पंकज चौरसिया
शोधार्थी
जामिया मिलिया इस्लामिया
कर्नाटक विधानसभा चुनाव के परिणाम से कांग्रेस और विपक्षी पार्टियों की एकता को बल मिला है. राज्य में कांग्रेस की यह सबसे बड़ी जीत कही जा सकती है क्योंकि उसे 1989 के बाद से सबसे अधिक 42.9 प्रतिशत वोट मिला है, वहीं भाजपा ने 36 प्रतिशत वोट ही प्राप्त किया है. कांग्रेस की तरफ से सामाजिक न्याय के मुद्दों को प्रमुखता से उठाने से जनता ने उसे शानदार बहुमत देकर भाजपा को एक सबक देने की कोशिश की है.
कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सामाजिक न्याय की बैटिंग करके कांग्रेस के पुराने चरित्र को बदलने का प्रयास किया है. ऐसा नहीं है कि ऐसा इस चुनाव से शुरू किया गया है, बल्कि इसकी नींव रायपुर में कांग्रेस के 85वें अधिवेशन में अनुसूचित जाति, आदिवासी, अल्पसंख्यकों और पिछड़ों के लिए कांग्रेस प्रतिनिधियों और सभी पदों पर 50 फीसदी आरक्षण की घोषणा के रूप में पड़ी थी.
इस मुद्दे को तब और बल मिला, जब ‘मोदी सरनेम’ वाले बयान पर राहुल गांधी को सूरत की अदालत ने अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का अपमान करने का दोषी ठहराते हुए दो साल की सजा सुनायी, जिससे उनकी लोकसभा सदस्यता रद्द हो गयी. भाजपा ने राहुल गांधी पर ओबीसी के अपमान को लेकर हमले किये और इसी हमले को कांग्रेस ने कर्नाटक में सियासी हथियार बनाया.
राहुल गांधी ने अपनी चुनावी सभाओं में जातिगत जनगणना की मांग कर ‘जितनी आबादी, उतना हक’ की वकालत कर इस नारे को असमानता से जोड़ने का सफल प्रयास किया. ठीक ऐसा ही नारा समाजवादी नेता डॉ राममनोहर लोहिया देते थे- ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ यानी राजनीति में हिस्सेदारी हो या संसाधनों पर अधिकार, पिछड़े वर्ग की हिस्सेदारी 60 फीसदी होनी चाहिए. बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम का नारा था- ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी.’
सामाजिक न्याय और समता के सवाल एक बार पुन: राष्ट्रीय राजनीति के विमर्श बदल रहे हैं. सामाजिक न्याय और जातिगत जनगणना के मुद्दे पर नीतीश कुमार देश के सबसे बड़े नेता के रूप में उभरे हैं. बिहार में हो रहे जातिगत सर्वेक्षण को पटना उच्च न्यायालय ने रोक दिया है, लेकिन जातिगत जनगणना के मुद्दे ने संपूर्ण विपक्ष को एक मंच पर लाने का काम अवश्य किया है.
वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव को सामाजिक न्याय के मुद्दे पर लड़ने की जमीन भी कर्नाटक चुनाव ने तैयार कर दी है. इन मुद्दों के सूत्रधार नीतीश कुमार हैं. विभिन्न राज्यों के लगभग एक दर्जन से अधिक क्षेत्रीय पार्टियां जातिगत जनगणना कराने की मांग लंबे समय से कर रही हैं. इनमें डीएमके, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जेडीयू आदि प्रमुख हैं.
देश में 1931 से अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों की जाति की गणना होती आ रही है, इसलिए शेष जातियों की गणना भी बहुत जरूरी है. यदि कोई जाति सामाजिक संरचना में वंचना का शिकार है, तो उसे मुख्यधारा में लाने के लिए अतिरिक्त अवसर मुहैया कराया जाना चाहिए.
ओबीसी वर्ग में कई जातियों को लंबे समय से सामाजिक अन्याय का शिकार होना पड़ा है. कुछ जातियां सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक रूप से इतनी कमजोर हैं कि उनकी स्थिति दलित जातियों से भी अधिक खराब है. अत्यंत पिछड़ी जातियों के संदर्भ में मंडल आयोग के एकमात्र दलित सदस्य एलआर नाइक के असहमति नोट को पुनः देखने की जरूरत है, जिसमें उन्होंने ओबीसी आरक्षण को दो बराबर प्रमुख भागों में बांटने का सुझाव दिया था.
उनका मानना था कि ओबीसी के अंदर एक खेतिहर वर्ग है और दूसरा वर्ग उन जातियों का है, जो कारीगरी, शिल्पकारी, बागवानी कर जीवनयापन करती हैं. ये जातियां अधिकांशतः भूमिहीन हैं और नब्बे के दशक में वैश्वीकरण के बाद इनकी स्थिति और बदतर होती गयी क्योंकि बाजार और तकनीक ने इनकी रोजी-रोटी की संभावनाओं को लगभग शून्य कर दिया.
यही कारण है कि अब तक 10 राज्यों ने ओबीसी आरक्षण को दो या दो से अधिक भागों में बांटने की जरूरत समझी. इससे उन राज्यों में अति पिछड़ी जातियों की राजनीतिक एवं शैक्षणिक स्थिति में सकारात्मक बदलाव देखने को मिला है. इनमें प्रमुख रूप से तमिलनाडु और बिहार हैं. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कर्पूरी मॉडल को लागू कर अति पिछड़ी जातियों को एक नयी राजनीतिक दिशा प्रदान की है.
भाजपा के लगातार चुनाव जीतने का प्रमुख कारण अति पिछड़ी जातियां हैं. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अवश्य कर्नाटक में ओबीसी के हित में होने वाली नीतियों की पहचान कर ली और सामाजिक न्याय के मुद्दों को उछाल कर तमाम क्षेत्रीय दलों को लोकसभा चुनाव एक साथ लड़ने का आत्मविश्वास पैदा कर दिया है,
लेकिन कांग्रेस अभी भी इन अति पिछड़ी जातियों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व के सवाल से अनभिज्ञ नजर आ रही है. क्षेत्रीय दलों और कांग्रेस को अति पिछड़ी जातियों के समावेशी प्रतिनिधित्व के सवालों पर सोचने की जरूरत है तथा कांग्रेस को बड़ा दिल दिखाते हुए क्षेत्रीय पार्टियों को उचित स्थान देने की जरूरत है ताकि भाजपा को 2024 के लोकसभा चुनाव में हराया जा सके.
(ये लेखकद्वय के निजी विचार हैं.)