किया जा सकता है? मिसाल के तौर पर हम उत्तरी गुजरात में बंटाईदार मजदूरों से संबद्ध ‘भागिया मजदूरी प्रथा’ को ले सकते हैं. इसके अंतर्गत इस क्षेत्र के बड़े किसानों द्वारा राज्य के सीमा पार राजस्थान के आदिवासी मजदूरों को फसलों की बंटाईदारी आधारित एक अनौपचारिक अनुबंध के द्वारा काम पर रखा जाता है.

इस प्रणाली में अग्रिम मजदूरी देने की व्यवस्था भी अंतर्निहित है. इस अनुबंध के तहत मजदूरों को श्रम संबंधी सभी खर्चे उठाने होते हैं, जबकि मजदूरी के रूप में उन्हें फसल का पांचवां अथवा चौथा हिस्सा दिया जाता है. इस क्षेत्र की कपास जैसी ज्यादातर फसलों में सघन श्रम बल की जरूरत होती है, जिससे फसल की कुल लागत में श्रम लागत का अनुपात खासा ऊंचा (कपास के मामले में 30 प्रतिशत तक) हो जाता है. काम की अवधि के अंत में मजदूरी तथा श्रम लागत को घटा कर भागिया मजदूरों के पास प्रायः कुछ भी नहीं बचता है और वे लगभग खाली हाथ घर लौटते हैं. इस तरह, ‘भागिया मजदूरी प्रथा’ का नतीजा इन आदिवासी मजदूर परिवारों की अंतहीन गरीबी और कर्जदारी के रूप में सामने आता है.

राजस्थान के कोटडा प्रखंड के हजारों भागिया पुरुष तथा महिला मजदूरों के लिए यह लॉकडाउन सबसे बुरे वक्त में आया है, जब पूरी फसल में लगे उनके श्रम का नतीजा सीमा के उस पार कटाई के लिए तैयार है, और वे सीमा पार करने में असमर्थ बने अपने जीवन के लिए सरकारी सहायता पर निर्भर हैं. विडंबना यह है कि अभी वे अपने गांवों में भी कोई अन्य काम नहीं कर सकते. दूसरी ओर, कुछ मजदूर ऐसे भी हैं, जो इन किसानों के पास फंसे पड़े हैं, जबकि उनका परिवार अभी अपने गांव में ही है. सीमा के दोनों ओर गुजरात तथा राजस्थान में इन मजदूरों पर जारी एक अध्ययन से यह तथ्य निकल कर आया है कि विकल्प रहने पर वे इस प्रथा की बजाय दैनिक मजदूरी पर काम करना अधिक पसंद करेंगे, क्योंकि उनका मानना है कि उससे उन्हें ज्यादा नकद आय हासिल हो सकती है.

पर उसके लिए भी उन्हें जीपों से लंबी दूरी तय करनी पड़ती है, जिससे उनकी आय का अच्छा हिस्सा किराये में चला जाता है. विडंबना यह है कि ये हालात तब हैं, जब कई अध्ययनों में यह दावा किया गया है कि मजदूरों की कमी की वजह से कृषि मजदूरी में इजाफा हो गया है. अभी उनकी स्थिति जो है, वह तो है ही, सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि जब लॉकडाउन हटेगा, तब बंटाईदारी प्रथा में फंसे इन मजदूरों का क्या हश्र होगा? क्या उन्हें उनकी बकाया मजदूरी मिल सकेगी? किसानों के पास भी इन मजदूरों की मजदूरी रोकने या उसमें देर करने की दलीलें मौजूद हैं. यह कौन सुनिश्चित करेगा कि किसान उन्हें कम से कम न्यूनतम मजदूरी का भुगतान कर दें? और यदि इन सारे मामलों को लेकर उन्हें कोई शिकायत होगी, तो उसके लिए वे किसके पास जायेंगे? ‘आजीविका ब्यूरो’ तथा ‘कोटड़ा आदिवासी संस्थान’ नामक दो श्रमिक अधिकार संगठन हैं, जो इन प्रवासी मजदूरों के लिए काम करते हैं.

इन दोनों ने लगभग एक दशक पहले इस क्षेत्र में ‘भागिया मजदूरी प्रथा’ की शर्तें सुधारने की एक पहल की थी. उनकी कोशिश थी कि किसान इन मजदूरों के साथ लिखित अनुबंध करें, पारदर्शी हिसाब-किताब रखें और साथ ही फसलों में मजदूरों का हिस्सा अभी लागू व्यवस्था से बढ़ा कर एक तिहाई कर दें. उनके इन प्रयासों के बावजूद, इस पहल के केवल मिश्रित नतीजे ही निकल सके. चूंकि किसान इन बंटाईदारों को अग्रिम रकम दिया करते हैं, इसलिए मजदूरों पर उनका सामंतशाही नियंत्रण कायम रहता है. दूसरी ओर, इन मजदूरों को संगठित कर पाना मुश्किल है, क्योंकि वे एक बड़े भौगोलिक क्षेत्र में बिखरे हैं. कृषि मजदूरों की समस्याओं के संबंध में राज्य सरकारों की नीतियां भी अधिकतर उदासीन ही हैं. इन सारे हालात का परिणाम इन मजदूरों की लगातार बनी रहनेवाली घोर गरीबी के रूप में सामने आता है, जो उन्हें बंधुआ मजदूरों जैसी स्थिति का शिकार बनाये रखती है.

वर्तमान संकट इन समाधानों पर फिर से गौर करने का एक अच्छा मौका देता है. मिसाल के तौर पर राज्य सरकार किसानों और मजदूरों के बीच काम की एक औपचारिक व्यवस्था लागू करा सकती है, ताकि मजदूरों को उनके न्यायोचित हिस्से की वंचना से बचाया जा सके. किसानों को राहत के पैकेज प्रदान करते हुए राज्य को यह देखना चाहिए कि वह कृषि मजदूरों को कम से कम न्यूनतम मजदूरी की दर पर मेहनताने की उपलब्धता को नजरअंदाज नहीं करे. कृषि मजदूरों के संगठनों को कानूनी मान्यता मिलने से वे आर्थिक और सियासी रूप से भलीभांति संगठित किसानों से कुछ तो बराबरी की स्थिति में आ सकेंगे. अभी के हालात में कोटड़ा जैसे प्रखंडों में बिखरे पड़े छोटे-छोटे गांवों में भी मनरेगा का आच्छादन सुनिश्चित करना भी एक अहम कदम होगा. इससे जहां एक ओर रोजगार के अवसर पैदा होंगे, वहीं स्थानीय उत्पादक संसाधनों का विकास भी सुनिश्चित होगा. इसके अलावा, एक अन्य प्रमुख लाभ यह होगा कि इन मजदूरों और उनके परिवारों को अपने गांवों में ही कृषि कार्यों में फायदेमंद ढंग से रोजगार मिल सकेगा और वे एक हद तक प्रवास की मजबूरी से भी बच सकेंगे. दूसरी ओर, इससे किसान भी शारीरिक मजदूरी की बजाय अन्य नवाचारी उपाय अपनाने को प्रेरित होंगे.

(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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