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विचारधारा से दूर कांग्रेस

विडंबना ही है कि कांग्रेस को ऊपर के नेताओं ने हथिया लिया, जबकि भाजपा ने नेताओं को नीचे से तैयार किया. इस प्रक्रिया में भाजपा ने विशाल पार्टी ढांचा खड़ा कर लिया.

By शैबाल गुप्ता | June 26, 2020 3:11 AM

शैबाल गुप्ता, सदस्य सचिव, एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट (आद्री), पटना

shaibalgupta@yahoo.co.uk

मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के सत्ता संभालने के बाद राजनीतिक नाटक अब टिकाऊ ढंग से शुरू हो गया है. सिंधिया शिविर के दो विधायकों को मंत्रिमंडल में लिया गया है और खुद ज्योतिरादित्य सिंधिया भी राज्यसभा सदस्य बन गये हैं. सिंधिया ने कांग्रेस पार्टी ही नहीं छोड़ी, वह राज्य में कांग्रेस सरकार को अस्थिर करने में भी सक्रिय थे. बुद्धिजीवियों और आम कांग्रेसियों में उन्हें लेकर काफी अधिक आशाएं थीं. उन्हें वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भारत को अग्रणी राष्ट्र बनाने की दिशा में ले जानेवाले सक्षम राजनेताओं का प्रतिनिधि माना जाता है.

उनका खानदान और शैक्षिक अवदान, दोनों ही स्पृहणीय रहे हैं. यहां तक कि राहुल गांधी भी कॉलेज के दिनों में सिंधिया के साथ अपने संबंध पर गर्व करते थे. लेकिन, आधुनिक और सुसंस्कृत नेता के सारे गुणों के बाद भी उनकी शिष्टता और ‘विचारधारात्मक निर्मिति’ की व्याख्या करना मुश्किल होगा. गांधी, नेहरू, मौलाना आजाद और अन्य द्वारा स्थापित सैद्धांतिक नींव पर आधारित मूल कांग्रेस अब इतिहास की बात है.

अभी तो, इसे किसी विचारधारात्मक आडंबर से रहित ‘हकदारी’ आधारित पार्टी ही कहा जा सकता है. लेकिन लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर पार्टी अभी भी उच्च नैतिक आधार से बंधी है. ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए भाजपा में शामिल होना राजनीतिक रूप से सुरक्षित ठिकाना पाने का काम था, जहां उन्हें आडंबर के तौर पर भी विचारधारात्मक झुकाव दिखाने की चिंता नहीं करनी है.

एक लिहाज से राहुल गांधी और सिंधिया, दोनों का बोध-जगत संभवतः एक जैसा है. राहुल गांधी पंडित नेहरू के प्रपौत्र हैं, तो सिंधिया राजमाता विजया राजे सिंधिया के पौत्र हैं. दोनों की जड़ें विपरीत राजनीतिक धरातल में हैं, लेकिन राजनीतिक और कार्यक्रम संबंधी मुद्दों पर वे एक जगह आ गये थे. राहुल गांधी ने नेहरूवादी दृष्टि पहले ही छोड़ दी थी, वहीं सिंधिया ने अंततः अपना संबंध अपनी पारिवारिक जमीन से बना लिया.

ज्योतिरादित्य के पिता माधवराव सिंधिया को अर्जुन सिंह की मदद से संजय गांधी कांग्रेस पार्टी में लाये थे. संजय गांधी खुद ही विचारधारा-विहीन राजनीति के प्रतीक थे. पीएन हक्सर, पीएन धर जैसे वामोन्मुखी नीति-निर्माताओं के हाशिये पर चले जाने के बाद इस जगह को माधवराव सिंधिया जैसे विचारधारा-विहीन लोगों ने भरा, जिनका लोकसभा में प्रथम प्रवेश जनसंघ के उम्मीदवार के बतौर हुआ था.

राजीव गांधी, सोनिया गांधी या राहुल गांधी की नजदीकी मंडली में माधवराव सिंधिया जैसे लोगों का प्रमुख स्थान था. इसमें विचारधारा-प्रेरित राजनेताओं की कोई भूमिका नहीं थी. इसके विपरीत, नेहरू के पास ऐसे सहयोगियों की विशेष मंडली थी, जो तकनीकी-प्रबंधकीय रुझान वाले न होकर विचारधारा से प्रेरित थे. उन लोगों ने उत्पादन संबंधों में और उसके बाद उत्पादक शक्तियों में ऊपर से बुनियादी परिवर्तन की हिमायत की थी.

उन्होंने तत्कालीन योजना आयोग को बल देने के लिए पीसी महालनोबिस को और आण्विक ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए होमी भाभा को लाया था. उन्होंने सैंकड़ों राज्य-प्रायोजित संस्थानों की स्थापना की थी. इसके विपरीत, संजय गांधी की एक विचारधारात्मक विरासत राजकीय संस्थानों के विशाल ढांचों को भंग करना थी. ऐसा उत्साहपूर्वक किया गया- आरंभ में वीपी सिंह और राजीव गांधी द्वारा और बाद में नरसिंह राव, मनमोहन सिंह द्वारा. इस विखंडन रणनीति में दो प्रमुख ‘प्यादे’ सीनियर और जूनियर सिंधिया थे.

आज के मध्य प्रदेश का हिस्सा बने पूर्ववर्ती केंद्रीय प्रांत की रियासतों और बेरार स्टेट ने हमेशा ही जनता को मोहित किया है. पूर्वी भारत के ‘स्थायी बंदोबस्ती वाले’ राज्यों के विपरीत, जहां जमींदारों के रिकॉर्ड बहुत खराब थे, इन रियासतों का प्रशासनिक प्रदर्शन बेहतर था. स्वातंत्र्योत्तर अवधि में उन लोगों ने चुनावी लाभांश प्राप्त किये. यहां तक कि नेहरू भी इस पर मोहित थे. हिंदू महासभा को रोकने के लिए उन्होंने पार्टी का टिकट देकर विजया राजे सिंधिया को आगे बढ़ाने का प्रयास किया था. वह कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गयी थीं, लेकिन बाद में वह जनसंघ की संस्थापक बनीं. इस प्रक्रिया में कांग्रेस के अंदर मौजूद ‘दक्षिणपंथ’ नेहरू के जीवनकाल में भी मजबूत हुआ था.

स्वातंत्र्योत्तर भारत में रियासतों के शासक औपचारिक सत्ता संरचना के जरिये अपना वर्चस्व जारी रखना चाहते थे. उनके पास धन या लोकप्रिय आधार की कमी नहीं थी. कांग्रेस पार्टी ने उन्हें सत्ता संरचना में समाहित कर लिया. इस प्रक्रिया में रियासतों और कॉरपोरेट घरानों द्वारा प्रायोजित पहली प्रामाणिक दक्षिणपंथी पार्टी- स्वतंत्र पार्टी दरकिनार कर दी गयी.

कांग्रेस पार्टी के सामाजिक और चुनावी आधार का विस्तार स्वतंत्र पार्टी से बचे लोगों के जरिये हुआ. लेकिन यह मौत को गले लगाना था, क्योंकि इससे कांग्रेस के अंदर वाम-उदारवादी लोगों के प्रभाव पर ग्रहण लगना तय था. फलतः, चुनावी मोर्चे पर कांग्रेस का फैलाव और विचारधारा के क्षेत्र में सिकुड़ाव हुआ. उस समय यह गलत विश्वास कायम था कि विचारधारा की अनुपस्थिति की जगह तकनीकी-प्रबंधकीय, हकदारी आधारित रणनीति ले लेगी.

इस रणनीति को स्मार्ट, अंग्रेजी-भाषी, विचारधारा-विहीन प्रबंधकों द्वारा कार्यरूप दिया जा सकेगा. सीनियर और जूनियर, दोनों सिंधिया इस खांचे में फिट बैठते थे. कांग्रेस पार्टी के सत्ता से बाहर होने पर वे विचारधारात्मक गर्भावधि तक इंतजार नहीं कर सके. विडंबना ही है कि कांग्रेस को ऊपर के नेताओं ने हथिया लिया, जबकि भाजपा ने नेताओं को नीचे से तैयार किया. इस प्रक्रिया में भाजपा ने अपना विशाल पार्टी ढांचा खड़ा कर लिया. दूसरी ओर, मुख्यमंत्री के लिए भी कांग्रेस पार्टी ने संजय गांधी के दायें हाथ रहे कमलनाथ को चुना.

इस पृष्ठभूमि में ज्योतिरादित्य सिंधिया का पार्टी से निकलना कांग्रेस के लिए बेहतर निजात ही नहीं है, पार्टी में नयापन लाने के लिए नया अवसर भी है. लेकिन इसके लिए कांग्रेस को अपने सामाजिक आधार का विस्तार करना होगा और कैडर निर्माण शुरू करना होगा. जरूरत पड़ने पर उसे ‘सकारात्मक भेदभाव’ आधारित क्षेत्रीय दलों के साथ भी संबंध बनाना होगा और सुशासन का कुछ रिकॉर्ड भी बनाना होगा. दूसरे शब्दों में, कांग्रेस पार्टी का नया चोला धारण करना अब एक संभावना है, लेकिन तभी जब भारतीय राजनीति में विचारधारा को पुनर्स्थापित किया जाए. (ये लेखक के निजी विचार हैं)

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