नयी सरकार में निरंतरता को प्रमुखता
पिछले कुछ हफ्तों में मोदी सरकार के क्रियाकलापों को देखकर लगता है कि निरंतरता बदलाव पर हावी हो गयी है. मंत्रिपरिषद का रंग जरूर बदला है,
बीते लोकसभा चुनाव में मतदाताओं ने निरंतरता के लिए जनादेश दिया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीसरी बार सरकार का गठन किया. इस परिणाम में थोड़ा बदलाव कर गठबंधन सरकार के लिए जनादेश था. पिछले कुछ हफ्तों में मोदी सरकार के क्रियाकलापों को देखकर लगता है कि निरंतरता बदलाव पर हावी हो गयी है. मंत्रिपरिषद का रंग जरूर बदला है, तौर-तरीकों, संविधान, भारत की रणनीतिक, आर्थिक एवं कूटनीतिक राह में कोई खास अंतर नहीं आया है. भले ही कांग्रेस की राजनीति तीन बार परास्त हुई हो, पर उसके आर्थिक और कूटनीतिक तौर-तरीकों को नयी सरकार में भी गौरवपूर्ण जगह मिली है. नेहरूवादी व्यवस्था से संबंधित अर्थशास्त्रियों को इस सरकार में पहले की अपेक्षा अधिक महत्व दिया गया है.
मसलन, कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री ने नीति आयोग का पुनर्गठन किया, जिसमें सभी पांच पूर्णकालिक सदस्यों- उपाध्यक्ष सुमन बेरी, विजय कुमार सारस्वत, अरविंद विरमानी, रमेश चंद और डॉ वीके पॉल- को फिर से शामिल किया गया है. भाजपा नेताओं के लिए 75 साल की आयु सीमा है, पर यह नियम नीति आयोग में लागू नहीं होता. उपाध्यक्ष का दर्जा कैबिनेट मंत्री के बराबर होता है और शेष सदस्य राज्य मंत्री स्तर के होते हैं. गठबंधन की मजबूरी के कारण कुछ नये कैबिनेट मंत्रियों को सदस्य और आमंत्रित सदस्य बनाया गया है, पर मुख्य टीम पुरानी ही है. बेरी, विरमानी और सारस्वत की उम्र 75 साल से अधिक है. रमेश चंद और पॉल के अलावा बाकी यूपीए सरकार से भी संबद्ध थे तथा सीधे या परोक्ष रूप से आंतरिक संगठनों और रक्षा प्रतिष्ठान से जुड़े थे.
विश्व बैंक से अपना करियर शुरू करने वाले बेरी कांग्रेस व्यवस्था द्वारा बनाये गये अभिजन बहुराष्ट्रीय मेरिटोक्रेसी तंत्र के खांचे में पूरी तरह सही बैठते हैं. वे रिजर्व बैंक के सलाहकार तथा पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य रह चुके हैं. वे ऊर्जा कंपनी शेल से संबद्ध थे तथा ब्रसेल्स स्थित संस्था ब्रुएगल के फेलो रहे हैं, जिससे कई बड़ी तकनीकी कंपनियां जुड़ी हुई हैं. विरमानी, जिनकी विचारधारा भी उनका अपना करियर है, भी कांग्रेस सरकारों के साथ काम कर चुके हैं तथा उनका जुड़ाव अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से भी रहा है. यूपीए शासन में वे एक बार मुख्य आर्थिक सलाहकार भी रहे थे. प्रमुख वैज्ञानिक माने जाने वाले सारस्वत भी यूपीए सरकार में सचिव थे तथा रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन से संबद्ध थे.
वे तब विवादों से घिरे रहते थे और एक बार सरकार ने उनकी वित्तीय शक्तियों को सीमित भी कर दिया था. फिर भी मनमोहन सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से नवाजा था. मनमोहन सिंह के निजी सचिव के रूप में काम कर चुके बीवीआर सुब्रमण्यम को आयोग का सीइओ बनाये रखा गया है. साल 2014 में भाजपा सरकार के आने के बाद उन्हें नीति आयोग का सदस्य बना दिया गया था. डॉ पॉल और चंद का भाग्य यूपीए के दौर में ऐसा नहीं था. लगभग 70 वर्ष के हो चुके डॉ पॉल एम्स में लगभग एक दशक तक शिशु रोग विभाग के प्रमुख रहे, पर उन्हें निदेशक नहीं बनाया गया. भाजपा सरकार के आने के बाद उन्हें अगस्त 2017 में नीति आयोग का सदस्य बनाया गया. कृषि अर्थशास्त्री चंद आयोग के सबसे कम आयु के सदस्य हैं.
नीति आयोग की प्रशासकीय परिषद के सदस्य के रूप में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू बेहद अहम साबित होंगे. बीते एक दशक में परिषद की एक दर्जन से भी कम बैठकें हुई हैं. मोदी की तरह नायडू भी विचारवान व्यक्ति हैं और विशेषज्ञों के सहयोग से वे विकास का वैकल्पिक मॉडल पेश कर सकते हैं, जिससे अधिक निजी क्षेत्र के सहयोग से राज्यों में वास्तविक विकास तेज होगा. वे अधिकारियों और विदेशों में प्रशिक्षित पेशेवरों को नैरेटिव नहीं गढ़ने देंगे. तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी अपनी बैठक के लिए तैयार हैं. दो अन्य मुख्यमंत्रियों के साथ वे मौजूदा नीतियों में अहम बदलाव के लिए दबाव डालेंगे. नीति आयोग के अलावा मोदी ने अपने कार्यालय और कूटनीतिक पदों पर भी निरंतरता जारी रखने का फैसला किया है.
उनके प्रधान सचिव पीके मिश्र और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अपने पदों पर बने रहेंगे. दोनों 75 साल से अधिक के हैं और अपने पदों पर एक दशक से अधिक समय तक बने रहने का रिकॉर्ड बना चुके हैं. ये दोनों मोदी की नीतियों को लागू करने में शानदार ढंग से प्रभावी साबित हुए हैं. पहले विभिन्न पदों पर रहते हुए हुए दोनों वरिष्ठों ने नयी-नयी रणनीतियों के इस्तेमाल के साथ बहुत अच्छे प्रशासनिक कौशल का प्रदर्शन किया था. दोनों को कैबिनेट मंत्री के समकक्ष दर्जा मिला हुआ है. संवेदनशील मंत्रालयों, जैसे- वित्त, गृह, रक्षा, विदेश और इंफ्रास्ट्रक्चर आदि, को आवंटित करते समय भी प्रधानमंत्री ने निरंतरता को तरजीह दी है.
इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए मोदी ने सेवानिवृत्त हो रहे विदेश सचिव विनय क्वात्रा को अमेरिका में भारत का राजदूत नियुक्त किया है. पहली बार ऐसा हो रहा है, जब पूर्व विदेश सचिव रहे जयशंकर विदेश मंत्रालय को छह वर्षों से संभाल रहे हैं. वे चीन और अमेरिका दोनों जगह राजदूत भी रह चुके हैं. पहले अनुभवी और वरिष्ठ नेताओं को विदेश मंत्री बनाया जाता था तथा ब्रिटेन या अमेरिका जैसे देशों में कूटनीतिक जिम्मेदारी सौंपी जाती थी. बीते दो दशकों में इस परिपाटी में बदलाव आया और प्रधानमंत्रियों ने अहम देशों में विदेश सेवा के अधिकारियों को दूत के रूप में नियुक्त करना शुरू किया. क्वात्रा विदेश सेवा के 10वें अधिकारी हैं, जिन्हें एक के बाद एक राजदूत बनाया गया है. अमेरिका में नियुक्त 29 राजदूतों में 10 विदेश सेवा से, तीन प्रशासनिक सेवा से और चार ब्रिटिश शासन द्वारा स्थापित सिविल सर्विस से रहे हैं. ब्रिटेन में कार्यरत अंतिम 14 उच्चायुक्त विदेश सेवा से रहे हैं.
आजादी के बाद से वहां 29 उच्चायुक्त नियुक्त हुए हैं, जिनमें आधे विदेश सेवा से थे, जबकि प्रशासनिक सेवा से एक व्यक्ति को उच्चायुक्त बनाया गया है. नौकरशाही में फेर-बदल, नये सलाहकारों की नियुक्ति और विभिन्न संस्थानों में बदलाव लगातार चलने वाली प्रक्रियाएं हैं. एक बात तो एकदम स्पष्ट है- चुनावी नतीजे विचारधारात्मक जुड़ाव को बदल सकते हैं, पर नौकरशाही की प्रमुखता और नीति-निर्धारण पर उसकी पकड़ बरकरार रहेगी. जिन प्रतिभाओं को अभी तक चुना गया है और आगे चुना जायेगा, उनकी वैचारिक और सांस्थानिक पृष्ठभूमि से यही इंगित होता है कि निरंतरता ही मोदी मंत्र है. मामूली बदलाव अपवाद हैं, जो सिद्ध करते हैं कि नियम सही है. बस वे संतोष कर सकते हैं. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)