कुछ लोग हार से तबाह हो जाते हैं और कुछ जीत कर ओछे हो जाते हैं. महानता उसमें होती है, जो हार व जीत को समान भाव से लेता है. प्रतिष्ठित अमेरिकी लेखक जॉन स्टीनबेक ने कल्पना भी नहीं की होगी कि भारत के हालिया लोकसभा चुनाव के नतीजे के विश्लेषण के बारे में उनकी टिप्पणी इतनी सटीक साबित होगी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेकर इतिहास रच दिया है. इससे पहले ऐसा केवल जवाहरलाल नेहरू ही कर सके थे. यह रिकॉर्ड बनाने वाले वे पहले गैर-कांग्रेसी नेता हैं. वे अटल बिहारी वाजपेयी के बाद प्रधानमंत्री बनने वाले दूसरे संघ प्रचारक भी हैं. फिर भी नेहरू और मोदी में गणित का अंतर है. नेहरू ने 1952, 1957 और 1962 के चुनाव लगभग दो-तिहाई बहुमत से जीता था, पर भाजपा तीसरी बार अपने दम पर बहुमत नहीं पा सकी और सरकार बनाने के लिए सहयोगियों का साथ लेना पड़ा है. इस जनादेश ने एक पार्टी के बहुमत की सरकार की अवधारणा पर गहरी चोट की है. भारत एक दशक बाद गठबंधन के युग में लौट आया है, जिसकी शुरुआत 1989 में राजीव गांधी की हार के साथ हुई थी.
भाजपा ने 2014 में 282 और 2019 में 303 सीटें जीती थीं. इस बार भाजपा लगभग 430 सीटों पर लड़ी थी, पर उसे 240 सीटें ही मिल सकीं. उसने 63 सीटें खो दी, जिनमें अधिकांश उसके पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के खाते में गयीं. इस बार यह मोदी 3.0 नहीं, बल्कि एनडीए 3.0, जिसका नेतृत्व मोदी कर रहे हैं. इसके पहले दो संस्करणों के नेता वाजपेयी थे. फिर भी भाजपा को हाल के वर्षों में किसी भी सत्ताधारी दल से अधिक सीटें मिली हैं. वर्ष 1984 में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 404 सीटें जीती थी, पर पांच साल बाद वह 197 पर ही जीत सकी. साल 2009 में कांग्रेस को 206 सीटें मिली थीं. बहरहाल, प्रधानमंत्री और भाजपा के लिए इस चुनाव ने अनेक प्रश्न खड़े किये हैं और भविष्य में शासन के मॉडल के बारे में निर्देश भी दिया है. पार्टी को अभी यह स्वीकार करना है कि 370 सीटें भाजपा और 400 एनडीए के लिए जीतने का अवास्तविक लक्ष्य नहीं मिल सका है. पार्टी समर्थक उत्तर प्रदेश, राजस्थान और पश्चिम बंगाल जैसे महत्वपूर्ण राज्यों में हार के लिए प्रधानमंत्री के अत्यधिक प्रचार को जिम्मेदार मान रहे हैं. दक्षिण में भी कुछ अधिक हासिल नहीं हुआ क्योंकि आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में सीटों की बढ़त पर कर्नाटक के नुकसान का पानी फिर गया.
मोदी अभी भी सबसे ताकतवर नेता हैं. उनकी अजेयता को झटका लगा है, लेकिन अभी भी उच्चतम नेता की उपाधि उन्हीं के पास है. उनकी दीर्घकालिक सफलता और तीसरा कार्यकाल पूरा कर इतिहास बनाने के लिए यह देश टकराव नहीं, बल्कि सर्वसम्मति की नयी राजनीति की ओर देख रहा है. केवल यही उपलब्धि उनकी महानता सुनिश्चित कर देगी.
दो माह के चुनाव अभियान में प्रधानमंत्री ने 200 से अधिक सभाएं कीं और लगभग 80 इंटरव्यू दिये. लेकिन इन आयोजित कार्यक्रमों से संविधान पर खतरा एवं बढ़ती बेरोजगारी के विपक्ष के नैरेटिव को बेअसर नहीं किया जा सका. साथ ही, निचले स्तर पर चुनाव प्रबंधन के लिए बाहरी एजेंसियों पर अत्यधिक निर्भरता से भ्रम पैदा हुआ. भाजपा के वरिष्ठ नेताओं और कार्यकर्ताओं की बहुत कम सक्रियता से भी वोट घटे. लालकृष्ण आडवाणी ने 2004 में हार के तुरंत बाद कहा था कि भाजपा अपने मुख्य जनाधार की अनदेखी करने के कारण हारी है. आर्थिक नीतियों की कमी भी भाजपा की हार के लिए कुछ जिम्मेदार है. बीते एक दशक में भाजपा सरकार अपनी व्यवसाय समर्थक विचारधारा के बारे में गर्व से बोलती रही है. मोदी ने भारत को दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने का वादा किया है. यह जनादेश अच्छी राजनीति और न्यायपूर्ण आर्थिक व्यवस्था देने के लिए है. जनता को बाजार मॉडल पर बहुत अधिक जोर रास नहीं आया. ऐसा न के बराबर होता है कि शासन के प्रमुख और वरिष्ठ मंत्री लोगों को नतीजों की घोषणा से पहले शेयर बाजार में पैसा लगाने के लिए कहें. देश के समूचे स्वास्थ्य को कृत्रिम रूप से बढ़ायी गयी बाजार पूंजी के साथ जोड़ना नीतियों के लिए समर्थन मांगने का एक भ्रामक नैरेटिव है. अधिक से अधिक इससे बड़े कारोबारियों को ही फायदा हो सकता है, इससे लोगों को कुछ हासिल नहीं होता.
नेताओं को भविष्य की तैयारी करते समय अतीत से सीखना चाहिए. अगर बाजार के सम्मोहन से राजनीतिक लाभ होता, तो नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह को करारी हार नहीं देखनी पड़ती. अल्पमत की पहली सरकार बनाने वाले राव ने बड़े आर्थिक सुधार लागू किये. उनके पांच साल के कार्यकाल में शेयर सूचकांक 180 प्रतिशत से अधिक बढ़ा था. पर 1996 में राव हार गये क्योंकि लोगों को लगा कि कांग्रेस धनिकों की पक्षधर है. मनमोहन सरकार के दौर (2004-2014) में सेंसेक्स 400 प्रतिशत बढ़ा था, पर कांग्रेस लोकसभा में मुख्य विपक्षी दल भी नहीं बन सकी. स्पष्ट है कि ट्रिकल डाउन (ऊपर से नीचे की ओर) का पश्चिमी पूंजीवादी सिद्धांत भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में कारगर नहीं है, जहां 80 करोड़ से अधिक लोग सरकार की मुफ्त योजनाओं पर निर्भर हैं. मोदी के आर्थिक मॉडल में नायडू-नीतीश के सामाजिक समता के मॉडल को भी शामिल करना होगा. अच्छी अर्थनीति आवश्यक रूप से बेहतर राजनीति नहीं होती. विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ने या खरबपतियों की संख्या में वृद्धि होने से सरकार को मजबूती, भरोसा और स्वीकार्यता हासिल नहीं होती. किसी गठबंधन सरकार की सफलता मुख्य रूप से इस पर निर्भर करती है कि गणित की नयी वास्तविकताओं को प्रधानमंत्री किस तरह निभाते हैं.
बीते 22 वर्षों में मोदी एक ऐसे प्रशासनिक मॉडल के रूप में स्थापित हुए हैं, जिसमें वे अकेले निर्णायक भूमिका निभाते हैं. वे राय मांगते हैं, पर वे सामूहिक उत्तरदायित्व की अवधारणा के अनुरूप नहीं चल पाते. इससे शीघ्र निर्णय लेने और उन्हें लागू करने में मदद मिली है. वे नारे गढ़ने में भी माहिर हैं. स्वच्छ भारत से लेकर डिजिटल इंडिया तक, अपनी गारंटियों से उन्होंने देश को सम्मोहित किया है. अब तक वे ऐसे मंत्रिमंडल का नेतृत्व कर रहे थे, जिसमें वे असमान लोगों में प्रथम थे. लेकिन अब नयी संख्या और गणित से नीति-निर्धारण निर्देशित होगा. मोदी अभी भी सबसे ताकतवर नेता हैं. उनकी अजेयता को झटका लगा है, लेकिन अभी भी उच्चतम नेता की उपाधि उन्हीं के पास है. देश टकराव नहीं, बल्कि सर्वसम्मति की नयी राजनीति की ओर देख रहा है. केवल यही उपलब्धि उनकी महानता सुनिश्चित कर देगी. नयी सरकार को संख्या के बजाय नेकी, खरबपतियों से हाथ मिलाने के बजाय आम जन के स्पर्श तथा निर्देश के बजाय प्रतिनिधित्व की राह पर चलने की आवश्यकता है. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)