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बाबू देवकीनंदन खत्री का तिलिस्म बरकरार है

बताते हैं कि नौगढ़ व विजयगढ़ आदि के प्राचीन गढ़ों व किलों में घूमते हुए ही उनके मस्तिष्क में तिलिस्मी उपन्यास लिखने का विचार आया. फिर उन्होंने कलम उठा ली तो उठा ली.

‘चंद्रकांता’ के रूप में हिंदी का पहला तिलिस्मी उपन्यास देने वाले बाबू देवकीनंदन खत्री इस अर्थ में बेमिसाल हैं कि हिंदी अब तक उनका जोड़ नहीं पैदा कर पायी है, तो ‘चंद्रकांता’ भी इस लिहाज से अपना सानी नहीं रखता कि वह हिंदी का अकेला ऐसा उपन्यास है, जिसे पढ़ने के लिए अनेक गैरहिंदीभाषियों ने हिंदी सीखी. वे 1861 में 18 जून को बिहार में समस्तीपुर के निकट स्थित कल्याणपुर प्रखंड के मालीनगर गांव में अपने ननिहाल में पैदा हुए थे. उनकी मां गोविंदी उक्त गांव के जीवनलाल मेहता की बेटी थीं और पिता लाला ईश्वरदास घरजमाई थे. देवकीनंदन किशोरावस्था तक शिक्षा-दीक्षा आदि के सिलसिले में समस्तीपुर, पूसा और मुजफ्फरपुर वगैरह आते-जाते व रहते रहे. बाद में नाना की मृत्यु के उपरांत परिजनों के साथ पहले गया के टेकारी, फिर वाराणसी के लाहौरी टोला में जा बसे. वाराणसी में लाहौरी टोला अब अस्तित्व में नहीं है. मालीनगर में उनके नाना के देहांत के बाद उनकी वारिस ने सब कुछ बेच दिया. अब वहां न देवकीनंदन की कोई विरासत शेष है.

देवकीनंदन की कालजयी ख्याति अभी भी कभी-कभार देश-विदेश में फैले उनके प्रशंसकों, शोधार्थियों, जिज्ञासुओं व साहित्यकारों को बरबस उनकी जन्मभूमि की ओर खींच लाती है. गांव की युवा पीढ़ी टीवी सीरियलों आदि के जरिये उसके ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ जैसे उपन्यासों से परिचित भी है, तो उसे यह नहीं मालूम कि उनके सर्जक ने यहीं जन्म लिया था. बहरहाल, उन दिनों की जरूरत और परंपरा के अनुसार देवकीनंदन की शुरुआती शिक्षा उर्दू व फारसी में हुई थी. बाद में उन्होंने हिंदी, संस्कृत एवं अंग्रेजी का भी अध्ययन किया.

जब वे ‘चंद्रकांता’ लिखने चले, तो कई लोगों ने उन्हें सुझाया कि वे उसे हिंदी के बजाय उर्दू या फारसी में लिखें, ताकि बड़ी संख्या में पाठक मिलें. हिंदी में तो फिलहाल, तोता-मैना, शीत-वसंत, राजा भरथरी आदि के किस्से ही पढ़े जाते हैं. ‘चंद्रकांता’ इतना रोचक सिद्ध हुआ कि यह भी कहा जाने लगा कि हिंदी के जितने पाठक उन्होंने बनाये, किसी और साहित्यकार ने नहीं बनाये.

उनके उपन्यासों की लोकप्रियता के पीछे उनका तिलिस्मी ताना-बाना ही नहीं, उनकी भाषा की सहजता भी है. वे स्वयं कह गये हैं कि उन्होंने भाषा की गरिमा, सम्मान और शुचिता से समझौता किये बिना उसे अपने पाठकों के लिए सहज बनाया. उनकी मान्यता थी कि किसी विशिष्ट रचना को पढ़ते समय शब्दकोश की मदद लेने की जरूरत पड़े तो पड़े, लेकिन उपन्यास पढ़ते वक्त शब्दकोश की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए. जितने तिलिस्मी उनके उपन्यास हैं, उतना ही तिलिस्मी उनका जीवन और उपन्यासकार बनने की प्रक्रिया भी है.

हिंदी के ज्यादातर लेखकों के विपरीत उन्होंने कभी गरीबी का त्रास नहीं झेला. उनके कई पूर्वज मुगलों के वक्त से ही ऊंचे पदों पर आसीन होते आये थे, जिससे घर में संपन्नता का वास था. वे खुद भी गया जिले की टेकारी रियासत में दीवान बन गये थे. काशीनरेश ईश्वरीप्रसाद नारायण सिंह से अच्छे संबंधों की बिना पर चकिया, नौगढ़ व विजयगढ़ के जंगलों में कटान के ठेके मिल गये थे.

ठेकेदारी करते हुए उन्हें ऐसी धुन सवार हुई कि वे कई-कई दिनों तक जंगलों, बीहड़ों, पहाड़ियों और प्राचीन ऐतिहासिक इमारतों के खंडहरों की खाक छानते रहते. यायावरी का शौक तो खैर उन्हें छुटपन से ही था. बताते हैं कि नौगढ़ व विजयगढ़ आदि के प्राचीन गढ़ों व किलों में घूमते हुए ही उनके मस्तिष्क में तिलिस्मी उपन्यास लिखने का विचार आया. फिर उन्होंने कलम उठा ली तो उठा ली. थोड़े ही अभ्यास के बाद अपने घुमक्कड़ी के अनुभवों व कल्पनाओं के सहारे एक के बाद एक अद्भुत तिलिस्मी उपन्यास लिखने लगे, करिश्माई व रहस्य रोमांच से भरे.

कई उपन्यासों के पात्रों के नाम उन्होंने अपने मित्रों के नाम पर रखे. वर्ष 1888 में ‘चंद्रकांता’ प्रकाशित हुआ, तो उसे हिंदी में थ्रिलर साहित्य के आगाज के तौर पर देखा गया. अनंतर, उन्होंने ‘चंद्रकांता संतति’, ‘काजर की कोठरी’, ‘नरेंद्र मोहिनी’, ‘कुसुम कुमारी’, ‘वीरेंद्र वीर’, ‘गुप्त गोदना’ तथा ‘कटोरा भर’ जैसे उपन्यास भी लिखे.

उपन्यास लेखन में संभावनाएं देखकर उन्होंने जंगलों के ठेके से अवकाश लेकर वाराणसी के रामकटोरा मुहल्ले में ‘लहरी’ नामक प्रेस स्थापित किया और वहां से न सिर्फ अपने उपन्यासों, बल्कि कई वर्षों तक ‘सुदर्शन’ नामक पत्र का भी प्रकाशन किया. एक अगस्त, 1913 को 53 वर्ष की उम्र में वाराणसी में अचानक आयी मौत ने उन्हें अपने आखिरी उपन्यास ‘भूतनाथ’ को पूरा करने का अवसर नहीं दिया, तो उसे उनके बेटे दुर्गाप्रसाद खत्री ने पूरा किया.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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