आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआइ) के गलत इस्तेमाल को लेकर पूरी दुनिया में चिंता है. कुछ दिन पहले गृह मंत्री अमित शाह का एक फेक वीडियो सामने आया है. यह वीडियो कथित तौर पर शेयर करने के लिए कई लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया है. ‘डीपफेक’ वह प्रौद्योगिकी है, जिससे एक वीडियो में छेड़छाड़ कर किसी ऐसे व्यक्ति के चेहरे को फिट किया जाता है, जो उस वीडियो का हिस्सा ही नहीं होता. ऐसे वीडियो में असली और नकली का अंतर बता पाना मुश्किल होता है. इस फर्जी वीडियो में भाजपा के वरिष्ठ नेता और गृह मंत्री अमित शाह अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण अधिकारों को खत्म करने की घोषणा करते हुए कथित तौर पर नजर आ रहे हैं. फैक्ट चेक में ये वीडियो फेक साबित हुआ है.
भारत आजादी की हीरक जयंती मना चुका है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोगों से 2047 में देश के चहुंमुखी विकास की आये दिन बात करते हैं. लेकिन यह दुर्भाग्य ही है कि इन वर्षों में हमारी लोकतांत्रिक यात्रा को प्रौढ़ और कहीं बेहतर समझदार होना चाहिए था, लेकिन नहीं हो पायी. आज की राजनीति की ओर देखते हैं, तो विनोबा की एक पंक्ति याद आती है- चारों तरफ सुराख ही सुराख है. आज राजनीति के लिए सत्ता सबसे बड़ा लक्ष्य है, जिसे हासिल करने के लिए वह हर तरह के काम करने को तैयार बैठी है.तो फेक बयान वाले वीडियो का मामला तकनीक की सीमाओं के विस्तार के साथ तकनीकी नैतिकता का सवाल भी उठाता है.
इसे महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन के सापेक्षिकता के सिद्धांत के जरिये समझ सकते हैं. अक्टूबर 1945 में दूसरे विश्व युद्ध के आखिर में अमेरिका ने जापान के नागासाकी और हिरोशिमा पर जिन अणु बमों को गिराकर मानवता को भयंकर नारकीय चोट पहुंचायी थी, उनके निर्माण का आधार यही सिद्धांत था. तब आइंस्टीन ने कहा था कि अगर वे जानते कि उनकी खोज से ऐसा जनसंहार हो सकता है, तो वे इस खोज को दुनिया के सामने ही नहीं लाते. संविधान की शायद ही कोई किताब होगी, जिसमें नैतिकता का जिक्र हुआ है. इसके बावजूद गतिशील लोकतंत्र की बुनियादी शर्त नैतिकता और शुचिता को स्वीकार करना है. बेशक राजनीति दांव-पेंच का खेल है.
लोकतांत्रिक व्यवस्था को सबसे बेहतर शासन व्यवस्था के रूप में स्वीकार किया गया है, पर हकीकत यह भी है कि दुनियाभर में सियासी फायदे के लिए दांव-पेंच किये जाते हैं. फिर भी न्यूनतम नैतिकता की उम्मीद की जाती है. स्वाधीनता आंदोलन की कोख से उपजी भारतीय राजनीतिक दुनिया की पहली पीढ़ी की नैतिकता, ईमानदारी और आचरण की पवित्रता से जुड़े तमाम किस्से हम सुनते-पढ़ते रहे हैं. सही मायने में हमारा लोक वृत्त यानी पब्लिक स्फीयर भी उन मूल्यों और आचरण की पवित्रता की बुनियाद पर तैयार हुआ है. दुर्भाग्य से आज की राजनीतिक पीढ़ी आचरण की पवित्रता, पेशेवर ईमानदारी और शुचिता के सिद्धांत को तिरोहित करती जा रही है.
गांधी जी की ओर जब हम देखते हैं, तो पाते हैं कि वे अक्सर नयी तकनीक का विरोध करते नजर आते हैं. उनका यह विरोध तकनीक के ऐसे ही नकारात्मक इस्तेमाल की आशंका के चलते था. यह आशंका रोजाना सही साबित हो रही है. सोशल मीडिया और सूचना क्रांति का जैसे-जैसे विस्तार होता गया, फेक न्यूज, फेक बयान, फेक नैरेटिव का भी विस्तार होता गया. लेकिन ज्यादातर मामलों में शरारती तत्व शामिल रहे. लेकिन एआइ के इस्तेमाल से राजनीतिक परिदृश्य को प्रभावित करने की शायद यह पहली कोशिश है. एआइ से तैयार की जाने वाली सूचनाओं और बयान आदि की खासियत है कि ये हूबहू लगते हैं, सही लगते हैं.
चूंकि मौजूदा दौर नैरेटिव को प्रसारित करने का है, वह गलत है या सही, यह बाद की बात है. अमित शाह का फेक बयान एआइ के जरिये तैयार कर प्रसारित करने का मकसद यह है कि जब तक उसका सच सामने आये, तब तक नकारात्मक असर फैल चुका होगा और लोग भाजपा से नाराज हो जायेंगे. जब तक भाजपा और अमित शाह सचेत होंगे, कार्रवाई होगी, तब तक देर हो चुकी होगी. फिर सफाई को कितने लोग सुनते हैं.
बहरहाल इस मामले की जांच हो रही है. पुलिस ने जिस तरह राजनीति की दुनिया की बड़ी हस्तियों को जांच में शामिल होने के लिए समन भेजा है, उसे लेकर राजनीति होने लगी है. अगर एआइ के इस बेजा और फेक इस्तेमाल में बड़ी मछलियां फंसी, तो भारतीय राजनीतिक इतिहास में एक बड़ा मामला होगा. राजनीतिक नैतिकता की गिरावट का भी यह बड़ा उदाहरण होगा. राजनीति की दुनिया नैतिकता की सबसे ज्यादा बात करती है. राजनीति ही कानूनों और नियमों का आधार बनाती है.
चूंकि फेक बयान के मामले में शक राजनीति पर ही है और प्रभावित राजनीति ही है, इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि एआइ के उपयोग को वैधानिक दायरे में बांधने और उसे नैतिक बनाने की कानूनी कोशिश भी राजनीति करेगी. इस प्रकरण से एआइ का इस्तेमाल नियम संयत बनाने और इसके बेजा इस्तेमाल के लिए समुचित दंड के प्रावधान की जरूरत को बल मिलेगा. इस मामले ने जाहिर किया है कि तकनीक को काबू में रखने के साथ-साथ नैतिकता के दायरे में भी कसा जाना चाहिए.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)