संसद में टकराव की स्थिति से बचना चाहिए
इस बार का जनादेश यह है कि प्रधानमंत्री मोदी गठबंधन सरकार का नेतृत्व करें और मजबूत विपक्ष सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करे.
नयी लोकसभा की शुरुआत बहुत आक्रामक ढंग से हुई है. इसका मुख्य कारण यह है कि दोनों राजनीतिक गठबंधन- सत्तारूढ़ एनडीए और विपक्षी इंडिया अलायंस- अभी भी चुनावी मुद्रा में दिख रहे हैं. हमने लंबे लोकसभा चुनाव के दौरान देखा कि दोनों गठबंधनों के प्रमुख नेताओं ने व्यक्तिगत टिप्पणियां की, बयानों में तिरस्कार का भाव था और भाषा तल्ख थी. परिणाम सत्तारूढ़ गठबंधन की आशाओं के अनुरूप नहीं रहा और विपक्ष अपनी बढ़ी हुई ताकत के साथ संसद में हावी होने की कोशिश करता दिखा. आदर्श स्थिति में होना यह चाहिए था कि लोकसभा में बदले समीकरण को देखते हुए दोनों पक्ष एक संतुलित संबंध बनाने का प्रयास करते ताकि टकराव एवं तनातनी की आशंका कम हो, पर ऐसा नहीं हुआ.
राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर हुई बहस में मुख्य वक्ताओं- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी- ने एक तरह से चुनावी बातें ही कहीं और उनके भाषणों में वही तल्खी दिखी, जो चुनाव प्रचार के समय रही थी. उल्लेखनीय है कि इससे पहले की किसी लोकसभा में सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष के बीच सीटों का इतना कम फासला कभी नहीं रहा है. साथ ही, इतना कम परस्पर विश्वास और सम्मान का भाव भी पहले कभी नहीं देखा गया. साल 1989 में वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने थे और राजीव गांधी विपक्ष के नेता थे. सिंह कांग्रेस छोड़कर आये थे और उन्होंने राजीव गांधी पर गंभीर आरोप लगाये थे. इसके बावजूद दोनों में कटुता नहीं थी और उनका संवाद भी होता था.
नयी लोकसभा के प्रारंभिक सत्र में यह स्पष्ट दिखा कि प्रतिपक्ष के नेता के रूप में राहुल गांधी को भाजपा नजरअंदाज करने की कोशिश कर रही है. प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के अन्य वरिष्ठ नेता अपने को एनडीए गठबंधन के रूप में पेश करते हैं और अपनी संख्या 293 बताते हैं, पर जब विपक्ष की बात आती है, तो वे कांग्रेस के 99 सीटों का ही उल्लेख करते हैं. कुछ निर्दलीय सांसदों के साथ आ जाने से यह संख्या वैसे सौ के ऊपर जा चुकी है. इसी तरह विपक्ष भी भाजपा की संख्या को इंगित करता है, न कि एनडीए गठबंधन के सीटों की. सरकार यह भी अनदेखा करने की कोशिश में है कि विपक्ष अधिक संख्या के साथ लोकसभा पहुंचा है.
दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों के व्यवहार के बारे में कई विश्लेषकों ने कहा है कि उनका झुकाव सत्ता पक्ष की ओर है. इससे दोनों पक्षों के बीच कटुता में वृद्धि ही होगी. राजनीतिक पत्रकार के रूप में मैंने अपने करियर में पहले कभी ऐसा नहीं देखा कि प्रतिपक्ष के नेता की बातों से विचलित होकर किसी प्रधानमंत्री ने दो बार खड़े होकर आपत्ति जतायी हो. राहुल गांधी के भाषण के दौरान अनेक वरिष्ठ मंत्रियों ने भी ऐसा किया. गृह मंत्री अमित शाह ने तो अध्यक्ष से संरक्षण तक मांगा.
ये बातें दर्शाती हैं कि सत्ता पक्ष में विपक्ष के नेता के प्रति समुचित सम्मान का भाव नहीं है. इसी तरह, नेता प्रतिपक्ष ने भी जिस प्रकार से प्रधानमंत्री और अन्य नेताओं को अपने भाषण में निशाना बनाया, उसे भी सराहा नहीं जा सकता है. इस बार का जनादेश यह है कि प्रधानमंत्री मोदी गठबंधन सरकार का नेतृत्व करें और मजबूत विपक्ष सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करे. पर शुरुआती दिनों में जो तनाव और टकराव दिखा है, उससे यह आशंका पैदा होना स्वाभाविक है कि क्या यह लोकसभा, और राज्यसभा भी, शांतिपूर्ण ढंग से चल सकेगी. राज्यसभा में प्रधानमंत्री के भाषण के समय समूचा विपक्ष सदन से बाहर चला गया.
यह बहस अपनी जगह है कि उसे ऐसा करना चाहिए था या नहीं, पर इस आधार पर विपक्ष पर आक्रामक होना सही नहीं है. उल्लेखनीय है कि यूपीए-2 की सरकार के समय संसद का 60 प्रतिशत समय हंगामे की भेंट चढ़ गया था. तब लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज थीं और राज्यसभा में यह भूमिका अरुण जेटली निभा रहे थे. उस समय दोनों नेताओं ने तर्क दिया था कि अपनी मांगों को लेकर सदन की कार्यवाही में बाधा डालना विपक्ष का लोकतांत्रिक अधिकार है. इसे भाजपा को नहीं भूलना चाहिए. जिन राज्यों में भाजपा विपक्ष में है, वह भी बहिष्कार करती है. पर इसका यह मतलब नहीं है कि विपक्ष को बहिष्कार या हंगामे को अपना प्रमुख राजनीतिक हथियार बना लेना चाहिए.
संसद और देश के लिए यही उचित होगा कि दोनों पक्ष टकराव का रवैया छोड़कर मिल-जुलकर काम करें, जिसके लिए जनता ने उन्हें निर्वाचित किया है. इस संबंध में सत्ता पक्ष और विपक्ष के नेताओं को सकारात्मक भूमिका निभाने की आवश्यकता है. संसद ठीक से चले, इसका उत्तरदायित्व लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति का भी है. आम तौर पर सदन की कार्यवाही से किसी सदस्य के भाषण का वह हिस्सा या कुछ ऐसे शब्द हटाये जाते हैं, जो संसदीय मर्यादा के अनुकूल नहीं होते है. राजनीतिक बातों को नहीं हटाया जाना चाहिए. इससे बाद में इतिहासकारों और शोधार्थियों को परेशानी का सामना करना पड़ सकता है. पीठासीन अधिकारियों के ऐसा करने से भी दोनों खेमों के बीच तनाव बढ़ेगा. उन्हें अपने आचरण से ऐसा संदेश नहीं देना चाहिए कि वे सत्तारूढ़ खेमे के दबाव में हैं और विपक्ष को उनका संरक्षण नहीं मिल रहा है. नेताओं को भी यह ध्यान रखना चाहिए कि आवेश में या लापरवाही से वे ऐसी बातें न करें, जिससे माहौल बेमतलब खराब हो.
यदि संसद में टकराव की स्थिति जारी रही, जिसकी आशंका बहुत अधिक है, तो अहम मुद्दों पर ठीक से चर्चा संभव नहीं हो सकेगी. इससे किसी को भी फायदा नहीं होगा. भाजपा को जो चुनावी नुकसान हुआ है, उसे उसकी भरपाई करने का प्रयास करना चाहिए. राहुल गांधी या विपक्ष के अन्य नेताओं को घेरते रहने से अच्छा संदेश नहीं जायेगा. विपक्ष को जिस उम्मीद से लोगों ने अधिक सीटें दी हैं, उसके प्रति कांग्रेस और इंडिया अलायंस को गंभीर रहना होगा. सरकार से निरर्थक तनातनी उसके हित में नहीं होगी. विपक्षी नेताओं और सदस्यों पर भी लोगों की उतनी ही नजर होगी, जितनी सत्ता पक्ष पर. संसद में विपक्ष के पास अच्छे और अनुभवी नेता हैं. एनडीए गठबंधन एक दशक से सत्ता में है, उसके यहां भी समर्थ नेताओं की बड़ी संख्या है. इसका फायदा दोनों समूहों को उठाना चाहिए. विपक्ष शैडो कैबिनेट बनाकर एक स्वस्थ परंपरा की शुरुआत कर सकता है. इससे सरकार के कामकाज की ठोस समीक्षा और आलोचना हो सकेगी. सरकार भी अपने स्तर पर विपक्ष को साथ लेने की भरसक कोशिश करे.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)