रक्षा आत्मनिर्भरता है लंबी प्रक्रिया
रक्षा आत्मनिर्भरता में हमें दीर्घकालिक लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ना होगा, तभी हम सकारात्मक परिणाम हासिल कर पायेंगे.
रक्षा विनिर्माण में आत्मनिर्भरता और घरेलू रक्षा उद्योगों को बढ़ावा देने की पहल निश्चित ही सराहनीय है. मेक इन इंडिया मुहिम के तहत अनेक तरह के काम हो रहे हैं. लेकिन, उच्च प्रौद्योगिकी के लिए अभी हमें लंबा सफर तय करना है. अभी हमारे रक्षा उद्योग की व्यवस्थित अवसंरचना तैयार नहीं हुई है. यह शुरुआती दौर में है. रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) या अन्य किसी संस्था द्वारा अभी ऐसा कोई विशेष रक्षा हथियार नहीं बनाया गया है, जिसे हम विश्वस्तरीय कह सकते हैं.
डीआरडीओ और रक्षा उद्योग को और बेहतर बनाने की आवश्यकता है, ताकि हथियारों और उपकरणों के लिए हमारी बाहरी देशों पर निर्भरता कम हो सके. टाटा, महिंद्रा और लार्सन एंड टुब्रो जैसे निजी क्षेत्र के बड़े समूह मेक इन इंडिया अभियान को सफल बना सकते हैं. सरकार की तरफ से कोशिश हो रही है कि विदेशी हथियार निर्माताओं के साथ भारतीय कंपनियों की साझेदारी में हथियारों और उपकरणों का विकास हो.
लेकिन, प्रश्न है कि आपको तकनीक कौन मुहैया करायेगा. दशकों पुराने एफ-16 की तकनीक मिल सकती है. लेकिन, हमें जरूरत है अत्याधुनिक तकनीक की. आपको स्टेट ऑफ द आर्ट टेक्नोलॉजी कौन देगा, इस पर विचार करना होगा. रक्षा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) बढ़ा है, साथ ही कहा गया है कि अगर तकनीक मिलती है, तो एफडीआई की सीमा को और बढ़ाया जायेगा. अभी तक रूस को छोड़कर किसी ने टेक्नोलॉजी नहीं दी है. लेकिन, रूस विश्वस्तरीय स्टेट ऑफ द आर्ट टेक्नोलॉजी नहीं बनाता. रूसी हथियार मजबूत और टिकाऊ होते हैं, लेकिन उसकी तकनीक उस स्तर की नहीं है, जो अमेरिका, इजरायल या अन्य यूरोपीय देशों के पास है.
अभी भारत-अमेरिका के बीच विस्तृत और रणनीतिक साझेदारी बनी है. अमेरिका ने घोषणा की है कि वे रक्षा क्षेत्र और उपकरण के लिए 500 मिलियन डॉलर देंगे. वे चाहते हैं कि हम रूस से हथियारों की खरीद बंद कर दें. यूक्रेन पर हमले के बाद यह दबाव और बढ़ा है. वे मेक इन इंडिया के लिए तैयार हैं, लेकिन टेक्नोलॉजी देने को तैयार नहीं हैं. वर्षों से अमेरिका ने टेक्नोलॉजी एनीशिएटिव के तहत भारत के लिए विशेष समूह बनाये हैं.
भारत-अमेरिका टेक्नोलॉजी एनीशिएटिव की बहुत बातें हुई हैं, लेकिन टेक्नोलॉजी ट्रांसफर नहीं हुआ. मेक इन इंडिया पहले से चल रहा है. रूस से जितना भी उपकरण आता है, वह भारत में असेंबल होता है. हालांकि, घरेलू स्तर पर कुछ अच्छी शुरुआत हुई है, लेकिन अधिकतर असेंबलिंग का ही काम हो रहा है.
रूस या अमेरिका से हम लड़ाकू विमान का इंजन लेते हैं. चार दशक से इसे बनाने की कोशिश हो रही है. साझा विकास और साझा उत्पादन दो बातें होती हैं. जैसे, रूस के साथ हमने ब्रह्मोस का साझा उत्पादन किया. अभी इजरायल के साथ हम हथियारों के साझा विकास और साझा उत्पादन के लिए आगे बढ़ रहे हैं. हथियार या उपकरण के रिसर्च और डेवलपमेंट का काम साझा तरीके से होना जरूरी है.
भारत सरकार ने कई तरह से सैन्य उपकरणों और हथियारों के आयात को प्रतिबंधित कर दिया है. सरकार का कहना है कि इनका उत्पादन घरेलू स्तर पर होगा. घरेलू स्तर पर रक्षा उद्योगों के विस्तार और शोध एवं विकास (आर एंड डी) का ढांचा तैयार किये बगैर विदेशी मुद्रा विनिमय को रोकने के लिए अगर आयात बंद किया जायेगा, तो हथियारों की गुणवत्ता प्रभावित तो होगी.
विश्वस्तरीय हथियारों के उत्पादन के लिए हमें रिसर्च एवं डेवलपमेंट पर विशेष तौर पर काम करना होगा. अभी तेजस लड़ाकू विमान को घरेलू स्तर पर विकसित किया गया है, लेकिन उसका इंजन आयातित है. नौसेना के पास अपनी औद्योगिक संरचना और आर एंड डी है. लेकिन, वायुसेना तथा थलसेना की विदेशी हथियारों पर निर्भरता अधिक है. हथियारों के आयात को पूरी तरह रोकने से हम सेकेंड क्लास हथियारों पर निर्भर हो जायेंगे. अभी से लेकर अगले 15-20 वर्षों तक घरेलू रक्षा उद्योग, डीआरडीओ को विकसित होने में समय लगेगा. अगर बाहर के देश टेक्नोलॉजी नहीं देंगे, तो रक्षा उत्पादन पर असर पड़ेगा.
रक्षा बजट को थोड़ा बढ़ाया गया है. लेकिन, आर एंड डी का बजट उम्मीद से काफी कम है. अगर इसका बजट 10 प्रतिशत भी नहीं होगा, तो अकादमिक शोध को बढ़ावा कैसे मिलेगा. आइआइटी और विश्वविद्यालयों में रिसर्च डेवलपमेंट के लिए हमारे पास बजट नहीं है. अगर आधुनिकीकरण करना है, तो पूंजी खर्च बढ़ाना ही होगा. इसके लिए सरकार को अन्य पहलुओं पर भी विचार करना होगा.
आर एंड डी का बजट बढ़ाने के सिवा कोई चारा नहीं है, अगर रक्षा उद्योग और विनिर्माण को विकसित करना है, यह करना ही होगा. सिविल इंडस्ट्री इस उद्योग में निवेश नहीं करना चाहती, क्योंकि बिना ऑर्डर के निवेश करने का औचित्य क्या है. मांग में वृद्धि होने पर ही निजी क्षेत्र रक्षा उद्योग में निवेश के लिए प्रोत्साहित होंगे. सिस्टम को तैयार करने की दिशा में अनेक अड़चनें हैं, लेकिन सरकार कोशिश कर रही है.
उसका आनेवाले वर्षों में सकारात्मक रुझान भी दिखेगा. रूस के अलावा अमेरिका, फ्रांस से हथियार और उपकरण आयात किये जाते हैं. इजरायल और जापान के साथ भी रक्षा व्यापार बढ़ रहा है. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी और जापान पर अमेरिका ने रक्षा बजट की पाबंदी डाल दी थी, लेकिन अब पाबंदी की सीमा हट रही है. जर्मनी अपना रक्षा बजट बढ़ा रहा है. जापान और जर्मनी हाइ टेक्नोलॉजी वाले देश हैं.
यूक्रेन युद्ध के बाद रूस की अर्थव्यवस्था और रक्षा उत्पादन प्रभावित होगा. ऐसे में जापान, जर्मनी जैसे नये विकल्पों की ओर देखना होगा. अमेरिका, फ्रांस और इजरायल से हथियारों की खरीद पर निर्भरता है, लेकिन इनकी कीमत रूसी हथियारों के मुकाबले 20 से 50 प्रतिशत तक अधिक है. रूस के साथ हम ट्रेड ऑन ट्रेड कर सकते थे, लेकिन इन देशों से फॉरेन एक्सचेंज में ही भुगतान करना पड़ेगा. अभी 15 से 20 वर्ष तक रूसी हथियारों पर हमारी निर्भरता बनी रहेगी. क्योंकि, हथियारों के कांट्रैक्ट और डिलीवरी में काफी समय लग जाता है. रक्षा आत्मनिर्भरता में हमें दीर्घकालिक लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ना होगा, तभी हम सकारात्मक परिणाम हासिल कर पायेंगे.