कांग्रेस की गाड़ी फिर रिवर्स गियर में, पढ़ें राशिद किदवई का खास लेख

Congress : जम्मू-कश्मीर में भी कमोबेश यही स्थिति है, जहां राज्य की सत्ता में होने के बावजूद उमर अब्दुल्ला की सरकार में कांग्रेस की कोई खास पूछ-परख नहीं है. यह बात कांग्रेस के लिए परेशानी का सबब होनी चाहिए, क्योंकि भविष्य में अगर इंडिया गठबंधन बना भी रहता है तब भी इसमें कांग्रेस की अहमियत कम हो जाएगी.

By राशिद किदवई | November 26, 2024 7:16 AM
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Congress : विगत जून को 18वीं लोकसभा के चुनाव नतीजों के बाद भाजपा 240 सीटें जीतकर भी हार का एहसास कर रही थी, तो कांग्रेस 99 सीटें जीतकर भी विजय का एहसास कर रही थी. यह लाजिमी भी था. कुछ माह पहले तक अजेय नजर आने वाली भाजपा के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को जादुई अंक छूने से पहले ही रोक दिया गया था. वर्ष 2014 के बाद से यह पहला मौका था, जब राहुल गांधी अपने माथे पर से ‘विफलता’ के ठप्पे को हटा पाने में काफी हद तक कामयाब रहे थे. उन्होंने वायनाड और रायबरेली से न केवल बड़े अंतर से अपनी लोकसभा सीटें जीतीं, बल्कि पार्टी के वोटों की हिस्सेदारी को भी 19 फीसदी से बढ़ाकर 22 फीसदी करने में वह सफल रहे थे. विपक्षी दलों में कांग्रेस का परचम अचानक से बुलंद नजर आने लगा था.

कांग्रेस की प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगा

लेकिन पिछले छह महीनों में ही कांग्रेस की गाड़ी फिर से रिवर्स गियर में आ गयी लगती है. हरियाणा में प्रबल सत्ता-विरोधी लहर के बावजूद वहां कांग्रेस सत्ता में नहीं आ सकी, तो अब महाराष्ट्र में सबसे बदतर हार ने कांग्रेस को फिर वहीं पहुंचा दिया है, जहां वह 2019 में खड़ी थी. झारखंड में इंडिया गठबंधन की सत्ता में वापसी के बावजूद हेमंत सोरेन ने जिस तरह से उप-मुख्यमंत्री का पद कांग्रेस को देने से इनकार कर दिया है, उससे पार्टी की प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगा है.

जम्मू-कश्मीर में भी कमोबेश यही स्थिति है, जहां राज्य की सत्ता में होने के बावजूद उमर अब्दुल्ला की सरकार में कांग्रेस की कोई खास पूछ-परख नहीं है. यह बात कांग्रेस के लिए परेशानी का सबब होनी चाहिए, क्योंकि भविष्य में अगर इंडिया गठबंधन बना भी रहता है तब भी इसमें कांग्रेस की अहमियत कम हो जाएगी. एक ‘बड़े भाई’ वाला उसका जो दर्जा अब तक था, उससे वह वंचित हो सकती है. अगर इंडिया गठबंधन को आगे बढ़ना है, तो कांगेस को अब बाकी दलों के साथ समान हैसियत के साथ रहना होगा. वैसे भी इंडिया गठबंधन से ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल पहले ही अलग हो चुके हैं. कांग्रेस के प्रति उद्धव ठाकरे और शरद पवार जैसों की सहानुभूति भी अब शायद कम हो सकती है और वे भी अपनी-अपनी राह पर निकल सकते हैं.

कांग्रेस के लिए मुश्किल हुआ 2029 तक का सफर


ऐसे में कांग्रेस के लिए अब से लेकर 2029 तक का रास्ता काफी मुश्किलात भरा नजर आ रहा है. अगला विधानसभा चुनाव दिल्ली का है, वहां मुख्य मुकाबला भाजपा और आम आदमी पार्टी के बीच ही है. इस बात की बहुत कम उम्मीद है कि कांग्रेस वहां भाजपा या आम आदमी पार्टी के गढ़ों में कोई कमाल दिखा सके. इसके बाद का पड़ाव बिहार है, जहां अक्तूबर-नवंबर, 2025 में विधानसभा चुनाव होंगे. लेकिन पिछली बार जिस तरह के अनुभव राजद को हुए, उससे भी सियासत के लिए इस बेहद महत्वपूर्ण राज्य में कांग्रेस को कोई अहमियत मिलेगी, इसकी संभावना नहीं है. अभी तो यही लगता है कि उसे लगातार अपमान के घूंट पीकर ही राजनीति करनी होगी.

राहुल गांधी ने महाराष्ट्र के नतीजों को अप्रत्याशित बताते हुए इनकी विस्तार से समीक्षा करने की बात कही है. लेकिन इस पार्टी के साथ कड़वी हकीकत यह रही है कि इसमें जवाबदेही और पारदर्शिता हमेशा हाशिये पर रही है. नवंबर-दिसंबर 2023 में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों में हार के कारणों की जांच के लिए गठित कमेटियों ने अब तक अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं की है. इसी तरह मई, 2022 में आयोजित उदयपुर चिंतन शिविर के निष्कर्ष अब तक जयराम रमेश के लैपटॉप में ही बंद पड़े हैं. उन्हें कांग्रेस कार्यसमिति में चर्चा तक के लिए नहीं लाया गया है.

गांधी परिवार हमेशा कठघरे में रहा

कांग्रेस के साथ दिक्कत यह भी है कि जयराम रमेश, केसी वेणुगोपाल, रणदीप सिंह सुरजेवाला और सुनील कोंगुलू जैसे ‘जड़विहीन’ नेताओं का संगठन पर इतना तगड़ा प्रभाव है कि तमाम पराजयों के लिए तीनों गांधी (सोनिया, राहुल, प्रियंका) और मल्लिकार्जुन खरगे का नेतृत्व ही कठघरे में नजर आ रहा है. प्रियंका गांधी वाड्रा अब सांसद जरूर बन गयी हैं, लेकिन पार्टी में सुधार और एआइसीसी सचिवालय में पुनर्गठन की संभावना कम ही नजर आती है. इस पूरे घटनाक्रम का एक पहलू और है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए.

राजनीति में साजिशें प्राचीन काल से ही इसका अभिन्न अंग रही हैं. लेकिन इसे प्रभावी ढंग से क्रियान्वित करने के लिए एक विशेष प्रकार की योग्यता की दरकार होती है. जैसे कांग्रेस के हर काबिल नेता को महाराष्ट्र के लिए एआइसीसी पर्यवेक्षक के रूप में नियुक्त करवाना और फिर उन पर ‘असफलता’ का ठप्पा लगवा देना. लेकिन ऐसा केवल वही लोग सोच सकते हैं, जो न केवल साजिशों में पारंगत रहे हों, बल्कि इसे सफलतापूर्वक अंजाम देकर बच निकलने का हुनर भी रखते हों. महाराष्ट्र चुनाव में विफलता की कहानी इस बात को बयान करती है कि आखिर कांग्रेस अपने आप को पुनर्जीवित क्यों नहीं कर पा रही. इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि पार्टी के भीतर का ही एक गुट राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे को सफल होते देखना नहीं चाहता. यह बात भले ही अविश्वसनीय लगे, लेकिन इसे पूरी तरह खारिज भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं है.
( ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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