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कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की विफलता

यह कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की बहुत बड़ी विफलता है. अगर देखा जाये तो आज कांग्रेस के पास शीर्ष नेतृत्व ही नहीं है. जब सचिन सोनिया और राहुल से मिलने दिल्ली आये, तो उन्हें उनसे मिलना चाहिए था.

By नीरजा चौधरी | July 16, 2020 4:05 AM
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नीरजा चौधरी, राजनीतिक विश्लेषक

delhi@prabhatkhabar.in

राजस्थान में जो कुछ भी हुआ है, वह होना ही था. सचिन पायलट को उपमुख्यमंत्री बनाये जाने के बाद से ही खटपट शुरू हो गयी थी. वर्ष 2018 में चुनाव जीतने के बाद से ही सचिन को लग रहा था कि अशोक गहलोत उन्हें हाशिए पर डाल रहे हैं. उन्होंने तो यह भी कहा कि उनके अपने चुनाव क्षेत्र में अधिकारी उनकी बात नहीं सुनते. एक तरह से सचिन के लिए असहनीय स्थिति बन गयी थी. उन्हें जब एसओजी का नोटिस मिला, तो उनके सब्र का पैमाना छलक गया. वे बौखला गये, क्योंकि नोटिस में राजद्रोह और षडयंत्र का आरोप है. ऐसे में सचिन की तरफ से प्रतिक्रिया तो होनी ही थी. वे शीर्ष नेतृत्व से मिलने दिल्ली आये, लेकिन न ही सोनिया गांधी उनसे मिलीं, न राहुल गांधी ही मिले.

यहां यह प्रश्न स्वाभाविक है कि क्या गहलोत चाह रहे थे कि कोई ऐसी प्रक्रिया शुरू हो, जिसमें सचिन बाहर चले जायें. वस्तुतः गहलोत के लिए सचिन एक कांटे की तरह थे. बात छोटी हो या बड़ी सचिन की सलाह मानी ही नहीं जाती थी. राज्यसभा की उम्मीदवारी के लिए सचिन ने जिसका नाम सुझाया था, उसे तवज्जो नहीं दी गयी.वर्ष 2014 में राहुल गांधी ने सचिन को राजस्थान भेजते हुए कहा था कि अगर वे कांग्रेस को वापस सत्ता में ले आते हैं, तो उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जायेगा. सचिन ने काफी मेहनत की और पार्टी को खड़ा किया था. लेकिन, टिकट बंटवारे में गहलोत की चली.

उनके ज्यादा लोग जीतकर विधानसभा पहुंचे. उनका पलड़ा भारी था और शीर्ष नेतृत्व ने गहलोत की बात मानी. राहुल गांधी ने सचिन से जो वादा किया था, उससे वे पीछे हट गये. राहुल और सोनिया गांधी ने तय किया कि गहलोत को मुख्यमंत्री और सचिन को उपमुख्यमंत्री बनाया जाये. नौजवान तबका सचिन को मुख्यमंत्री के तौर पर देखना चाहता था. खींचतान से बचने के लिए राज्य में सत्ता साझेदारी का फॉर्मूला बना. लेकिन, संभव हुआ ही नहीं. गहलोत धीरे-धीरे सचिन को काटते चले गये. उनकी बातें नहीं सुनी जा रही थीं.

पार्टी में इस तरह की जो खींचतान है, वह कांग्रेस के नौजवान तबके के सामने आ रही है. उन्हें पार्टी का कोई भविष्य दिखायी नहीं दे रहा है. नेतृत्व कुछ कर नहीं पा रहा है. एक वर्ष से पार्टी का कोई अध्यक्ष नहीं हैं. सोनिया गांधी कार्यकारी अध्यक्ष हैं और वे बीमार चल रही हैं. पार्टी में निर्णय कोई और ले रहा है. राहुल गांधी कभी निर्णय लेते हैं, कभी नहीं. जो नौजवान पीढ़ी है, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा है कि पार्टी में क्या हो रहा है. पार्टी बिल्कुल भी संभल नहीं पा रही है.

मध्य प्रदेश हाथ से निकल चुका है. जहां-जहां नौजवान तबका है, जिसकी 20-30 वर्ष की राजनीति बची है, उन्हें अपने भविष्य की चिंता सता रही है. कहीं न कहीं कांग्रेस से जुड़े लोग घुटन महसूस कर रहे हैं. मौका मिलते ही निकल रहे हैं, जैसे सिंधिया ने किया. हालांकि, यह अभी पता नहीं चला पा रहा है कि सचिन की योजना क्या है. सचिन और गहलोत के बीच जो भी मनमुटाव था, शीर्ष नेतृत्व को उसे दूर करना चाहिए था. यहां तक नौबत नहीं आनी चाहिए थी.

गहलोत और सचिन दोनों क्षमतावान हैं. गहलोत काफी अनुभवी हैं, ठहराव वाले हैं, अपने प्रदेश को पहचानते हैं. सचिन में भी बहुत काबिलियत है, मेहनती हैं और आगे की सोचते हैं. सचिन प्रदेश में बदलाव लाना चाहते हैं. पार्टी को दोनों में से एक को दिल्ली लाना चाहिए था. दोनों को ही पार्टी की जरूरत है. कांग्रेस के लिए यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक और राज्य उसके हाथ से जा रहा है. गहलोत के विश्वास मत जीत जाने के बाद भी उनकी सरकार अस्थिर ही रहेगी. उसे पांच साल चलाना अब मुश्किल होगा.

यहां यह भी प्रश्न है कि क्या सचिन भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाना चाहेंगे. क्या वे ऐसा कर पायेंगे या राज्य में राष्ट्रपति शासन लगेगा? अगर ऐसा होता है, तो एक और राज्य कांग्रेस के हाथ से चला जायेगा. यह किस तरह की राजनीति हुई. आप तो अपने परिवार को ही नहीं संभाल पाये. यह कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की बहुत बड़ी विफलता है. अगर देखा जाये तो आज कांग्रेस के पास शीर्ष नेतृत्व ही नहीं है.

जब सचिन सोनिया और राहुल से मिलने दिल्ली आये, तो उन्हें उनसे मिलना चाहिए था. उनकी समस्याएं सुलझानी चाहिए थी. समस्याएं सुलझ जातीं, तो यह सब होता ही नहीं. यह तो दुनिया को पता है कि मध्य प्रदेश के बाद राजस्थान कांग्रेस के हाथ से जा सकता है. जब अंदरखाने महीनों से खींचतान चल रही है, तनाव बना हुआ है, ऐसे में तो सतर्क रहने की जरूरत थी.

यह जो कहा जा रहा है कि भाजपा की वजह से यह सब हुआ है, तो इस बार भाजपा ने पहल नहीं की है, वह प्रतीक्षा करो और देखो की नीति पर चल रही है. भाजपा अब दखलअंदाजी करेगी, वह और लोगों को तोड़ेगी. यह कहना अभी मुश्किल है कि वर्तमान घटनाक्रम से सचिन को फायदा होगा. यह उनके अगले कदम और उस पर उन्हें कैसी प्रतिक्रिया मिलती है, इस बात पर निर्भर करता है. हो सकता है कि वे सिंधिया की तरह भाजपा से हाथ मिला लें. तो क्या भाजपा उनको राज्यसभा में लायेगी, दिल्ली में लायेगी. क्या भाजपा ऐसा करना चाहेगी?

राजस्थान में भाजपा सचिन को मुख्यमंत्री तो नहीं बनायेगी क्योंकि वहां वसुंधरा राजे समेत कई दिग्गज बैठे हैं. तो भाजपा के लिए ऐसा करना मुश्किल होगा. यदि सचिन अपनी पार्टी बनाते हैं तो भाजपा की मदद लेनी होगी. छोटी पार्टी को अगर बड़ी पार्टी समर्थन देकर मुख्यमंत्री बनाती है तो ऐसी सरकार बहुत अस्थिर होती है. दूसरी बात, भाजपा उनकी पार्टी को मुख्यमंत्री पद क्यों देगी. तीसरा, सचिन अपनी नयी पार्टी बनाकर देश में भ्रमण करें और राजनीति में जो कांग्रेस का स्थान है, उसे भरने की कोशिश करें. क्योंकि वहां नेतृत्व का खालीपन है. हालांकि, सचिन के लिए यह एक बहुत लंबी लड़ाई होगी.

(बातचीत पर आधारित)

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