कांग्रेस को जमीन से जुड़ना होगा
काडर और भरोसेमंद नेताओं पर भरोसा करने की बजाय गांधी परिवार सभी पार्टियों के सर्वेक्षक रहे भ्रमणकारी प्रशांत किशोर के पीछे पड़ा हुआ है.
असुरक्षा के इस युग में झूठे मसीहा आशा के ठेकेदार होते जा रहे हैं. छद्म देवदूत उन नेताओं को प्रभावित करने में जुटे हैं, जो स्वयं में भरोसा खो चुके हैं. ऐसे लोगों का तरीका तकनीकी साजो-सामान से लैस हाई-टेक छवि पर टिका होता है. गांधी परिवार के नेतृत्व वाली कांग्रेस फिर से खड़ा होने के लिए बैसाखी खोज रही है. लगातार हारों, घटती लोकप्रियता और असंगति से ग्रस्त यह पार्टी बाहर अपने उद्धारक तलाश रही है.
अपने काडर और भरोसेमंद नेताओं पर भरोसा करने की बजाय गांधी परिवार सभी पार्टियों के सर्वेक्षक रहे भ्रमणकारी प्रशांत किशोर के पीछे पड़ा हुआ है, जिनकी महत्वाकांक्षा ने करोड़ों रुपये का चुनावी प्रबंधन कारोबार खड़ा कर दिया है. पिछले सप्ताह गांधी परिवार ने प्रशांत किशोर को वरिष्ठ नेताओं के समक्ष उत्साही सुपरमैन की तरह प्रस्तुत किया.
किशोर ने विस्तार से नयी कांग्रेस और उसके भविष्य के लिए अपने विचार रखे और छह घंटों से भी अधिक समय तक वरिष्ठ नेताओं को उन्हें सुनना पड़ा. ऐसे लोगों की स्तुति करनी चाहिए, जो भारी खर्च कर अपने काडर की जगह लैपटॉप व स्मार्टफोन लिए लोगों को लाते हैं. प्रशांत किशोर चतुर कॉपीराइटरों और ग्राफिक डिजाइनरों का उपयोग करते हैं, जो आकर्षक स्लाइड और नारों से श्रोताओं को मोहित करते हैं. इससे वे उस्ताद रणनीतिकार प्रतीत होने लगते हैं.
किशोर को नरेंद्र मोदी ने तब किनारे कर दिया था, जब उन्होंने दावा किया कि उनकी कंपनी की वजह से मोदी देश के सबसे लोकप्रिय नेता बने. उन्होंने चालाकी से मीडिया का इस्तेमाल कर यह संदेश प्रसारित कराया कि मोदी ने उनकी रणनीति के कारण पहले बिहार जीता और फिर देश, लेकिन सच यह है कि 2014 के बाद की प्रधानमंत्री की सफलताओं में किशोर का कोई योगदान नहीं है, जिन्हें एक संसाधन के रूप में उपयोग कर मोदी ने चलता कर दिया था.
उसके बाद किशोर ने चुनावी प्रबंधन की अपनी विशेषज्ञता को विभिन्न क्षेत्रीय दलों को बेचा. सोनिया गांधी, प्रियंका गांधी और राहुल गांधी में मोदी जैसी राजनीतिक समझ नहीं है. तीनों गांधी यह आराम से भूल गये कि 2017 के उत्तर प्रदेश चुनाव में राहुल को आगे कर पाने में प्रशांत किशोर बुरी तरह असफल रहे थे. किशोर एक अनुभवी विक्रेता हैं. वे सुभीते से निशाना बदल लेते हैं.
खबरों के अनुसार, उन्होंने किसी भी तरह कांग्रेस में आने का दृढ़ निश्चय कर लिया है. जिस व्यक्ति ने गांधी मुक्त मोर्चा बनाने की कोशिश की थी, उसने गांधी परिवार का फिर भरोसा जीत लिया. पिछले साल वे किसी गैर गांधी को पार्टी प्रमुख बनाना चाहते थे. कांग्रेसी सूत्रों के अनुसार, किशोर ने अपनी पहली स्लाइड में ही प्रियंका गांधी को नया अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव रखा. उनकी दूसरी सलाह थी कि राहुल गांधी को मोदी के विकल्प के रूप में आगे बढ़ाया जाए. कई नेता किशोर की परिकल्पना से परेशान हुए और एक ने तो उनके पूर्वानुमान को चुनौती भी दे दी.
ममता बनर्जी, एमके स्टालिन, केसीआर और चंद्रबाबू नायडू के साथ गठबंधन पर प्रशांत किशोर का जोर साफ तौर पर उनके अपने आर्थिक हितों को साधने के लिए है. केसीआर ने आगामी विधानसभा चुनाव पर किशोर की राय मांगी है. तेलंगाना कांग्रेस का कहना है कि इसके लिए किशोर से मोटी रकम का वादा किया गया है. इस राज्य में कांग्रेस में क्षमता बची हुई है तथा वह राज्य में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है.
एक समय बाद वह क्षेत्रीय पार्टी को पछाड़ सकती है. बिहार और झारखंड में कांग्रेस के अकेले लड़ने का किशोर का प्रस्ताव लालू यादव और कांग्रेस में फूट डालने की कोशिश हो सकती है. राजद प्रमुख बीते दो दशकों से गांधी परिवार के मजबूत समर्थक हैं. प्रशांत किशोर सचमुच अनूठे हैं. वे विभिन्न तरीकों का इस्तेमाल करते हैं और कई पार्टियों से जुड़े रहते हैं. वाणिज्य उनका एकमात्र लक्ष्य होता है, पर उन्हें यह निराशाजनक अहसास भी हुआ कि वे केवल अपनी नजर में विशालकाय हैं, लेकिन पार्टियों के लिए वे एक अपवित्र होलोग्राम हैं.
नेताओं ने उन्हें उनकी कल्पना से कहीं अधिक धनी बना दिया, लेकिन उन्हें राजनीतिक पहचान नहीं दी. उन्हें जाननेवाले बताते हैं कि करोड़ों कमाने के बाद किशोर एक राष्ट्रीय भूमिका की तलाश में हैं, पर यह देख हमेशा अचरज होता है कि कैसे अनुभवी नेता प्रशांत किशोर की भ्रामक चमक में फंस जाते हैं. उन्होंने शायद ही किसी हारते हुए को विजेता बनाया है.
वे यह कहानी फैलाते हैं कि वे नहीं होते, तो मोदी, ममता, अमरिंदर, स्टालिन, नीतीश, जगन और शिव सेना हार जाते. दस साल की इनकम्बेंसी और भ्रष्टाचार के बाद अकालियों को हारना ही था. तब कांग्रेस ही विकल्प थी. किशोर के धूम से प्रभावित अमरिंदर ने खूब पैसा देकर उनकी सेवाएं लीं. अमरिंदर के नेतृत्व में कांग्रेस जीती, पर उसका श्रेय प्रशांत किशोर ले गये.
फिर किशोर केजरीवाल से जुड़े, जो पंजाब में बहुत आगे थे, पर किशोर को उत्तर प्रदेश में शर्मनाक हार देखनी पड़ी. बिहार में नीतीश कुमार, राजद और कांग्रेस के महागठबंधन की जीत का भी श्रेय किशोर ने लिया. वे जदयू में बतौर उपाध्यक्ष शामिल भी हुए, पर हावी होने और घमंड के कारण उन्हें निकाल दिया गया, पर अन्य राज्यों में उन्हें जगहें मिलीं, जहां उन पार्टियों की जीत तय थी.
उन्हें तृणमूल कांग्रेस की आंतरिक राजनीति में दखल न देने की चेतावनी मिली थी. बंगाल चुनाव के बाद एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि अब वे यह सब छोड़ देना चाहते हैं, क्योंकि वे असफल नेता हैं और वे कुछ और करना चाहते हैं, जैसे असम में चाय का बागान लगाना.
प्रशांत किशोर स्वयं को न केवल कांग्रेस के उद्धारक के रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं, बल्कि राष्ट्रीय भूमिका भी हासिल करना चाहते हैं. किशोर के साथ गांधी परिवार का जुड़ाव इंदिरा गांधी के बाद के कांग्रेस के स्वरूप का हिस्सा लगता है.
राजीव गांधी ने पार्टी को आधुनिक बनाने के लिए सैम पित्रोदा, अरुण सिंह, अरुण नेहरू जैसे टेक्नोक्रेट को चुना, तो सोनिया गांधी ने इसकी चमक बढ़ाने के लिए जयराम रमेश और नंदन निलेकणी जैसे आईआईटी से पढ़े लोगों का साथ लिया, लेकिन कांग्रेस ने जनाधार खो दिया. कंप्यूटर प्रेजेंटेशन और भ्रमणकारियों के जरिये उसका उद्धार नहीं हो सकता है. कांग्रेस को जीत के लिए जमीनी स्तर पर काम करने की जरूरत है. प्रशांत किशोर जैसे लोग उसका भला नहीं कर सकते.