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किसानों को सशक्त कर सकती है सहकारिता

सहकारी समितियों में कृषि परिदृश्य को बदलने की अपार क्षमता है. इन संस्थाओं को पुनर्जीवित कर, सदस्य-केंद्रित दृष्टिकोण को बढ़ावा देकर और प्रौद्योगिकी का लाभ उठाकर सहकारी समितियां ऋण अंतर को पाट सकती हैं

केसी त्यागी, बिशन नेहवाल :

कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, जो न केवल आधे से अधिक कार्यबल को रोजगार देती है, बल्कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में महत्वपूर्ण योगदान के साथ-साथ देश की खाद्य सुरक्षा भी सुनिश्चित करती है. फिर भी भारतीय कृषि को लगातार एक चुनौती का सामना करना पड़ रहा है- किसानों के लिए पर्याप्त और समय पर ऋण की कमी. क्रिसिल की 2021 की रिपोर्ट में कृषि में ऋण अंतर लगभग 6-7 लाख करोड़ रुपये होने का अनुमान लगाया गया था. यह ऋण अंतर कृषि विकास, आधुनिकीकरण और अंततः किसानों की आय में बाधा उत्पन्न करता है. परंपरागत रूप से किसानों ने अनौपचारिक स्रोतों, जैसे साहूकारों पर अधिक भरोसा किया है, जो अत्यधिक ब्याज दर वसूलते हैं. यह ऋण जाल कई किसानों को गरीबी में धकेल देता है, और यहां तक कि आत्महत्या करने के लिए भी विवश कर देता है. वाणिज्यिक बैंकों जैसे औपचारिक ऋण संस्थानों की ग्रामीण पहुंच अक्सर सीमित होती है और वे बड़ी ऋण राशि को प्राथमिकता देते हैं, जिससे छोटे और सीमांत किसान दूर हो जाते हैं. यहीं पर सहकारी समितियां आशा की किरण के रूप में उभरती हैं. अपने बड़े नेटवर्क, सदस्य-केंद्रित दृष्टिकोण और ग्रामीण विकास पर ध्यान देने के साथ सहकारी समितियां कृषि ऋण आवश्यकताओं को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं.

आज भारत में 8.5 लाख से ज्यादा सहकारी समितियों का मजबूत नेटवर्क है, जो कृषि, डेयरी, आवास और बैंकिंग जैसे विभिन्न क्षेत्रों को कवर करता है. कई राज्यों ने कृषि ऋण में सहकारी समितियों की प्रभावशीलता को प्रदर्शित किया है. महाराष्ट्र अपने सफल सहकारी आंदोलन के लिए प्रसिद्ध है, खासकर चीनी और डेयरी क्षेत्र में. सहकारी चीनी मिलों और डेयरी समितियों ने न केवल किसानों को ऋण उपलब्ध कराया है, बल्कि मजबूत आपूर्ति शृंखला भी स्थापित की है और उपज के लिए उचित मूल्य भी सुनिश्चित किया है. गुजरात का अमूल सहकारी मॉडल इसका एक शानदार उदाहरण है. अमूल ने डेयरी किसानों को सशक्त बनाया है और गुजरात को एक अग्रणी डेयरी उत्पादक में बदल दिया है. ‘भारत के अन्न भंडार’ के रूप में जाने जाने वाले पंजाब की कृषि सफलता का श्रेय मुख्य रूप से सहकारी समितियों के मजबूत नेटवर्क को जाता है.

भारत में तीन स्तरीय सहकारी ऋण संरचना है- प्राथमिक कृषि ऋण समितियां (पैक्स) गांव स्तर पर, जिला केंद्रीय सहकारी बैंक (डीसीसीबी) जिला स्तर पर और राज्य सहकारी बैंक (एससीबी) राज्य स्तर पर. सहकारी समितियां सदस्य-स्वामित्व वाली संस्थाएं हैं, जो किसानों के बीच स्वामित्व और समुदाय की भावना को बढ़ावा देती हैं. मानकीकृत ऋण उत्पादों वाले वाणिज्यिक बैंकों के विपरीत, सहकारी समितियां लचीले पुनर्भुगतान कार्यक्रम, छोटी ऋण राशि और निजी उधारदाताओं की तुलना में कम ब्याज दरों के साथ ऋण योजनाएं तैयार कर सकती हैं. छोटे और सीमांत किसान, किरायेदार किसान और महिला किसानों को अक्सर संपार्श्विक (कोलेटरल) सुरक्षा या अपर्याप्त दस्तावेजों जैसे कारकों के कारण औपचारिक ऋण प्राप्त करने में कठिनाई होती है. सहकारी समितियां, अपने सदस्य-संचालित दृष्टिकोण के साथ, इन वंचित समूहों को ऋण देने को प्राथमिकता दे सकती हैं. यह न केवल सामाजिक समानता को बढ़ावा देता है बल्कि समावेशी कृषि विकास को भी बढ़ावा देता है.

सहकारी समितियां अल्पावधि ऋण, जिसमें मौसमी कृषि गतिविधियों जैसे बुवाई, सिंचाई और कटाई के लिए ऋण शामिल हैं, की तत्काल आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए समय पर और पर्याप्त धनराशि प्रदान करती हैं, जिससे किसान बिना किसी वित्तीय तनाव के अपने फसल चक्र को बनाये रख पाते हैं. कृषि मशीनरी खरीदने, भूमि विकास और बुनियादी ढांचा परियोजनाओं जैसे पूंजी-गहन निवेशों के लिए सहकारी समितियां दीर्घकालीन ऋण प्रदान करती हैं. ये ऋण कृषि क्षेत्र में आधुनिकीकरण और उत्पादकता बढ़ाने में मदद करते हैं. सहकारी समितियां कृषि उत्पादकता और किसानों की आय में सुधार के लिए कई तरह की महत्वपूर्ण सेवाएं प्रदान करती हैं. इससे किसानों को बिचौलियों के शोषण से बचने में मदद मिलती है और बेहतर पैदावार के लिए आवश्यक इनपुट तक पहुंच सुनिश्चित होती है.

फसल कटाई के बाद होने वाले नुकसान किसानों के लिए एक बड़ी चिंता का विषय हैं. एक अनुमान के अनुसार, भारत को वार्षिक फसल कटाई के बाद खाद्यान्न में 10 से 15 प्रतिशत के बीच नुकसान का सामना करना पड़ता है, जो ज्यादातर अपर्याप्त भंडारण सुविधाओं और अकुशल वितरण नेटवर्क के कारण होता है. इसका मतलब है कि हर साल लाखों टन कीमती भोजन बर्बाद हो जाता है. यह स्थिति तत्काल और अभिनव समाधान की मांग करती है. सहकारी समितियां किसानों को उपज के प्रभावी संग्रहण में मदद करने के लिए भंडारण सुविधाएं प्रदान कर सकती हैं, जिससे नुकसान कम से कम होगा और जब बाजार की स्थिति अनुकूल होगी, तो उन्हें अपनी फसल बेहतर कीमत पर बेचने की अनुमति मिलेगी. सहकारी समितियां किसानों को उपज के विपणन में सहायता कर सकती हैं, जिससे बिचौलियों की आवश्यकता समाप्त हो जाती है.

अपनी क्षमता के बावजूद सहकारी समितियों को ऐसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जो उनकी प्रभावशीलता में बाधा डालती हैं. नौकरशाही की अक्षमता, उच्च ऋण चूक दरों के कारण कमजोर वित्तीय स्वास्थ्य और पुरानी परिचालन प्रथाएं कुछ ऐसी बाधाएं हैं, जिनका तत्काल समाधान किया जाना चाहिए. ऋण अंतर को प्रभावी ढंग से पाटने तथा किसानों की वित्तीय भलाई सुनिश्चित करने के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसमें पैक्स यानी गांव स्तर की संस्थाओं को मजबूत करना बहुत जरूरी है. संचालन को सुव्यवस्थित करना, ऋण वसूली तंत्र में सुधार करना और बेहतर ऋण प्रबंधन के लिए प्रौद्योगिकी को अपनाना आवश्यक है. सदस्यों और कर्मचारियों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम उनकी परिचालन दक्षता और प्रभावशीलता को बढ़ा सकते हैं. राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम जैसी सरकारी पहल सहकारी समितियों को अधिक वित्तीय सहायता प्रदान कर सकती है, जिससे वे अधिक आकर्षक ऋण उत्पाद प्रदान करने और बुनियादी ढांचे में सुधार करने में सक्षम हो सकेंगी. प्रौद्योगिकी से समितियों के कामकाज में क्रांतिकारी बदलाव आ सकता है. (ये लेखकद्वय के निजी विचार हैं.)

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