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जरूरी है सर्वाधिक वंचितों का विकास

अभी तक वंचित समुदायों में उन जातियों और जनजातियों को अधिक लाभ पहुंचा है, जिनकी संख्या अधिक है, जिनमें बुद्धिजीवी अधिक हैं. इसके ऐतिहासिक कारण हैं. स्वतंत्रता की लड़ाई में भी ऐसी जातियों का योगदान रहा है.

By प्रो बद्री | August 15, 2024 9:05 AM

Development of deprived: तंत्र भारत में बीते साढ़े सात दशकों में वंचित समुदायों की सामाजिक गतिशीलता में उत्तरोत्तर बढ़ोतरी हुई है. उनमें राजनीतिक जागरूकता भी बढ़ी है तथा लोकतांत्रिक और सामाजिक क्षमता का वितरण हुआ है. लेकिन यह वितरण समुचित और अपेक्षित नहीं है. हाल में सर्वोच्च न्यायालय की एक संविधान पीठ ने अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए वर्तमान आरक्षण व्यवस्था में उप-वर्गीकरण की बात कही है. इस पर बहस चल रही है. इस व्यवस्था में उन्हीं लोगों को अधिक लाभ होगा, जिनमें प्रतिस्पर्धा की क्षमता तुलनात्मक रूप से अधिक होगी. उन्हीं लोगों में आकांक्षा और आकांक्षा को पूरा करने की क्षमता भी अधिक होगी. इसे प्रतिनिधित्व की राजनीति कहा जाता है.

अभी तक वंचित समुदायों में उन जातियों और जनजातियों को अधिक लाभ पहुंचा है, जिनकी संख्या अधिक है, जिनमें बुद्धिजीवी अधिक हैं. इसके ऐतिहासिक कारण हैं. स्वतंत्रता की लड़ाई में भी ऐसी जातियों का योगदान रहा है. यह स्थिति अन्य पिछड़ा वर्ग में भी है. उसी समय से अनेक जातियों में नेताओं के उभरने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी. स्वतंत्रता के बाद जैसे जैसे नयी व्यवस्थाएं आयीं, लोकतांत्रिक प्रक्रिया आगे बढ़ी, उन्होंने उसका अधिक लाभ उठाया क्योंकि उनमें शक्ति थी.


दूसरी तरफ कई समुदायों में आकांक्षा की क्षमता अपेक्षित गति से नहीं पनप सकी या नहीं पनपी. इस वजह से वे समुदाय पीछे रह गये हैं. उन्हें आगे कैसे लाया जाए और आरक्षण जैसी व्यवस्थाओं का लाभ उन तक कैसे पहुंचाया जाए, यह आज एक बड़ी चुनौती है. इसके समाधान का एक रास्ता तो यह है कि सर्वोच्च न्यायालय के सुझाव पर सहमति बने या उस पर गंभीरता से विचार किया जाए. लेकिन राजनीतिक वर्ग के अपने समीकरण होते हैं. वे वोट बैंक के हिसाब से चलते हैं. अगर नैतिक राजनीतिक वर्ग होगा, तो वह वंचितों में सबसे वंचित के बारे में भी सोचेगा. जैसे गांधी जी भी अंतिम व्यक्ति की बात करते थे. सामाजिक पंक्ति में एक के बाद एक व्यक्ति खड़ा है, उसके बाद भी कोई है. तो, नैतिक मानसिकता तो यही होनी चाहिए कि सबसे वंचित का भी ध्यान रखा जाए. निश्चित रूप से बीते साढ़े सात दशकों में सामाजिक गतिशीलता बढ़ी और लोकतांत्रिक पैठ गहरे तक हुई है, पर इसमें निरंतरता होनी चाहिए और यह प्रवाह नीचे से नीचे तक जाना चाहिए. यह केवल आरक्षण या राजनीतिक प्रतिनिधित्व से नहीं होगा. इसके लिए उन समुदायों का आर्थिक सशक्तीकरण भी आवश्यक है.


समय-समय पर जो कल्याण कार्यक्रम या नीतिगत पहलें होती रहती हैं, जैसे अन्न योजना, पोषण योजना, वित्त उपलब्धता आदि, उनसे भी वंचितों की गतिशीलता को बड़ी मदद मिलती है. अगर कोई वंचित कुछ सक्षम होगा, तभी वह आरक्षण का फायदा उठा सकेगा. धीरे-धीरे उसके भोजन की समस्या दूर होती है, कुछ बचत कर पाता है, फिर अपने बच्चे को स्कूल भेजता है, जो रोजगार के लिए फिर स्पर्धा कर पाता है. आगे के विकास के लिए यह आवश्यक है कि ऐसे राजनीतिक वर्गों का उभार हो, जो अपने से अधिक दूसरों के बारे में सोचे. लेकिन हमने देखा कि सर्वोच्च न्यायालय के सुझाव पर किस तरह की प्रतिक्रियाएं राजनीतिक क्षेत्र से आयीं. आरक्षित वर्गों में जो वर्चस्वशाली जातियों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, उन्होंने तुरंत उप-वर्गीकरण के सुझाव को खारिज कर दिया. जो वर्ग बहुत अधिक वंचना से ग्रस्त हैं, उनके पास ऐसा नेतृत्व नहीं है और न ही बड़ी संख्या है कि वे अपनी आवाज प्रभावी ढंग से उठा सकें. आप टीवी की बहसें देख लें, अखबारों की टिप्पणियां देख लें, उनकी ओर से बोलने वाला ही कोई नहीं है.


सामाजिक गतिशीलता की दृष्टि से देखें, तो दक्षिण भारत और उत्तर भारत की स्थिति में कुछ अंतर दिखाई देता है. इसी तरह महानगरों और गांवों-कस्बों का फर्क भी है. दक्षिण भारत में बहुत सी वंचित जातियां आगे बढ़ने की आकांक्षा रखने लगी हैं. उनमें राजनीतिक जागरूकता भी बढ़ी है. इसलिए वे अपने हितों और अधिकारों के लिए आवाज उठाने लगी हैं. जैसा मैंने पहले कहा, उत्तर भारत में कई समुदाय हैं, जिनके पास राजनीतिक नेतृत्व और बौद्धिक लोग नहीं हैं. इसलिए हमें उनकी आवाज सुनाई नहीं देती है. रही बात गांव और शहर की, तो जो लोग शहरों का रुख कर लेते हैं, उन्हें पढ़ाई-लिखाई से लेकर कमाई के अधिक अवसर मिलने लगते हैं, जो गांवों या कस्बों में उपलब्ध नहीं होते. इससे उनका सशक्तीकरण तुलनात्मक रूप से अधिक होता है. हमारे देश में नगरीकरण की प्रक्रिया में कुछ समय से बड़ी तेजी आयी है. तकनीक और संसाधनों का विस्तार भी होता जा रहा है. इससे राजनीतिक चेतना भी बढ़ती है. बाबा साहेब अंबेडकर कहा करते थे कि मुक्ति के लिए पलायन करना आवश्यक है. लेकिन कांशीराम का कहना था कि प्रवासन होगा, तब भी जाति रहेगी क्योंकि गांव से शहर जाने वाले अपने साथ जाति रूपी पूंछ भी लेकर जाते हैं. वंचित सामाजिक वर्गों की गतिशीलता तथा उनका उत्थान भारत के विकास का महत्वपूर्ण आधार है. (बातचीत पर आधारित)
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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