संयम और सतर्कता से समाधान
विज्ञान की प्रगति ने हमें प्रयोगधर्मी बना दिया और परंपराओं को दकियानूसी कहकर हम तिरस्कृत करने लगे, जबकि हमने देखा है कि कोरोना काल में पारंपरिक व्यवस्था ने ही महामारी की मारक क्षमताओं को कमजोर किया.
रेमन धीरज क्यों न धरै/ संबत दो हजार के ऊपर ऐसो योग परै/ पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण, चहुं दिश काल परै/ अकाल मृत्यु जग माहीं व्यापै, प्रजा बहुत मरै/ सहस बरस लगि सतयुग व्यापै, सुख की दशा फिरै/ स्वर्ग फूल बन पृथ्वी फूलै, धर्म की बेलि बढै/ काल ब्याल से बही बचेगा, जो हंस का ध्यान धरै/ सूरदास हरि की यह लीला, टारे नाहिं टरै, इस रचना में सूरदास ने न केवल महामारी की भविष्यवाणी की है, अपितु उसका समाधान भी बताया है कि जो लोग हंस का ध्यान यानी प्रकृति के नियमों का पालन करेंगे, वे महामारी से बचेंगे.
कोविड-19 की दूसरी लहर बेहद खतरनाक और मारक रूप ग्रहण कर वापस आयी है. बीमारी की भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि लाश जलाने और दफनाने के लिए जगह कम पड़ने लगी है. ऐसी परिस्थिति में सरकार और व्यवस्था के प्रति अविश्वास का प्रदर्शन खुद व समाज को खतरे में डालने जैसा है. परिस्थितियां जब अपने हाथ में नहीं हों, तो उनसे समझौता करना पड़ता है.
ऐसे में संयम और सतर्कता ही ऐसे हथियार हैं, जिससे हम महामारी के महाजाल को काट सकते हैं. इस समय सत्ता के प्रति अविश्वास के बदले हम सभी को मिलकर इसका समाधान ढूंढना चाहिए.मानवीय इतिहास में कभी प्राकृतिक, तो कभी भौतिक आपदाओं के कारण लोग दुर्भिक्ष का शिकार होते रहे हैं. ईसा पश्चात 165 से 180 के बीच एशिया माइनर (दक्षिण-पूर्वी एशिया और वर्तमान तुर्की), मिस्र, ग्रीस और इटली में एक किस्म का बैक्टीरिया संक्रमण फैला था, जिसे एंटोनियन प्लेग कहा गया.
इस संक्रमण ने तब 50 लाख लोगों की जान ली थी और रोम की पूरी सेना को लगभग नष्ट कर दिया था. इसके बाद 541-42 में जस्टिनियन प्लेग ने यूरोप की एक बड़ी आबादी को खत्म कर दिया. काली मृत्यु यानी ब्लैक डेथ 1346 से 1353 के बीच में फैली. इसके कारण 7.50 करोड़ से 20 करोड़ लोगों की मृत्यु हुई. तीसरी महामारी 1855 में फैली, तब भारत और चीन में 1.2 करोड़ लोगों की मृत्यु हुई थी. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक यह बैक्टीरिया 1960 तक सक्रिय था. हैजे की सात लहरें आयीं और इससे लाखों लोगों की मौत हुई.
भारत में महामारियों का इतिहास औपनिवेशिक काल में ज्यादा देखने को मिलता है. साल 1900 से लेकर अब तक जो महामारियां सामने आयी हैं, उसमें कोरोना वायरस महामारी 2019 में प्रारंभ हुई. यह बीमारी 2019 में चीन से शुरू हुई, लेकिन 2020 में यह पूरे विश्व में फैल गयी. निपाह वायरस 2018 में केरल में फैला. इसका संक्रमण चमगादड़ से प्रारंभ हुआ. एंसेफलाइटिस 2017 में मच्छरों के काटने से शुरू हुआ. साल 2014-2015 में स्वाइन फ्लू की शुरुआत गुजरात से हुई, जो बाद में कई राज्यों में फैल गया.
पीलिया 2015 में फैला. हेपेटाइटिस 2009 में गुजरात से फैला. डेंगू और चिकनगुनिया 2006 में पहले गुजरात और दिल्ली में फैला. सार्स 2002-2004 में बेहद खतरनाक रूप से फैला. सितंबर 1994 में न्यूमोनिक प्लेग ने सूरत में दस्तक दी. प्लेग का मुख्य कारण शहर में खुली नालियों, खराब सीवेज प्रणाली आदि थी. चेचक महामारी ने भी भारत को प्रभावित किया, जिस पर सोवियत संघ की सहायता से काबू पाया गया. स्पेनिश फ्लू ने 1918 में दस्तक दी, जो घातक महामारियों में एक था.
विज्ञान के विकास ने निस्संदेह हमें ताकत दी है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम भगवान और प्रकृति को चुनौती दें. विज्ञान की प्रगति ने हमें प्रयोगधर्मी बना दिया और परंपराओं को दकियानूसी कहकर हम तिरस्कृत करने लगे, जबकि हमने देखा है कि कोरोना काल में पारंपरिक व्यवस्था ने ही महामारी की मारक क्षमताओं को कमजोर किया. कोरोना सभी महामारियों से ज्यादा खतरनाक और तेजी से फैलनेवाली बीमारी साबित हुई है.
महामारी के इतिहास में हमने देखा है कि यह बाहरी संक्रमण, गंदगी और जीवन शैली में परिवर्तन के कारण फैलती है. कोरोना के मामले में हम देख रहे हैं कि लोग घबरा जा रहे हैं. हर किसी को अस्पताल मिलना संभव नहीं है. फिर इसका इलाज घर पर रह कर भी हो सकता है. ज्यादातर लोग घर पर ही ठीक हुए हैं.
महामारी का संक्रमण अब छोटे कस्बों और सड़कों पर लगनेवाले ग्रामीण बाजारों में फैलने लगा है. इस कारण गांव में संक्रमण फैलने का खतरा बढ़ गया है. यदि ग्रामीण संक्रमण को रोकना है, तो गांव के लोगों को गांव में ही बाजार उपलब्ध कराना होगा. प्रखंड एवं पंचायत स्तर के स्वास्थ्य केंद्रों में संसाधनों का घोर अभाव है. इसे अविलंब मजबूत करने की जरूरत है.
स्वच्छता का पूरा ध्यान रखा जाए. गर्म पानी का सेवन और भाप लेना अपनी दिनचर्या में शामिल करें. संभव हो, तो अपने आसपास तुलसी, नीम, परिजात, बाकस, गिलोय आदि औषधीय पौधे लगायें और समय-समय पर उसका सेवन करें.
गांव की सीमा से बाहर ऐसे केंद्र बनें, जहां कुछ दिनों के लिए बाहरी लोगों को ठहराया जा सके. हर बात के लिए सरकार पर निर्भरता को खत्म करना होगा. बीमारी से लड़ने के लिए खुद की व्यवस्था भी खड़ी करें. सतर्कता, पारंपरिक ज्ञान, धैर्य, सकारात्मक सोच और प्रकृति के नियमों का पालन ही हमें बीमारी से निजात दिला सकता है. डर और घबराहट से स्थिति और बिगड़ सकती है.