गांवों के सर्वांगीण विकास की जरूरत
प्रधानमंत्री गरीब कल्याण रोजगार अभियान की सफलता के मद्देनजर इस अभियान को आगे जारी रखने और सभी जिलों में ले जाने की जरूरत है.
डॉ. अश्विनी महाजन, एसोसिएट प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय ashwanimahajan@rediffmail.com
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 20 जून को प्रधानमंत्री गरीब कल्याण रोजगार अभियान नामक विशेष योजना शुरू की थी. इसका उद्देश्य अपने गांवों में वापस पहुंचे प्रवासी मजदूरों की मदद करना और उन्हें रोजगार मुहैया कराना था. यह अभियान प्रवासी मजदूरों की वापसी से सर्वाधिक प्रभावित छह राज्यों के 116 जिलों में मिशन मोड में चलाया गया और इसमें 50 हजार करोड़ रुपये की धनराशि खर्च करने का लक्ष्य रखा गया. इसमें 25 कार्य प्रमुख रूप से चुने गये. इस अभियान के कार्यान्वयन को ग्रामीण विकास, पंचायती राज, सड़क परिवहन, रेलवे, रक्षा मंत्रालय, दूरसंचार विभाग, नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा विभाग, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय, खनन मंत्रालय समेत 12 सरकारी विभागों के साथ जोड़ा गया. इस योजना के 16 हफ्तों की उपलब्धियों का लेखा-जोखा सामने आ गया है.
एक सरकारी प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार इस दौरान 1.37 लाख जल संरक्षण ढांचे, 4.31 लाख ग्रामीण आवास, 38, 287 हजार पशु शेड्स, 26.5 हजार तालाब, 18 हजार शौचालय परिसरों के अलावा 2,123 ग्राम पंचायतों में इंटरनेट की सुविधा के साथ अन्य कई कार्य इतने कम समय में हुए हैं, जो 33 करोड़ श्रम दिवसों के लिए रोजगार प्रदान करते हुए पूरे हुए हैं. इस योजना पर 33,114 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं. कोरोना काल में लाॅकडाउन के कारण बेरोजगार हुए मजदूरों ने गांवों का रुख कर लिया था और उन्हें स्वभाविक रूप से सरकारी सहयोग की जरूरत थी.
ऐसे में सरकार ने 80 करोड़ लोगों को कम से कम छह महीने तक 10 किलो अनाज हर माह उपलब्ध कराने की योजना को कार्यरूप तो दिया, लेकिन गांव पहुंचे मजदूरों के लिए लाभकारी रोजगार अभी भी समस्या बनी हुई थी. इस बीच इन मजदूरों की विस्तृत जानकारी सरकार रेल विभाग, क्वारंटीन केंद्रों एवं अन्य माध्यमों से जुटा चुकी थी. इस कारण सरकार को यह ध्यान में आया कि इन्हें गांवों के निकट लाभकारी ढंग से रोजगार प्रदान करते हुए गांवों के विकास को भी गति दी जा सकती है. वास्तव में कोरोना काल की आपदा को अवसर में बदलने के उद्देश्य से सरकार ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण रोजगार अभियान की शुरुआत की.
यह पहला अवसर नहीं था कि सरकार द्वारा ऐसी योजना बनी हो. बीते लगभग 50 वर्षों से ग्रामीण बेरोजगारी उन्मूलन कार्यक्रम चल रहे हैं. मनरेगा कार्यक्रम के माध्यम से ग्रामीण रोजगार दिया जा रहा है. वर्ष 2019-20 में 66, 863 करोड़ रुपये के खर्च के साथ 259 करोड़ मानव दिवसों का रोजगार मनरेगा में दिया गया था. लेकिन इससे ग्रामीण विकास के कुछ निश्चित कार्य ही होते हैं.
यह केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा संचालित होता है और इसमें किसी और मंत्रालय का संबंध नहीं होता, लेकिन नये रोजगार अभियान में बड़ी संख्या में योजनाओं को शामिल किया गया है और इसके साथ 12 मंत्रालयों व विभागों को शामिल किया गया है. मनरेगा में सिर्फ अकुशल मजदूरों को ही रोजगार गारंटी द्वारा रोजगार मिलता है और उनको कुछ न्यूनतम दिनों के लिए न्यूनतम मजदूरी की व्यवस्था है, पर प्रधानमंत्री गरीब कल्याण रोजगार अभियान में कुशल और अकुशल सभी मजदूरों को शामिल किया गया है.
विविध प्रकार के कार्य भी इसमें शामिल किये गये हैं. ग्रामीण आवासों, तालाबों, सोलर संयत्रों, कम्युनिटी सैनेटाइजेशन काॅम्पलेक्सों, ग्राम पंचायत भवन, नेशलन हाइवे वर्क्स, जल संरक्षण और सिंचाई, आंगनबाड़ी केंद्र, ग्राम सड़क योजना के साथ-साथ ग्राम पंचायतों को इंटरनेट से जोड़ने तक विभिन्न कार्यक्रमों को अंजाम दिया गया. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रूरबन मिशन को इसके साथ जोड़ा गया है. इसमें विविध प्रकार के कौशल का उपयोग हुआ है और इस कार्य में विभिन्न प्रकार के विभागों और मंत्रालयों का समन्वय हुआ है.
स्वतंत्रता के बाद से अब तक आती-जाती सरकारों ने कभी भी सर्वांगीण ग्रामीण विकास का विचार ही नहीं किया. प्रारंभ से ही हमारे अधिकतर अर्थशास्त्री यही कहते रहे कि दुनिया भर में आर्थिक विकास का अनुभव यह रहा है कि शहरीकरण से ही विकास संभव हो सकता है. इसलिए सही नीति यह है कि गांवों से लोगों को शहरों में भेजा जाए. उनका कहना यह रहा है कि कृषि में उत्पादकता में वृद्धि की संभावनाएं अत्यंत कम होती हैं, इसलिए यदि ग्रामीणों को शहरों में लाकर बसाया जाए, तो उन्हें बेहतर व्यवसायों में लगाकर आर्थिक विकास को गति दी जा सकती है.
संभव है कि इन अर्थशास्त्रियों का हेतु यह रहा हो कि देश में तेजी से आर्थिक विकास के लिए औद्योगीकरण जरूरी है, लेकिन इससे यह अभिप्राय तो नहीं हो सकता कि गांवों का सर्वांगीण विकास न किया जाए अथवा वहां रहनेवाले लोगों के जीवन में सुधार न हो. शहर जहां आज भी जनसंख्या का मात्र 30 प्रतिशत हिस्सा ही बसता है, वहीं पर स्कूल, काॅलेज, विश्वविद्यालय, बड़े अस्पताल, मनोरंजन के तमाम साधन केंद्रित हैं. गांव में बसनेवाले 70 प्रतिशत लोगों के लिए रोजगार के साधनों का ही अभाव नहीं है, बल्कि उनके लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, सफाई, आदि की भी कमी है. वर्ष 2014 तक 63 प्रतिशत कृषि भूमि वर्षा पर ही निर्भर थी.
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने यह अवधारणा दी थी कि गांवों में शहरों जैसी सुविधाओं (प्रोविजन आॅफ अर्बन अमनेटीज इन रूरल एरियाज को ‘पूरा’ का नाम दिया गया) को उपलब्ध कराया जाये. वर्ष 2004 से अधमने ढंग से यह योजना चलती रही. वर्ष 2016 से शुरू हुआ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रुरबन मिशन उसी योजना का परिवर्दि्धत रूप है.
हालांकि प्रारंभ में प्रधानमंत्री गरीब कल्याण रोजगार अभियान को मात्र 125 दिनों के लिए ही प्रवासी मजदूरों को रोजगार दिलाने की दृष्टि से लागू किया गया था और उसका 16 हफ्तों का रिपोर्ट कार्ड भी प्रकाशित हो चुका है, लेकिन इस अभियान की अभूतपूर्व सफलता और उसके कारण ग्रामीण क्षेत्रों में आ रहे बदलाव के मद्देनजर इस अभियान को न केवल आगे जारी रखने की जरूरत है, बल्कि इसे गांवों के सर्वांगीण विकास की दृष्टि से देश के सभी जिलों में ले जाने की जरूरत है.
इससे न केवल एपीजे अब्दुल कलाम का ‘पूरा’ का स्वप्न पूर्ण हो सकेगा, बल्कि गांवों में रोजगार और आय के सृजन को भी कार्यरूप दिया जा सकेगा. गांवों और शहरों में असमानताएं कम होंगी और मजदूरों का शहरों की ओर पलायन भी थमेगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)