एक खतरनाक चुनौती है ‘डीप फेक’
‘डीप फेक’ वीडियो के प्रसार को रोकने के लिए मीडिया साक्षरता और आलोचनात्मक सोच को पाठ्यक्रम में शामिल करने की आवश्यकता है ताकि जागरूकता को बढ़ावा दिया जा सके और लोगों को ‘फेक न्यूज’ से बचाने में मदद करने के लिए एक सक्रिय दृष्टिकोण का निर्माण किया जा सके.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल में ‘डीप फेक’ बनाने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआइ) के दुरुपयोग को चिह्नित करते हुए कहा कि मीडिया को इस संकट के बारे में लोगों को शिक्षित करना चाहिए. प्रधानमंत्री मोदी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर उनके वायरल वीडियो के बारे में चर्चा कर रहे थे, जिनमें वे गाना गाते और गरबा खेलते हुए दिख रहे हैं. असल में उस वीडियो में प्रधानमंत्री मोदी नहीं थे. यह एआइ द्वारा निर्मित एक ‘डीप फेक’ था. फोटो और वीडियो से छेड़छाड़ कर बने ‘डीप फेक’ वर्ष 2016 से ही चलन में हैं, लेकिन तब इनका ज्यादातर इस्तेमाल मजाक में होता था. लेकिन अब ‘लिप सिंक’ कर ‘डीप फेक’ बनने लगे हैं.
पांच साल पहले ऐसा करने के लिए बहुत से सारे इंटरनेट डाटा की जरूरत पड़ती थी, लेकिन अब एक-दो मिनट में कोई भी ‘डीप फेक’ बना सकता है. इसके लिए किसी खास तकनीकी कौशल की जरूरत भी नहीं है. लेंसा एआई, डीप फेक वेब, रिफेस, माई हेरिटेज और डीप फेस लैब जैसी सैकड़ों वेबसाइट और एप हैं, जहां कोई भी किसी का ‘डीप फेक’ बना सकता है. ऐसे में वे लोग ज्यादा खतरे में हैं, जिनकी तस्वीरें और वीडियो इंटरनेट पर बहुतायत में उपलब्ध हैं.
विडंबना है कि तकनीक ने एक तरफ हमारे जीवन को काफी आसान बनाया है, तो दूसरी तरफ कई स्तरों पर अराजकता भी पैदा कर दी है. सूचनाओं के संजाल में यह तय करना मुश्किल है कि क्या सही है, क्या गलत. इससे हमारे समाज के सामने एक नयी चुनौती पैदा हो गयी है. गलत सूचनाओं को पहचानना और उनसे निपटना आज के दौर के लिए एक बड़ा सबक है. ‘फेक न्यूज’ आज के समय का सच है. फेक न्यूज ज्यादातर भ्रमित करने वाली सूचनाएं होती हैं. अक्सर झूठे संदर्भ या गलत संबंधों को आधार बनाकर ऐसी सूचनाएं फैलायी जाती हैं. कुछ साल पहले, पत्रकारिता में एआइ के आगमन ने पत्रकारिता उद्योग में काफी उम्मीदें बढ़ायी थीं कि इससे समाचारों का वितरण नयी पीढ़ी में पहुंचेगा और पत्रकारिता जगत में क्रांतिकारी बदलाव होंगे.
उम्मीद तो यह भी जतायी जा रही थी कि एआइ से ‘फेक न्यूज’ और गलत सूचना के प्रसार को रोकने का एक प्रभावी तरीका भी मिल जायेगा, पर व्यवहार में इसके विपरीत हो रहा है. एक तरफ प्रौद्योगिकी ने आर्थिक और सामाजिक विकास किया है, तो दूसरी ओर ‘फेक न्यूज’ में काफी वृद्धि हुई है. लोकतांत्रिक राजनीति के लिए अड़चन पैदा करने में और चारित्रिक हत्या करने में इंटरनेट एक शक्तिशाली औजार के रूप में उभरा है. सरलतम रूप में एआइ को इस तरह से समझा जा सकता है कि उन चीजों को करने के लिए कंप्यूटर का उपयोग किया जाता है, जिनके लिए मानव बुद्धि की आवश्यकता होती है.
‘फेक न्यूज’ की समस्या को ‘डीप फेक’ ने और ज्यादा गंभीर बना दिया है. असल में ‘डीप फेक’ में एआइ एवं आधुनिक तकनीकों के इस्तेमाल के जरिये किसी वीडियो क्लिप या फोटो पर किसी और व्यक्ति का चेहरा लगाने का चलन तेजी से बढ़ा है. इसके जरिये कृत्रिम तरीके से ऐसे क्लिप या फोटो विकसित कर लिये जा रहे हैं, जो बिल्कुल वास्तविक लगते हैं. ‘डीप फेक’ एक अलग तरह की समस्या है. इसमें वीडियो सही होता है पर चेहरे, वातावरण या असली ऑडियो को बदल दिया जाता है और देखने वाले को इसका पता नहीं लगता कि वह ‘डीप फेक’ वीडियो देख रहा है.
एक बार ऐसे वीडियो जब किसी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर आ जाते हैं, तो उनकी प्रसार गति बहुत तेज हो जाती है. देश में जहां डिजिटल साक्षरता बहुत कम है, वहां ‘डीप फेक’ वीडियो समस्या को ज्यादा गंभीर करते हैं. हालांकि ऐसे वीडियो को पकड़ना आसान भी हो सकता है क्योंकि ऐसे वीडियो इंटरनेट पर मौजूद असली वीडियो से ही बनाये जा सकते हैं, पर ऐसा करने के लिए जिस धैर्य की जरूरत होती है, वह भारतीयों के पास वहाट्सएप मैसेज को फॉरवर्ड करने में नहीं दिखती. ऐसे में जब ‘फेक न्यूज’ वीडियो के रूप में मिलेगी, तो लोग उसे तुरंत आगे बढ़ाने में नहीं हिचकते.
‘डीप फेक’ बेहद पेचीदा तकनीक है. इसके लिए मशीन लर्निंग, यानी कंप्यूटर में दक्षता होनी चाहिए. ऐसा कंटेंट दो एल्गोरिदम का उपयोग कर बनाया जाता है, जो एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करती है. एक को डिकोडर कहते हैं और दूसरे को एनकोडर. इसमें फेक डिजिटल कंटेंट बनाता है और डिकोडर से यह पता लगाने के लिए कहता है कि कंटेंट असली है या नकली. हर बार डिकोडर कंटेंट को रियल या फेक के रूप में सही ढंग से पहचानता है, फिर वह उस जानकारी को एनकोडर को भेज देता है ताकि अगले ‘डीप फेक’ में गलतियां सुधार कर उसे और बेहतर किया जा सके. दोनों प्रक्रियाओं को मिलाकर जेनरेटिव एडवर्सरियल नेटवर्क (जीएनएन) बनाते हैं. एक बार ऐसे वीडियो जब सोशल मीडिया में आ जाते हैं, तो उनकी प्रसार गति बहुत तेज हो जाती है. इंटरनेट पर ऐसे करोड़ों ‘डीप फेक’ वीडियो मौजूद हैं. इस तकनीक की शुरुआत अश्लील कंटेंट बनाने से हुई. पोर्नोग्राफी में इस तकनीक का काफी इस्तेमाल होता है. अभिनेता और अभिनेत्री का चेहरा बदलकर अश्लील कंटेंट साइट पर पोस्ट किया जाता है.
डीपट्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, 2019 में ऑनलाइन पाये गये ‘डीप फेक’ वीडियो में 96 प्रतिशत अश्लील कंटेंट था. इस तकनीक का इस्तेमाल मनोरंजन के लिए भी किया जाता है. इन ‘डीप फेक’ वीडियो का मकसद देखने वालों को वह यकीन दिलाना होता है, जो हुआ ही नहीं है. ‘डीप फेक’ कंटेंट की पहचान करने के लिए कुछ खास चीजों पर ध्यान देना बेहद जरूरी है. सबसे पहले आती है चेहरे की स्थिति. अक्सर ‘डीप फेक’ तकनीक चेहरे और आंख की स्थिति में मात खा जाता है. इसमें पलकों का झपकना भी शामिल है. ऐसे में ‘डीप फेक’ वीडियो के प्रसार को रोकने के लिए मीडिया साक्षरता और आलोचनात्मक सोच को पाठ्यक्रम में शामिल करने की आवश्यकता है ताकि जागरूकता को बढ़ावा दिया जा सके और लोगों को ‘फेक न्यूज’ से बचाने में मदद करने के लिए एक सक्रिय दृष्टिकोण का निर्माण किया जा सके. ‘डीप फेक’ और ‘फेक न्यूज’ से सतर्क रहने के लिए हमें जटिल डिजिटल परिदृश्य वाले वर्तमान एवं भविष्य के लिए सभी उम्र के लोगों को तैयार करने में पूरे भारत में एक बहु-आयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है. इसमें एक अहम मुद्दा अपनी निजता को बचाये रखने का भी है. ‘डीप फेक’ का शिकार कोई भी कभी भी हो सकता है. अगर हम इस नजरिये से सोचेंगे, तो ‘डीप फेक’ की समस्या से लड़ने में आसानी होगी.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)