भारतीयता के आदर्श दीनदयाल
दीनदयाल जी ने राजनीति में सिद्धांत और राष्ट्र सेवा को सर्वोपरि रखा. उनका जीवन केवल किसी दल विशेष के लिए नहीं, बल्कि सभी के लिए प्रेरणादायक है.
आदर्श तिवारी, रिसर्च एसोसिएट, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन adarshtiwari208@gmail.com
भारतीय चिंतन परंपरा में पं दीनदयाल उपाध्याय का जिक्र आते ही हमारे मानस पटल पर भारतीयता का भाव अंकित होता है. दीनदयाल जी सही मायने में राष्ट्र साधक थे, उन्होंने अपने विचारों और राष्ट्र सेवा के व्रत को लिये स्वयं को खपा दिया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आने के बाद उन्होंने 21 जुलाई, 1942 को अपने मामा को एक भावपूर्ण पत्र लिखा, जो उनके जीवन लक्ष्य को समझाने में सहायक है. उन्होंने लिखा था कि ‘संघ के स्वयंसेवकों का पहला स्थान समाज और देश कार्य के लिए ही रहता है और फिर अपने व्यतिगत कार्य का.’
उन्होंने पत्र में सवाल किया कि ‘क्या आप अपना एक बेटा समाज को नहीं दे सकते हैं?’ दीनदयाल जी के माता-पिता का निधन उनके बाल्यकाल में ही हो गया था और उनका पालन-पोषण ननिहाल में हुआ. उनकी जीवन यात्रा में तमाम संघर्ष आये, किंतु उन्होंने सबका सामना करते हुए राष्ट्र की चेतना को ‘जन’ से परिचित करवाया तथा भारत के सांस्कृतिक गौरव की अनुभूति करवायी.
नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा देने के उपरांत जब डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जनसंघ की स्थापना की, तब दीनदयाल जी को उसका महामंत्री बनाया गया. वे लेखों एवं भाषणों में तत्कालीन सरकार की नीतियों पर कटाक्ष करते हुए उन्हें भारत के अनुकूल बनाने की सलाह देते थे. अप्रैल, 1965 में मुंबई के चार दिवसीय अधिवेशन चारों दिन दीनदयाल जी का भाषण हुआ था, जिनमें मानव कल्याण से राष्ट्र कल्याण के मार्ग निहित थे. उन भाषणों से एक विचार की उत्पत्ति हुई, जिसे हम एकात्म मानववाद के नाम से जानते हैं. एकात्म मानववाद मानव पर केंद्रित है तथा उसके संपूर्ण सुखों (शरीर, आत्मा, बुद्धि, मन) की बात करता है. यह भारत की संस्कृति का जीवन दर्शन है.
दीनदयाल जी ने डॉ मुखर्जी के साथ मिलकर देश को केवल राजनीतिक विकल्प ही नहीं दिया, बल्कि समाज को देश से जोड़ा, सत्ता का ध्यान समाज की तरफ आकृष्ट किया. सत्ता और राजनीति को सेवा का माध्यम बताया. उन्होंने देश को वैकल्पिक विचारधारा भी दी. उनकी प्रतिभा, राष्ट्र प्रेम और संगठनात्मक कौशल को देखकर डॉ मुखर्जी ने कहा था कि ‘यदि मुझे दो दीनदयाल मिल जायें. तो मैं भारतीय राजनीति का नक्शा बदल दूं.’ उनके विचारों को एक दल तक सीमित करना तर्कसंगत नहीं होगा. वे देश की उन्नति के लिए हैं. उनका त्याग और राजनीतिक शुचिता एक प्रेरणा की तरह है. आज भले राजनीति में शुचिता गौण है, लेकिन उनके राजनीतिक जीवन में शुचिता व सिद्धांत का स्थान सर्वोपरि रहा. एकमात्र चुनाव दीनदयाल जी ने जौनपुर से लड़ा था और जातिगत मतदान के कारण उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा.
सुरुचि प्रकाशन से प्रकाशित पंडित दीनदयाल उपाध्याय विचार दर्शन के खंड- सात (व्यक्ति-दर्शन) में इस चुनाव को लेकर एक रोचक बात है. जौनपुर में 1963 के उपचुनाव में कांग्रेस ने चुनाव को जातिवादी रंग दे दिया, तब जनसंघ के कार्यकताओं ने जातिवाद को लेकर मत मांगने की इच्छा जाहिर की. इस पर दीनदयाल जी तमतमा उठे और बोले, ‘सिद्धांत को बलि चढ़ाकर जातिवाद के सहारे मिलनेवाली विजय सच पूछो तो पराजय से भी बुरी है. ऐसी विजय हमें नहीं चाहिए.’ उनके जीवन में एक भी ऐसी घटना नजर नहीं आती, जहां उन्होंने अपने सिद्धांतों से समझौता किया हो.
उनके विचारों की मौलिकता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जो बात उन्होंने साठ और सत्तर के दशक में कही, वह आज भी उतनी ही प्रासंगिक नजर आती है. यह दूरदर्शिता उनके चिंतन में थी. वे राजनीतिक सुधारों की चिंता करते थे, देश के लिए उपयुक्त नीतियों के निर्माता थे. दीनदयाल जी भौतिक उपकरणों को मनुष्य के सुख का साधन मानते थे, साध्य नहीं. व्यक्ति के सर्वंगीण विकास के लिए- शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा- चारों का ध्यान रखने की बात करते हैं.
यह दर्शन मनुष्य को आत्मिक सुख देने की बात करता है, इसीलिए तो उन्होंने कहा कि एकात्म मानववाद के आधार पर ही हमें जीवन की सभी व्यवस्थाओं का विकास करना होगा. चार फरवरी, 1968 को उत्तर प्रदेश के बरेली में पंडित दीनदयाल जी का भाषण उनके जीवनकाल के अंतिम भाषण के रूप में दर्ज है. उसमें भी राष्ट्र के गौरव और व्यक्ति राष्ट्र के लिए काम करे, ऐसी प्रेरणा छुपी हुई है. उन्होंने कहा कि ‘राष्ट्र के गौरव में ही हमारा गौरव है. परंतु आदमी जब इस सामूहिक भाव को भूलकर अलग-अलग व्यक्तिगत धरातल पर सोचता है, तो उससे नुकसान होता है.
जब हम सामूहिक रूप से अपना-अपना काम करके राष्ट्र की चिंता करेंगे, तो सबकी व्यवस्था हो जायेगी. यह मूल बात है कि हम सामूहिक रूप से विचार करें, समाज के रूप में विचार करें, व्यक्ति के नाते से नहीं.’ आगे वे कहते हैं कि सदैव समाज का विचार करके काम करना चाहिए. अपने सामाजिक जीवन में दीनदयाल जी शुचिता और नैतिकता की सीमा थे. उन्होंने राजनीति में सिद्धांत और राष्ट्र सेवा को सर्वोपरि रखा. उनका जीवन केवल किसी दल विशेष के लिए नहीं, बल्कि देश के साथ सभी सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणादायक है.