छोटे उद्यमियों के ऋण की समस्या

सही उपाय यह होगा कि बड़े खरीदारों के जीएसटी भरने के ऑक्सीजन की आपूर्ति काट दी जाए. चूंकि हर खरीदारी का विवरण जीएसटी नेटवर्क में दर्ज होता है, और छोटे या मझोले उद्यम की पहचान उद्यम पंजीकरण संख्या से होती है

By अजीत रानाडे | April 6, 2023 6:31 AM
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मंगलवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट कर सूक्ष्म, छोटे व मझोले उद्यमियों को मजबूत करने के लिए क्रेडिट गारंटी योजना में हालिया बदलाव की घोषणा की. छोटे उद्यमियों के लिए सबसे बड़ी समस्या समुचित ब्याज दर पर समय पर कर्ज न मिल पाने की है. इसकी मुख्य वजह इस सेक्टर के लिए बैंकों से कम रकम की उपलब्धता है. बैंक इसे बहुत अधिक जोखिम का क्षेत्र मानते हैं. अर्थव्यवस्था में छोटे एवं मझोले उद्यमों के अत्यधिक महत्व को देखते हुए इसे मजबूत करने के हरसंभव प्रयास होने चाहिए.

औद्योगिक क्षेत्र में उत्पादन, रोजगार और निर्यात में ये उद्यम लगभग आधे हिस्से का योगदान करते हैं. देश में ऐसे उद्यमों की संख्या लगभग 6.40 करोड़ है. ये उद्यम सेवा क्षेत्र में भी योगदान करते हैं तथा इसमें मोची, पान दुकान या सैलून जैसी सेवाएं भी हैं, जहां एक व्यक्ति सेवा मुहैया कराता है. मैनुफैक्चरिंग में ही लगभग 12 लाख उद्यम हैं. इन आर्थिक इकाइयों को एक साथ सूक्ष्म, छोटे और मझोले उद्यम कहा जाता है.

केंद्र में इन उद्यमों के लिए एक मंत्रालय भी है, जिसे 2007 में स्थापित किया गया था. इससे सालभर पहले संसद ने इस क्षेत्र के लिए एक कानून भी पारित किया था, जिसका उद्देश्य इसके विकास के साथ-साथ इसमें प्रतिस्पर्धा बढ़ाना भी था. केंद्र और राज्य सरकारों तथा स्थानीय निकायों द्वारा वस्तु एवं सेवा खरीद में इन्हें विशेष वरीयता दी गयी है. इनकी ऋण उपलब्धता के लिए भी विशेष प्रावधान हैं. वर्ष 2020 में सरकार ने इस क्षेत्र की परिभाषा में संशोधन की आवश्यकता को समझा.

अब निवेश या टर्नओवर के हिसाब से ऐसे उद्यमों को परिभाषित किया जाता है. एक करोड़ रुपये तक के निवेश या पांच करोड़ रुपये तक के टर्नओवर वाले उद्यम सूक्ष्म (माइक्रो), दस करोड़ रुपये तक के निवेश या पचास करोड़ तक के टर्नओवर वाले उद्यम छोटे (स्मॉल) तथा पचास करोड़ तक के निवेश या 250 करोड़ के टर्नओवर वाले मध्यम (मीडियम) उद्यम माने जाते हैं. बीते वर्षों में केंद्र और राज्य सरकारों ने इस क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए अनेक नीतिगत पहलें की हैं.

इस क्षेत्र की मुख्य समस्याएं समुचित ऋण, विपणन, तकनीक, वित्तीय साक्षरता आदि का अभाव तथा कुछ ग्राहकों पर अति निर्भरता या सही प्रतिभा का उपलब्ध नहीं होना हैं. छोटे व मझोले उद्यमों का समर्थन समावेशी विकास की भावना के अनुरूप है क्योंकि वे करोड़ों परिवारों को रोजी-रोटी मुहैया कराते हैं तथा उनकी सफलता उनमें अर्थव्यवस्था में भागीदारी का भरोसा और सम्मान का भाव भरती है.

इस क्षेत्र के सभी तरह के उद्यम देरी से भुगतान के रूप में एक बड़ी समस्या का सामना करते हैं. चूंकि उनके ग्राहक बड़े और रसूखदार होते हैं, तो वे ठीक से मोल-भाव भी नहीं कर पाते. अक्सर पिछले भुगतान को अगले ऑर्डर के साथ जोड़ दिया जाता है. ऐसे में संभव है कि ग्राहक के पास हमेशा ही दस-बीस प्रतिशत बकाया रहता हो. मजबूरी की एक वजह यह भी है कि अधिकतर छोटे व मझोले उद्यमों के पास केवल एक बड़ा खरीदार होता है.

छह माह से अधिक देरी पर वे ग्राहक पर अदालती या दिवालिया संबंधी कार्रवाई भी नहीं कर पाते. अगर वे ऐसा करेंगे, तो उनका कारोबार ही बंद हो जायेगा. यह दोनों तरह की- निजी और सरकारी- बड़ी कंपनियों पर लागू होता है. उदाहरण के लिए, रेलवे के पास दस लाख छोटे वेंडर हैं, जिनका एक ही ग्राहक है.

हालांकि 2006 के कानून में 45 दिन से अधिक की देरी की मनाही है, पर इस पर अमल नहीं होता. डन एंड ब्राडस्ट्रीट की एक रिपोर्ट के अनुसार, छोटे व मझोले उद्यमों का लगभग 10 लाख करोड़ रुपया बकाया है. इसका सालाना ब्याज ही एक लाख करोड़ रुपया हो जाता है. अगर इस बकाये का भुगतान हो जाए, तो यह इस क्षेत्र को एक लाख करोड़ रुपये का अनुदान देने जैसा होगा.

हालिया बजट में आयकर कानून में एक संशोधन हुआ है, जिसके अनुसार यदि कंपनी छोटे वेंडरों को 45 दिन के भीतर भुगतान नहीं करती है, तो उस राशि को टैक्स के छूट के लिए नहीं दिखाया जा सकता और उस पर कर लगेगा. संशोधन की मंशा ठीक है, पर इसका असर नुकसानदेह हो सकता है. पहला, आयकर विभाग के डर से कुछ बड़ी कंपनियां छोटे व मझोले उद्यमों से खरीद बंद कर देंगी. इस क्षेत्र के अलावा होने वाली खरीद पर यह प्रावधान लागू नहीं होता.

यह असर वैसा ही है, जैसा 2016 के मातृत्व अवकाश कानून के साथ हुआ था. यह कानून महिलाओं की मदद के लिए बना था, पर इससे उनके रोजगार की संभावनाएं सीमित हो गयीं. दूसरी गंभीर समस्या उक्त संशोधन से यह है कि इसमें एक ऑडिटर की जरूरत होगी, जो वित्त वर्ष के अंत में बकाया का लेखा-जोखा करे.

इस व्यवस्था में बड़ा खरीदार भुगतान को अगले साल तक के लिए स्थगित कर देगा और उस वित्त वर्ष में पूरा भुगतान कर पूरी छूट ले लेगा. ऐसे में उसे कोई दंड नहीं देना पड़ेगा क्योंकि जो इस साल उनका नुकसान होगा, अगले साल उसकी भरपाई हो जायेगी. चार्टर्ड एकाउंटेंट संस्थान के जर्नल में संशोधन के इस अनचाहे असर की ओर इंगित किया गया है.

बहरहाल, सही उपाय यह होगा कि बड़े खरीदारों के जीएसटी भरने के ऑक्सीजन की आपूर्ति काट दी जाए. चूंकि हर खरीदारी का विवरण जीएसटी नेटवर्क में दर्ज होता है, और छोटे या मझोले उद्यम की पहचान उद्यम पंजीकरण संख्या से होती है, तो किसी भी बड़ी कंपनी को अगले माह (या 45 दिन के चक्र के बाद) के जीएसटी रिटर्न को भरने की अनुमति नहीं होनी चाहिए. किसी उद्यम को बड़ी खरीदार कंपनी द्वारा किये भुगतान की पुष्टि भारतीय रिजर्व बैंक के ट्रेड रिसीवेबल्स पोर्टल पर दर्ज प्रविष्टि से होती है.

ये सभी प्रक्रियाएं विभिन्न तंत्रों से संचालित होती हैं, इसलिए ये किसी भी तरह के स्वैच्छिक देरी या उगाही जैसे अनौपचारिक व्यवहार की स्थिति को रोक देती हैं. इससे यह भी होगा कि छोटे व मझोले उद्यम तबाह होने के डर से बच जायेंगे और उन्हें अपने ‘माई-बाप’ ग्राहकों को नाखुश करने का जोखिम नहीं उठाना पड़ेगा.

इससे उद्यमों के लिए कारोबारी सुगमता बढ़ाने में बहुत बड़ी सहायता मिलेगी. सरकार को इस सुधार की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए, चाहे बड़े कॉरपोरेशन इस कदम का जितना भी विरोध करें. ऐसा होने पर उन्हें 45 दिन के भीतर भुगतान करना होगा. छोटे व मझोले उद्यमों को मजबूत करने के सरकार की हालिया कोशिशें सराहनीय हैं, पर और भी प्रयासों की आवश्यकता है.

(ये लेखक के िनजी विचार हैं.)

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