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संसद में गतिरोध असली मुद्दों से भटकाव है, पढ़ें वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई का विशेष आलेख

Parliament Session: संसद का काम देश के लिए कानून बनाना तो है ही, साथ ही साथ देश और विदेश के जो महत्वपूर्ण मसले हैं, उन पर चर्चा करना भी है. इन चर्चाओं के लिए संसद से अच्छा और बड़ा फोरम और कोई हो ही नहीं सकता. इस देश में कई समस्याएं हैं. मणिपुर का मसला है. ‘वन नेशन- वन इलेक्शन’ का मुद्दा है, जिस पर खुद सरकार भी चर्चा चाहती है.

Parliament Session : संसद के शीतकालीन सत्र में दोनों सदनों में अब तक जो कुछ देखा गया, वह निराशाजनक है. राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पर रार के अलावा अगर अब तक की संसद में चली कार्यवाही को देखें, तो इससे बहुत शुभ संकेत नहीं मिलते हैं. विगत 25 नवंबर से संसद का शीतकालीन सत्र शुरू हुआ था, लेकिन इसमें अभी तक शायद ही जनहित के किसी मुद्दे पर कोई सार्थक चर्चा हुई है. शीतकालीन सत्र के लिए जो एजेंडा तय किया गया था, उस पर भी न के बराबर काम हुआ है. आलम यह है कि संसद के दोनों सदन हर रोज बगैर किसी विशेष कामकाज के स्थगित किये जा रहे हैं.

संसद सिर्फ कानून नहीं बनाती महत्वपूर्ण मसलों पर चर्चा भी करती है

संसद का काम देश के लिए कानून बनाना तो है ही, साथ ही साथ देश और विदेश के जो महत्वपूर्ण मसले हैं, उन पर चर्चा करना भी है. इन चर्चाओं के लिए संसद से अच्छा और बड़ा फोरम और कोई हो ही नहीं सकता. इस देश में कई समस्याएं हैं. मणिपुर का मसला है. ‘वन नेशन- वन इलेक्शन’ का मुद्दा है, जिस पर खुद सरकार भी चर्चा चाहती है. इसके अलावा भी वक्फ एक्ट और प्लेसेस ऑफ वरशिप एक्ट जैसे कई मुद्दे हैं. भारत से इतर दुनिया में भी कई घटनाएं हो रही हैं. जैसे सीरिया का मसला है. सब जानते हैं कि इसके कई दीर्घकालीन परिणाम होंगे. इस मुद्दे पर पूरे सदन में चर्चा होनी चाहिए. बांग्लादेश में जो कुछ हो रहा है, उसकी प्रतिक्रियाएं देश की सड़कों पर तो दिखाई दे रही हैं, लेकिन देश के सबसे बड़े मंच से यह मुद्दा सिरे से नदारद है. संसद वह फोरम है, जहां यह बताना सरकार की जिम्मेदारी है कि वह अहम मसलों पर क्या कर रही है. दूसरी तरफ सकारात्मक विरोध करना या सुझाव देना विपक्ष का कर्तव्य है.

विपक्ष और सत्ता पक्ष दोनों संसद की अहमियत नहीं समझ रहे

दुर्भाग्य से सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों ही संसद की अहमियत को नहीं समझ रहे हैं या जानबूझकर उसकी अवहेलना कर रहे हैं. दोनों ही पक्षों से कई वरिष्ठ सांसद हैं. कुछ सांसद तो सात-सात, आठ-आठ बार चुनाव जीतकर संसद में पहुंचे हैं. लेकिन वे भी बीच का कोई रास्ता नहीं सुझा पा रहे हैं. संसद में गतिरोध कोई नयी बात नहीं है. पहले भी कई बार गतिरोध की स्थिति आयी है. लेकिन तब लोकसभा के अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति इस तरह के गतिरोधों को तोड़ने की पहल करते थे. परंतु अब समस्या यह है कि विपक्ष उन्हें सत्ता पक्ष का ही एक अंग मानकर बर्ताव कर रहा है. इससे लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति, दोनों के संवैधानिक अधिकारों तथा कर्तव्यों पर भी बड़ा सवाल उठता है.

राज्यसभा के उपसभापति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव अभूतपूर्व

राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ के खिलाफ विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव के नोटिस को तो भारतीय संसद के इतिहास में अभूतपूर्व ही कहा जा सकता है. इस प्रस्ताव का मतलब है देश के उपराष्ट्रपति के प्रति अविश्वास जताना, जो राष्ट्रपति के बाद देश में दूसरा सर्वोच्च संवैधानिक पद होता है. जगदीप धनखड़ से पहले इस देश में 13 उपराष्ट्रपति हो चुके हैं, लेकिन प्रथम उपराष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन से लेकर हामिद अंसारी तक ने बतौर सभापति राज्यसभा का संचालन करते हुए न केवल निष्पक्षता बरती, बल्कि वे निष्पक्ष नजर भी आये. यहां तक कि जगदीप धनखड़ से पहले उपराष्ट्रपति रहे एम वेंकैया नायडू ने भी राज्यसभा के संचालन में कमोबेश निष्पक्षता बरती थी. यहां यह याद दिलाया जाना आवश्यक है कि के आर नारायणन और उनसे पहले तक के तमाम उपराष्ट्रपति तो प्रश्नकाल के बाद राज्यसभा की कार्यवाही से दूर हो जाते थे और सदन चलाने का जिम्मा उपसभापति के हवाले कर दिया जाता था. ऐसा इसलिए, क्योंकि उन्हें लगता था कि राज्यसभा में होने वाली तीखी राजनीतिक बहस के दौरान एक उपराष्ट्रपति का सभापति की कुर्सी पर बैठे रहना नैतिक तौर पर उचित नहीं रहेगा.

तथ्यों की अनदेखी कर रहा है विपक्ष

विपक्ष का यह अविश्वास प्रस्ताव अगर अभूतपूर्व है, तो इस पर सत्ता पक्ष की तरफ से आयी प्रतिक्रिया भी वैसी ही है. भाजपा सांसद संबित पात्रा द्वारा उपराष्ट्रपति का बचाव यह कहकर किया गया है कि वह एक समुदाय विशेष से आते हैं, और अविश्वास प्रस्ताव का यह नोटिस केवल उस राष्ट्रभक्त समुदाय का अपमान करने के लिए दिया जा रहा है. यह भी संभवत: पहली ही बार हो रहा है कि संवैधानिक पद के साथ जाति को इस तरह नत्थी किया जा रहा है, और इसके बहाने विपक्ष को प्रकारांतर से राष्ट्र विरोधी ठहराने का प्रयास किया जा रहा है. विपक्ष जिस तरह से अडानी के मुद्दे को लेकर अटका हुआ है, उससे आम जनता में यह संदेश जा रहा है कि उसके पास क्या इसके अलावा कोई और मुद्दा नहीं है? कांग्रेस और उसके समर्थक कुछ घटकों की पूरी ऊर्जा सदन में केवल गौतम अडानी के नाम को हाइलाइट करने में ही खर्च हो रही है. विपक्ष में कई अनुभवी नेता हैं, लेकिन इसके बावजूद वह इस तथ्य की अनदेखी कर रहा है कि सदन के बाहर के किसी भी व्यक्ति का उल्लेख सदन में सिर्फ तभी किया जा सकता है, जब उसके साथ सत्ताधारी पार्टी या उसके किसी नेता का संबंध स्थापित होता हो, जैसा कि अतीत में बोफोर्स मामले में हो चुका है. यह याद किया जाना चाहिए कि उस समय विपक्ष ने राजीव गांधी को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की थी, न कि बोफोर्स कंपनी या उसके किसी अधिकारी को.

गांधी परिवार और सोरोस के बीच के कथित संबंधों का मसला

इधर अडानी के मुद्दे की काट के तौर पर सत्ता पक्ष गांधी परिवार और सोरोस के बीच के कथित संबंधों का मसला ले आया है. भाजपा के तमाम नेता और प्रवक्ता इसी की रट लगा रहे हैं, जबकि इसका आधार बस कुछ मीडिया रिपोर्ट्स ही हैं. सत्ता पक्ष के पास ऐसा कोई ठोस प्रमाण नहीं है, जो गांधी परिवार पर लगाये गये आरोपों की पुष्टि करते हों. कुल मिलाकर, सत्ता पक्ष हो या फिर विपक्ष, दोनों असली मुद्दों से जी चुराकर दूर की कौड़ियां पटक रहे हैं. आज भले ही इस पूरे मामले में जनता उदासीन नजर आ रही है, लेकिन उससे कुछ भी छिपा हुआ नहीं है. वह सब कुछ देख रही है कि उसकी गाढ़ी कमाई किस तरह संसद में होने वाली नारेबाजी या गैर जरूरी मुद्दों पर खर्च की जा रही है. इसलिए राजनेताओं को जनता के धैर्य की परीक्षा नहीं लेनी चाहिए. आप चाहें किसी के प्रति भी अविश्वास का प्रस्ताव पेश करें या किसी भी मसले पर तर्क-कुतर्क करें, लेकिन इस बात का जरूर ध्यान रहना चाहिए कि इस सियासी गुणा-भाग में कहीं आम वोटरों का संसदीय लोकतंत्र पर से विश्वास भंग होने का सिलसिला न शुरू हो जाये.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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