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एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री का अवसान, पढ़ें प्रभात खबर के प्रधान संपादक आशुतोष चतुर्वेदी का लेख

Prime Minister Manmohan Singh : मनमोहन सिंह 2004 से 2014 तक प्रधानमंत्री रहे. वे 1998 से 2004 तक विपक्ष के नेता भी थे. उन्होंने 1991 में नरसिम्हा राव सरकार में सीधे वित्त मंत्री के रूप में राजनीति के मैदान में कदम रखा था. उनके वित्त मंत्री बनने की कहानी दिलचस्प है.

Prime Minister Manmohan Singh : मनमोहन सिंह का जाना पूर्व प्रधानमंत्री का जाना तो है ही, एक जाने-माने अर्थशास्त्री का भी अवसान है. वे भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के जनक थे. मेरा मानना है कि कोई ऐसा शख्स, जो तीन दशकों तक राज्यसभा का सदस्य रहा हो, 10 साल तक देश का प्रधानमंत्री रहा हो, विपक्ष का नेता रहा हो, देश का वित्त मंत्री रहा हो और जो देश की अर्थव्यवस्था को नेहरूवादी मॉडल से उदारीकरण की दिशा में ले गया हो, उसके बारे में विस्तृत विमर्श की जरूरत है. जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे, तब उनके साथ अनेक विदेश यात्राओं का मुझे अनुभव रहा है, जिनमें रूस में आयोजित जी-20, ईरान में आयोजित गुटनिरपेक्ष सम्मेलन, ब्रुनई में आयोजित आसियान सम्मेलन, जर्मनी में आयोजित द्विपक्षीय वार्ता प्रमुख हैं. इस दौरान वे पत्रकारों से बातचीत का अवसर अवश्य निकालते थे, लेकिन यह बातचीत सीमित और विषय के बारे में ही होती थी. उनके दो मीडिया सलाहकार डॉक्टर संजय बारू और पंकज पचौरी अपने पत्रकारिता जगत के साथी व मित्र रहे हैं. पंकज पचौरी तो अपने सहपाठी भी रहे हैं. मैंने पाया कि विदेशों में एक अर्थशास्त्री के रूप में उनकी ख्याति थी. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने तो कई बार सार्वजनिक मंचों से मनमोहन सिंह की एक अर्थशास्त्री के रूप में तारीफ की थी.

मनमोहन सिंह 10 साल प्रधानमंत्री रहे

मनमोहन सिंह 2004 से 2014 तक प्रधानमंत्री रहे. वे 1998 से 2004 तक विपक्ष के नेता भी थे. उन्होंने 1991 में नरसिम्हा राव सरकार में सीधे वित्त मंत्री के रूप में राजनीति के मैदान में कदम रखा था. उनके वित्त मंत्री बनने की कहानी दिलचस्प है. विनय सीतापति अपनी किताब ‘हाऊ पीवी नरसिम्हा राव ट्रांसफॉर्म्ड इंडिया’ में लिखते हैं कि 1991 में नरसिम्हा राव रिटायरमेंट मोड में चले गये थे, लेकिन 21 मई, 1991 को श्रीपेरंबदूर में राजीव गांधी की हत्या हो गयी. उसके कुछ दिनों बाद सोनिया गांधी ने इंदिरा गांधी के पूर्व प्रधान सचिव पीएन हक्सर को बुलाया और उनसे पूछा कि कांग्रेस की ओर से प्रधानमंत्री पद के लिए कौन सबसे उपयुक्त व्यक्ति हो सकता है. हक्सर ने तत्कालीन उपराष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा का नाम सुझाया, लेकिन वे तैयार नहीं हुए. इसके बाद नरसिम्हा राव का नाम सुझाया गया और वे प्रधानमंत्री बन गये.

पीसी एलेक्जेंडर ने वित्तमंत्री के लिए सुझाया था मनमोहन सिंह का नाम

विनय सीतापति का कहना है कि नरसिम्हा राव अनेक मंत्रालयों के काम में दक्ष थे, लेकिन वित्तीय मामलों में उनका हाथ तंग था. पीसी एलेक्जेंडर उनके करीबी थे. नरसिम्हा राव ने एलेक्जेंडर से कहा कि वह एक ऐसे शख्स को वित्त मंत्री बनाने चाहते हैं, जिसे आर्थिक मामलों की गहरी समझ हो. एलेक्जेंडर ने उन्हें आइजी पटेल का नाम सुझाया, जो रिजर्व बैंक के गवर्नर रह चुके थे और उस दौरान लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के निदेशक थे, लेकिन पटेल ने यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया. इसके बाद एलेक्जेंडर ने मनमोहन सिंह का नाम सुझाया. शपथ ग्रहण समारोह से एक दिन पहले, 20 जून को एलेक्जेंडर ने मनमोहन सिंह को फोन किया. उस समय मनमोहन सिंह सो रहे थे, क्योंकि वह सुबह ही विदेश यात्रा से वापस लौटे थे. उन्हें जगा कर बताया गया कि वह भारत के अगले वित्त मंत्री होंगे.

मनमोहन सिंह को भरोसा नहीं हुआ और वह अगले दिन सुबह रोजाना की तरह यूजीसी के दफ्तर पहुंच गये. तब उनके पास नरसिम्हा राव का फोन आया कि आप कहां हैं, 12 बजे शपथ ग्रहण समारोह है, आप तुरंत आइए.वित्त मंत्री के रूप में नरसिम्हा राव ने मनमोहन सिंह को खुली छूट दी और उन्होंने आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत की. उन्होंने आयात-निर्यात व्यवस्था को सरल किया और निजी पूंजी निवेश को प्रोत्साहित किया. इस दौरान आर्थिक नीतियों को लेकर मनमोहन सिंह लगातार निशाने पर रहे, लेकिन जल्द ही उदारीकरण के बेहतर परिणाम सामने आने लगे. देश के आर्थिक इतिहास में इतने साहसिक और निर्णायक कदम किसी वित्त मंत्री ने नहीं उठाये.

डॉक्टर संजय बारू ने ‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ किताब लिखी

सोशल मीडिया पर मनमोहन सिंह को मौन प्रधानमंत्री, मौनी बाबा, मौन मोहन जैसे विशेषणों से खूब ट्रोल भी किया गया है. इसमें आंशिक सच्चाई भी है. प्रधानमंत्री के रूप में उनके अच्छे कार्य दब गये और उनकी ही पार्टी कांग्रेस ने उन्हें श्रेय नहीं लेने दिया. घोटालों और विवादों ने उनके कार्यकाल पर ग्रहण लगा दिया. खासकर उनके दूसरे कार्यकाल के दौरान कांग्रेसी मंत्री अनियंत्रित थे. कांग्रेसी नेताओं ने उनकी सज्जनता का बेजा फायदा उठाया. सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद सुपर कैबिनेट की तरह काम करती थी और सभी सामाजिक सुधारों के कार्यक्रमों की पहल करने का श्रेय उसे ही दिया जाता था. मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे डॉक्टर संजय बारू ने उन पर एक किताब, ‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ लिखी है. संजय बारू का मानना है कि हालांकि सोनिया गांधी उनसे बहुत आदर से पेश आती थीं, लेकिन मनमोहन सिंह ने मान लिया था कि पार्टी अध्यक्ष का पद प्रधानमंत्री के पद से महत्वपूर्ण है. प्रधानमंत्री को इस बात की छूट नहीं थी कि वे अपने मंत्रियों का खुद चयन करें. संजय बारू ने एक दिलचस्प वाकये का जिक्र किया था. मंत्रिमंडल में फेरबदल होना था. राष्ट्रपति को मंत्रियों के नाम भेजे जाने से ठीक पहले सोनिया गांधी का नामों में परिवर्तन का संदेश आया. लिस्ट टाइप करने का समय नहीं था, इसलिए मूल लिस्ट में एक नाम पर व्हाइटनर लगा कर दूसरा नाम लिख दिया गया. आंध्र प्रदेश से सांसद एस रेड्डी को शपथ दिलायी गयी और हरीश रावत का नाम अंतिम क्षणों में काट दिया गया. नतीजा यह निकला कि प्रधानमंत्री पद का रुतबा समाप्त हो गया. रही-सही कसर राहुल गांधी ने पूरी कर दी थी. सितंबर, 2013 में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान उन्होंने आपराधिक छवि वाले नेताओं से संबंधित अपनी ही सरकार के एक अध्यादेश की प्रति को फाड़ दिया था.

लोकसभा का चुनाव लड़ा, लेकिन हार गये थे

मनमोहन सिंह भाषण देने में झिझकते थे. उन्हें हिंदी पढ़नी नहीं आती थी और वह अपने भाषण या तो गुरमुखी में लिखते थे या उर्दू में. कुछ समय पहले मनमोहन सिंह ने एक सार्वजनिक समारोह में खुद पर चुटकी लेते हुए कहा था कि वह सिर्फ एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर नहीं, एक्सीडेंटल वित्त मंत्री भी थे. मनमोहन सिंह 1991 में पहली बार असम से राज्यसभा सांसद चुने गये थे. इसके बाद से वे लगातार पांच बार असम से राज्यसभा के लिए चुने जाते रहे. इस बीच एक बार मनमोहन सिंह ने लोकसभा का चुनाव भी लड़ा, लेकिन हार गये थे. वे विनम्रता की प्रतिमूर्ति थे. उदारीकरण की नींव उन्होंने रखी, जिसका आज हम देशवासी लाभ उठा रहे हैं. भारतीय अर्थव्यवस्था में उनका योगदान अविस्मरणीय है.

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