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कानून होने के बाद भी प्रताड़ित हो रही हैं औरतें

Crime against women : इतिहास में शायद पहली बार है, जब हमारे लोकतंत्र, स्त्री शिक्षा और महिलाओं के हित में बने कानूनों ने उन्हें इतना मजबूत किया है कि उनकी बात सुनी जा रही है. पश्चिम की तरह भारत में स्त्रियों को मीडिया बैशिंग भी नहीं झेलनी पड़ी.

Crime against women : पिछले दिनों बेंगलुरु में काम करने वाले एक युवा इंजीनियर अतुल सुभाष ने आत्महत्या कर ली थी. दिल्ली के पुनीत खुराना ने भी ऐसा ही किया था. पिछले दिनों ऐसी और कई खबरें सामने आयीं. बताया गया कि इन सबने पत्नियों द्वारा प्रताड़ित किये जाने के कारण अपनी जान दी. उन लोगों का इस तरह चले जाना दुखद है. यह भी सही है कि स्त्रियों के कानूनों में अक्सर पुरुषों की सुनवाई नहीं है. स्त्रियों के हक में बने कानूनों का दुरुपयोग भी हो रहा है. लेकिन अतुल सुभाष और पुनीत खुराना की आत्महत्याओं के बाद समाज में जिस तरह की राय बनती दिखी, वह भी वास्तविकता से परे है. जैसे, यह कहा जाने लगा कि देश में महिलाओं पर कोई जुल्म नहीं हो रहा. महिलाएं ही पुरुषों को सता रही हैं.


इतिहास में शायद पहली बार है, जब हमारे लोकतंत्र, स्त्री शिक्षा और महिलाओं के हित में बने कानूनों ने उन्हें इतना मजबूत किया है कि उनकी बात सुनी जा रही है. पश्चिम की तरह भारत में स्त्रियों को मीडिया बैशिंग भी नहीं झेलनी पड़ी. मीडिया ने स्त्रियों का साथ दिया है और उन्हें सशक्त बनाने में अपनी भूमिका निभायी है. लेकिन यह भी सच है कि महिलाएं आज भी बड़ी संख्या में प्रताड़ित हैं. समाज का बड़ा वर्ग अब भी मानता है कि स्त्री का प्रथम कर्तव्य विवाह करना और मां बनना है. जन्मते ही उसे अपने परिवार में यह शिक्षा मिलती है कि उसे पराये घर जाना है. विवाह के नाम पर महिलाएं क्या कुछ नहीं झेलतीं! बहू का अर्थ है कि वह आयेगी, तो पूरे परिवार की सेवा करेगी. रात-दिन नहीं देखेगी. खाये या न खाये, बीमार पड़े, तब भी उसे बस सेविका बने रहना है. यही सोच है, जो स्त्री के प्रति तरह-तरह के अपराधों को जन्म देती है. स्त्रियों के लिए ‘कर्तव्य शिक्षा’ जैसी पुस्तकें भी हैं, जो सिर्फ औरतों के कर्तव्यों की बातें करती हैं. उन्हें भी कुछ चाहिए, इस पर सब मौन हैं. सारे व्रत-उपवासों का ठेका भी औरतों के जिम्मे है. वे तरह-तरह की हिंसा झेलती हैं और दहेज के लिए सतायी जाती हैं.


एनसीआरबी (नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो) के आंकड़ों के अनुसार, अपने देश में औरतों के साथ होने वाले अपराधों में 32.4 प्रतिशत का कारण दहेज है. यह भी दिखता है कि ज्यों-ज्यों उपभोक्ता सामान का बाजार बढ़ा है, दहेज का बाजार भी सुरसा की तरह फैलता चला गया है. एनसीआरबी के ही अनुसार, 2022 में औरतों के प्रति होने वाले अपराधों में वृद्धि हुई है. एक आंकड़े के अनुसार, स्त्रियों के साथ किये जाने वाले 31.4 प्रतिशत अपराध पति और उनके घरवालों द्वारा किये जाते हैं. आंकड़ा बताता है कि 19.2 फीसदी स्त्रियां अपहरण का शिकार होती हैं, 18.7 प्रतिशत किसी न किसी तरह की हिंसा झेलती हैं और 7.1 फीसदी दुष्कर्म का शिकार होती हैं. आंकड़ों पर नजर डालने से साफ होता है कि पति और उसके परिवार द्वारा किये गये अपराधों का प्रतिशत सबसे ज्यादा है.

विधवाओं के प्रति भी इतने अपराध हैं कि उन्हें रोकने के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को एडवाइजरी जारी करनी पड़ी थी. यही नहीं, सरकारों ने भी विधवाओं की स्थिति सुधारने के लिए तरह-तरह की योजनाएं बनायी हैं. जैसे विधवाओं के आधार कार्ड को उनके बैंक खातों से जोड़ना. ऐसी महिलाएं अपने बैंक खाते खुद संचालित करें और उनकी पहुंच सारी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं तक हो, उन्हें विधवा पेंशन आसानी से मिल सके, उन्हें घर से न निकाला जा सके, उन्हें माता-पिता की जायदाद में हिस्सा मिल सके, इस पर नजर रखना आदि. महान कवि गोस्वामी तुलसीदास ने सदियों पहले लिखा था, ‘कत विधि नारि सृजी जग माहीं, पराधीन सपनेहु सुख नाहीं.’

महादेवी वर्मा ने इन सतायी हुई स्त्रियों का जैसा वर्णन अपने संस्मरणों में किया है, वे हैरान करने वाले हैं कि कैसे एक 19 साल की युवती को अपने ससुराल में विधवा होने के कारण ननद के हाथों इतना पिटना पड़ता है कि वह बेहोश हो जाती है. उसके लिए खाना-पीना और बाहर की दुनिया से संपर्क रखना मना है. ‘तितली’ उपन्यास में जयशंकर प्रसाद ने भी ऐसी ही एक विधवा स्त्री का जिक्र किया है, जो चुपके से अपने माथे पर हल्दी-चूने की बिंदी लगाती है और उसे पोंछकर जार-जार रोती है. राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, ज्योतिबा फुले, पंडिता रमाबाई, सावित्री बाई फुले और महान बांग्ला उपन्यासकार शरतचंद्र को भी इस संदर्भ में पढ़ा जा सकता है. अफसोस की बात यह है कि आज भी ऐसा बहुत कुछ हो रहा है.


यही कारण है कि मोदी सरकार इन दिनों प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत मकानों की रजिस्ट्री महिलाओं के नाम करती है. जो घर स्त्री के नाम है, उसे वहां से कौन निकाल सकता है! पति के रहते हुए भी असंख्य औरतों को घर से बाहर निकाल, दर-बदर कर दिया जाता है. खैरियत है कि इन दिनों गांव-गांव शिक्षा की लहर जा पहुंची है. स्त्रियां पढ़ रही हैं. अपने पांवों पर खड़ी हो रही हैं. शादी के मुकाबले आत्मनिर्भरता उनकी पहली प्राथमिकता है. विडंबना यह है कि तब भी जब-तब वे ही पुरुषों की हिंसा का शिकार होती हैं.
(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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