महंगाई के मोर्चे पर चिंता
हमें मंदी और बढ़ती महंगाई की दोहरी चुनौती से निपटना है. आय का स्रोत छिनने और जीवनयापन की बढ़ती दुश्वारियों से कई लोग गरीबी और खाद्य असुरक्षा में फंस सकते हैं.
डॉ अजीत रानाडे, अर्थशास्त्री एवं सीनियर फेलो तक्षशिला इंस्टिट्यूशन
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महामारी ने इस वर्ष दुनिया को गहरी आर्थिक मंदी में धकेल दिया है. भारत भी अपवाद नहीं है. इस वित्त वर्ष में भारतीय अर्थव्यवस्था छह प्रतिशत तक सिकुड़ जायेगी. यानी, राष्ट्रीय आय बीते वर्ष की तुलना में कम रहेगी और औसतन प्रत्येक परिवार के पास खर्चने के लिए कम धन होगा. मंदी से मांग में गिरावट आयेगी और फैक्ट्रियों में सुस्ती होगी. बड़े स्तर पर उत्पादन क्षमता अप्रयुक्त होगी. यह विभिन्न क्षेत्रों में देखा जा सकता है, जिसमें प्राथमिक क्षेत्र के इस्पात व सीमेंट या द्वितीयक क्षेत्र के ऑटोमोबाइल व वाशिंग मशीन आदि शामिल होंगे. बिक्री को बढ़ाने के लिए उत्पादकों पर कीमतों में कटौती का दबाव होगा. उपभोक्ता वस्तुओं पर बड़ी रियायत पेश की जा सकती है. मांग में गिरावट से कीमतों में भी बड़ी कमी आ सकती है. इसका मतलब है कि महंगाई नीचे ही बनी रहेगी? लेकिन, ऐसा लगता नहीं है.
कुछ सामानों जैसे कार और स्कूटर या टेलीविजन और फर्नीचर पर बड़ी छूट दी जा रही है. लेकिन, कीमतों में गिरावट स्वेच्छा व्यय वाले उत्पादों पर है. छूट के बावजूद मांग में सुस्ती बरकरार है. टिकाऊ और गैर-टिकाऊ दोनों ही प्रकार के उपभोक्ता सामानों के विक्रेता दिवाली और बाद के त्योहारों पर खरीद के दौरान अच्छा व्यापार करते हैं. कुछ व्यापारी तो दशहरा से क्रिसमस के दौरान अपने सालाना लाभ का 60 से 70 प्रतिशत अर्जित कर लेते हैं. इस वर्ष यह संभावना बहुत कम है, क्योंकि लोगों ने अपने स्वेच्छा व्यय पर कटौती शुरू कर दी है.
शादियों से अर्थव्यवस्था को गति मिलती है, वह भी मंद है. यह अर्थव्यवस्था ही नहीं, बल्कि सामाजिक दूरी की अनिवार्यता की वजह से भी है. अगर छूट और कीमतों में गिरावट के आधार पर महंगाई में कमी का अनुमान लगा रहे हैं, तो आप गलत हैं. आमजन द्वारा महंगाई का अनुभव उत्पादों की खरीद के दौरान होता है. मार्च में लॉकडाउन के बाद से व्यय के तरीकों में बदलाव आया है.
वस्तु एवं सेवाओं के उपभोग के सरकारी अनुमान में हो सकता है यह पूर्ण रूप से परिलक्षित न हो. इसलिए, संभव है कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआइ) आधारित महंगाई के आधिकारिक आंकड़ों में इसे कम महत्व दिया जाये. अनुमानतः जून की आधिकारिक महंगाई छह प्रतिशत से ऊपर रही, जो भारतीय रिजर्व बैंक की तय सीमा से अधिक है. शहरी क्षेत्रों में कई खुदरा बिक्री केंद्र, विशेषकर मॉल और रेस्त्रां अब भी बंद हैं. लोगों का खरीदारी पैटर्न बदल चुका है. बाहर खाने, कपड़े खरीदने, मनोरंजन या पर्यटन के बजाय लोग घर में ही खाने की वस्तुओं को तवज्जो दे रहे हैं.
अगर खाद्य खरीद में उच्च कीमतों का सामना करना पड़ रहा है, तो कोविड से पहले की विधा से सीपीआइ की गणना में यह छिप सकता है या कम आकलित हो सकता है. हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अल्बेर्टो केवैलो ने ‘कोविड महंगाई’ दर की गणना में ट्रांजेक्शन के वास्तविक आंकड़ों का इस्तेमाल किया है. उनके शोध से स्पष्ट है कि उन्होंने जिन 16 देशों का अध्ययन किया, उसमें से 10 देशों में आधिकारिक सीपीआइ में कोविड-सीपीआइ महंगाई को कम करके आंका गया है. सीपीआइ और कोविड-सीपीआइ के बीच यह अंतराल लगातार बढ़ रहा है.
उनके आंकड़ों में भारत शामिल नहीं है. भारतीय स्टेट बैंक के शोधकर्ताओं ने प्रोफेसर केवैलो की विधा से भारत का अध्ययन किया, जिसमें वही परिणाम प्राप्त हुए. यानी सरकार द्वारा प्रकाशित आधिकारिक आंकड़ों में इसे कम करके आकलित किया गया है. एसबीआइ के अनुसार, जून की वास्तविक महंगाई सात प्रतिशत हो सकती है. अप्रैल-मई महीने के संपूर्ण लॉकडाउन के दौरान इसे दो प्रतिशत से भी अधिक नजरअंदाज किया गया.
अगर हम वास्तविक उपभोग को देखें, तो महंगाई और भी चिंताजनक है. जून में खाद्य महंगाई 7.3 प्रतिशत रही. जून में दालें 16.7 प्रतिशत, मछली व मांस 16.2 प्रतिशत और दूध की कीमतें 8.4 प्रतिशत की दर से बढ़ रही थीं. महाराष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार, दूध की मांग में कमी आयी है. राज्य में दूध उत्पादकों का कहना है कि दूध की कीमतों में 10 से 15 रुपये प्रति लीटर की गिरावट आयी है. स्वाभिमानी शेतकारी संगठन का कहना है कि रोजाना उत्पादित 1.3 करोड़ लीटर दूध में से 52 लाख लीटर की बिक्री नहीं हो पा रही है. जबकि, शहरी उपभोक्ताओं को दूध के लिए ज्यादा कीमतें देनी पड़ रही हैं. यहां तक कि सीपीआइ का राष्ट्रीय आंकड़ा दूध महंगाई को आठ प्रतिशत से अधिक दर्शा रहा है.
जून में डीजल की कीमतें बढ़ गयीं. इसका इस्तेमाल खाद्यों पदार्थों के परिवहन में किया जाता है. केंद्रीय उत्पाद शुल्क और सड़क उपकर आदि वजहों से कीमतों में 10 रुपये प्रति लीटर की बढ़ोतरी हुई. यह भी महंगाई का एक कारण बना, न केवल खाद्य उत्पादों के लिए, बल्कि सकल सीपीआइ के लिए. इस्पात कंपनियों ने लागत मूल्य बढ़ने का हवाला देते हुए कमजोर मांग के बावजूद कीमतों में बढ़ोतरी की घोषणा की. चीनी वस्तुओं पर उच्च आयात शुल्क कुल उपभोक्ता महंगाई पर असर डालेगी. अत्यधिक गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों, जैसे फंसे कर्ज की वजह से बैंक ऋणों पर ब्याज दर कम नहीं कर सकते हैं. इसलिए, कार्यशील पूंजी की लागत अधिक रहेगी. साथ ही स्वच्छता, पैकेजिंग और सुरक्षा की वजह से वस्तुओं की लागत बढ़ेगी.
अतः हमें मंदी और बढ़ती महंगाई की दोहरी चुनौती से निपटना है. आय का स्रोत छिनने और जीवनयापन की बढ़ती दुश्वारियों से कई लोग गरीबी और खाद्य असुरक्षा में फंस सकते हैं. अगर परिवार में कोविड या कोई अन्य बीमारी है, तो यह अतिरिक्त झटका होगा. पीडीएस के माध्यम से अनाज वितरण बढ़ाकर सरकार को भुखमरी से निपटने की तैयारी करनी होगी. अगर बंपर फसल के बावजूद किसानों की आय अपर्याप्त है, तो उन्हें अतिरिक्त आय मुहैया करायी जाये. निश्चित रूप से मांग व रोजगार पैदा करने और आजीविका के लिए मजबूत राजकोषीय प्रोत्साहन की आश्यकता है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)