भारत उन देशों में शामिल हैं, जो स्वास्थ्य पर अपेक्षाकृत कम खर्च करते हैं. वित्त वर्ष 2021-22 में सकल घरेलू उत्पादन का के करीब 2.1 फीसदी ही इस मद में खर्च हुआ है, जो 4.72 लाख करोड़ रुपये है. आयुष्मान भारत समेत विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं से करोड़ों परिवारों को राहत मिली है, पर आम तौर पर उपचार महंगा होने से लोगों पर दबाव भी बढ़ा है.
जेब होने वाले खर्च में सबसे अधिक भाग दवाओं का है. इस रिपोर्ट में केंद्र और राज्य सरकारों को सलाह दी गयी है कि दवा और जांच बाजार का नियमन होना चाहिए. यह भी देखा गया है कि डॉक्टर रोगियों को कई दवाएं लिखते हैं, जो ठीक नहीं है. मेडिकल कॉलेजों में छात्रों को तर्कपूर्ण दवाएं देने के बारे में सिखाया जाना चाहिए. सस्ती दरों पर दवाएं उपलब्ध कराने के लिए प्रधानमंत्री जन औषधि परियोजना के तहत देशभर में दुकानें खोलने से लोगों को बड़ी राहत मिली है.
फार्मा सही दाम पहल से लोग दवाओं के दाम की सही जानकारी ऑनलाइन ले सकते हैं. अमृत योजना में सस्ती दवा और उपचार के साजो-सामान मुहैया कराने की दिशा में कदम उठाया गया है. ऐसे प्रयासों से निश्चित ही लोगों की जेब का बोझ कम हुआ है, पर इन्हें व्यापक स्तर पर लागू करने की जरूरत है. गांवों-कस्बों में अस्पताल, जांच केंद्र और दवा दुकान की व्यवस्था पर भी ध्यान देना चाहिए. दवाओं के अलावा सफर करने और भाड़े पर रहने की जगह लेने में भी मरीज को बहुत खर्च करना पड़ता है.
सरकारी चिकित्सा केंद्रों और अस्पतालों की संख्या कम होने या उनके पास संसाधनों की कमी के कारण लोगों को शहर जाकर निजी अस्पतालों में दिखाना पड़ता है. रिपोर्ट में रेखांकित किया गया है कि करीब 70 फीसदी स्वास्थ्य सेवा निजी क्षेत्र द्वारा मुहैया करायी जा रही है. बड़े शहरों के सरकारी संस्थानों में भीड़ होने से भी मरीज को बाहर रहना पड़ता है और बाहर ही दवा आदि खरीदना होता है.
आगामी वर्षों में हर जिले में मेडिकल कॉलेज स्थापित करने और ग्रामीण क्षेत्रों में संसाधन बेहतर करने का लक्ष्य सरकार ने निर्धारित किया है. निजी कॉलेजों की संख्या बढ़ाने पर भी जोर दिया जा रहा है. इससे चिकित्साकर्मियों की उपलब्धता बढ़ेगी. स्वास्थ्य के क्षेत्र में तकनीक का इस्तेमाल बढ़ाने से भी खर्च में कटौती करना संभव होगा. उपचार को सस्ता करने के उपायों के साथ सार्वजनिक खर्च में बढ़ोतरी करने तथा स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या बढ़ाने पर ध्यान दिया जाना चाहिए.