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स्वच्छ भारत अभियान का एक दशक

साल 2020 से स्वच्छ भारत अभियान संपूर्ण स्वच्छता अभियान में तब्दील किया जा चुका है. इसके लिए 1.40 लाख करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है. जाहिर है कि स्वच्छता के मोर्चे पर देश ने बहुत कुछ हासिल किया है, लेकिन यह कहना अभी जल्दबाजी होगी कि देश ने इस दिशा में सब कुछ हासिल कर लिया है. अब भी हमारे देश के कुछ इलाके ऐसे हैं, जहां का मानस सार्वजनिक स्वच्छता को लेकर पूरी तरह प्रतिबद्ध और सचेत नहीं हो पाया है. इस वर्ग को पूरी तरह प्रतिबद्ध और सचेत करना आवश्यक है.

साल 1901 के कोलकाता के कांग्रेस अधिवेशन में दक्षिण अफ्रीका से हिस्सा लेने पहुंचे गांधी जी को अजीब अनुभव हुआ. शिविर में सफाई की हालत बेहद खराब थी. गांधी जी से बर्दाश्त नहीं हुआ. अधिवेशन में सहयोग के लिए तैनात स्वयंसेवकों से उन्होंने स्वच्छता की बाबत बात की, तो उन्होंने टका-सा जवाब दे दिया, ‘यह हमारा काम नहीं है, यह सफाईकर्मी का काम है’.

गांधी जी ने अपने कपड़े उतारे, झाड़ू लेकर गंदगी साफ करने में जुट गये. भारतीय राजनीति में तब तक गांधी का सितारा बहुत नहीं चमक पाया था, लेकिन उन्होंने राजनीति की दुनिया में सफाई के विचार का बीज रोप दिया. बाद के दिनों में उन्होंने विचार दिया- स्वतंत्रता से ज्यादा जरूरी स्वच्छता है. गांधी के रचनात्मक शिष्यों, यथा विनोबा, ठक्कर बापा आदि ने स्वच्छता के इस गुर को बहुत आगे बढ़ाया. पर मुख्यधारा की राजनीति ने इस गांधीवादी दर्शन को उसी रूप में बाद में शायद ही स्वीकार किया.

इन संदर्भों में देखें, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले राजनेता हैं, जिन्होंने स्वच्छता और शौचालय क्रांति की बात की. शायद ही किसी ने सोचा होगा कि कोई प्रधानमंत्री लाल किले की प्राचीर से शौचालय क्रांति की बात करेगा. इसके डेढ़ महीने बाद गांधी जयंती पर दो अक्तूबर 2014 को उन्होंने खुद फावड़ा और झाड़ू उठा लिया. इसके साथ देश के सामने एक नया अभियान आया- ‘स्वच्छ भारत अभियान’.

स्वच्छ भारत अभियान के एक दशक पूरे हो गये हैं. इस दौरान स्वच्छता के मोर्चे पर देश ने बहुत कुछ हासिल किया है. ऐसा नहीं कि भारत में स्वच्छता की अवधारणा नहीं रही है. भारत के प्राचीन ग्रंथ, सामाजिक व्यवस्था और मंदिर संस्कृति की परंपराएं स्वच्छता की भारतीय धारा की गवाह हैं. यह कह सकते हैं कि बाद के दिनों में भारतीय स्वच्छता सिर्फ व्यक्तिगत स्वच्छता तक सीमित रह गयी थी.

शायद ही कोई भारतीय घर होगा, जहां रोज झाड़ू ना लगती हो. स्वच्छ भारत अभियान के पहले होता यह था कि झाड़ू लगती तो थी, लेकिन कूड़ा गली में या सड़क पर या सार्वजनिक जगहों पर फेंक दिया जाता था. प्रधानमंत्री मोदी के स्वच्छ भारत अभियान के शुरू करने के बाद इस सोच में बदलाव आया है. वैसे मानव स्वभाव कोई बिजली का बल्ब नहीं है कि बटन दबाया और जल या बुझ जायेगा. उसमें बदलाव आने में देर होती है. इसीलिए स्वच्छता के मोर्चे पर हम देखते हैं कि सौ प्रतिशत सफलता हासिल नहीं की जा सकी है. रेलवे लाइनों के किनारे पड़े कूड़े के अंबार अब भी बने हुए हैं. लेकिन बीते दस वर्षों में यह सोच विकसित हुई है कि सार्वजनिक स्वच्छता भी जरूरी है. नयी पीढ़ी के बच्चे तो अब बड़ों को सार्वजनिक गंदगी के लिए टोक देते हैं.

महात्मा गांधी ने कहा था, ‘मैं किसी को भी अपने दिमाग से गंदे पैर लेकर नहीं गुजरने दूंगा.’ इस दर्शन पर चलते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने स्वच्छ भारत अभियान शुरू करते हुए कहा था, ‘न मैं गंदगी करूंगा, न मैं गंदगी करने दूंगा.’ सार्वजनिक समारोहों में उनकी यह सोच अक्सर परिलक्षित होती है. किताब आदि के विमोचन के दौरान रैपर आदि को वे मोड़कर अपनी जेब में रख लेते हैं.

इससे अधिसंख्य लोगों ने प्रेरणा ली है. स्वच्छता अभियान की सफलता ही कहेंगे कि बारह करोड़ घरों में शौचालय बन चुके हैं. अभियान की एक दशक की यात्रा में खुले में शौच की कुप्रथा तकरीबन खत्म हो गयी है. स्वच्छता का मतलब सिर्फ सफाई ही नहीं, खाने-पीने की चीजें भी स्वच्छ होनी चाहिए. इस लिहाज से हर घर नल जल योजना को भी स्वच्छ भारत अभियान से जोड़ सकते हैं, जिसके तहत पाइप से स्वच्छ पानी की आपूर्ति की कवरेज दस सालों में 16 प्रतिशत से बढ़कर 78 प्रतिशत हो गयी है. धुएं के प्रदूषण से महिलाओं को रोजाना दो-चार होना पड़ता था. उज्ज्वला योजना के जरिये इस दिशा में स्वच्छ भारत अभियान को सफल कहा जा सकता है. इस योजना के तहत 11 करोड़ घरों में रसोई गैस का कनेक्शन पहुंच चुका है.

हाल में विश्व प्रसिद्ध पत्रिका ‘नेचर’ में स्वच्छ भारत अभियान के बाद आये बदलावों पर एक लेख छपा था. यह आलेख कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान और ओहायो स्टेट यूनिवर्सिटी के एक शोध पर आधारित है. इससे पता चलता है कि खुले में शौच की कुरीति खत्म होने और शौचालय क्रांति से देश में शिशु मृत्यु दर में कमी आयी है. शोध पत्र में कहा गया है कि हर वर्ष करीब 60 से 70 हजार शिशुओं की मृत्यु रोकने में सफलता मिली है तथा 2000 से 2015 की तुलना में 2015 और 2020 के बीच शिशु मृत्यु दर एक तिहाई रह गई. वर्ष 2000 और 2015 के बीच शिशु मृत्यु दर में जहां तीन प्रतिशत वार्षिक की गिरावट रही, वहीं बाद में यह गिरावट आठ से नौ प्रतिशत ज्यादा हुई.

इसी तरह, 2000 और 2015 के बीच की तुलना में बाद के वर्षों में शिशु मृत्यु दर में 10 प्रतिशत तक की गिरावट आयी. साल 2014 में शिशु मृत्यु दर जहां 39 अंक थी, वह साल 2020 में घटकर 28 रह गयी.
स्वच्छता अभियान की सफलता की कहानी विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट भी कहती है, जिसके अनुसार, स्वच्छता अभियान के चलते 2014 से 2019 के बीच डायरिया से होने वाली मौत के करीब तीन लाख मामले कम हुए. खुले में शौच की कुरीति खत्म होने से हर परिवार के स्वास्थ्य पर होने वाले करीब 50 हजार रुपये सालाना के खर्च की बचत हुई है.

इसके साथ ही भूजल की गुणवत्ता भी पहले की तुलना में बेहतर हुई है. शौचालय क्रांति के चलते अब करीब 93 प्रतिशत महिलाएं ज्यादा सुरक्षित महसूस करती हैं क्योंकि अब उन्हें शौच के लिए बाहर नहीं जाना पड़ता. साल 2020 से स्वच्छ भारत अभियान संपूर्ण स्वच्छता अभियान में तब्दील किया जा चुका है. इसके लिए 1.40 लाख करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है. जाहिर है कि स्वच्छता के मोर्चे पर देश ने बहुत कुछ हासिल किया है, लेकिन यह कहना अभी जल्दबाजी होगी कि देश ने इस दिशा में सब कुछ हासिल कर लिया है.

अब भी हमारे देश के कुछ इलाके ऐसे हैं, जहां का मानस सार्वजनिक स्वच्छता को लेकर पूरी तरह प्रतिबद्ध और सचेत नहीं हो पाया है. इस वर्ग को पूरी तरह प्रतिबद्ध और सचेत करना आवश्यक है. स्वच्छता में ढिलाई बरतने वाले तंत्र के लिए दंडात्मक विधान की व्यवस्था करनी होगी, तभी आज का भारत प्राचीन भारत की तरह पूरी तरह स्वच्छ हो पायेगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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