धर्मपाल गुलाटी : एक संत उद्यमी का अवसान
महाशय जी के जीवन में संपूर्णता के तत्व मिलते है़ं आप यदि महाशय जी के जीवन का गहराई से अध्ययन करेंगे, तो पायेंगे कि सफलता के लिए निरंतर मेहनत करनी पड़ती है़
विवेक शुक्ला, वरिष्ठ पत्रकार
vivekshukladelhi@gmail.com
महाशय धर्मपाल गुलाटी को सारा देश एमडीएच वाले बाबा जी के नाम से जानता था़ इसकी वजह यह थी कि वे अपनी कंपनी महाशय दी हट्टी (एमडीएच) के एक मात्र ब्रांड एंबेसेडर के रूप में अखबारों, टीवी चैनलों आदि में प्रतिदिन बार-बार प्रकट होते रहते थे़ एक तरह से वे भारत की किसी कंपनी के पहले स्वामी या सीइओ थे, जो अपनी कंपनी के ब्रांड एंबेसेडर बने़ यह उनका अपना फैसला था़ उनका मानना था कि जब वे अपने संभावित ग्राहकों से मुखातिब होंगे, तो वे उनके उत्पादों पर भरोसा करेंगे़ उनकी सोच सही साबित हुई़ सिर्फ डेढ़ हजार रुपए से शुरू हुए एमडीएच का सालाना कारोबार आज की तारीख में दो हजार करोड़ रुपए का है़ एमडीएच के मसाले अमेरिका, कनाडा, जापान, ब्रिटेन, यूरोप समेत अनेक देशों में निर्यात किये जाते है़ं उनके निधन से देश ने एक संत किस्म के उद्यमी को खो दिया है़ वे 98 साल के थे़ उन्होंने भरपूर जीवन जिया़
अपना बिजनेस शुरू करने का इरादा रखने वाला कोई भी नौजवान चाहे तो मात्र पांचवीं पास महाशय जी के जीवन, संघर्षो और सफलताओं से प्रेरणा ले सकता है़ उनके जीवन में संपूर्णता के तत्व मिलते है़ं यदि आप महाशय जी के जीवन का गहराई से अध्ययन करेंगे, तो पायेंगे कि सफलता के लिए निंरतर मेहनत करनी पड़ती है़ इसका शॉर्टकट कहीं नहीं है़ महाशय जी ने जीवन के अंतिम समय तक मेहनत की़ वे रोज अपनी फैक्ट्रियों में जाकर सारी व्यवस्था पर नजर रखते थे़ छोटे से छोटे कर्मी से बात करते थे़ उनके सुख-दुख से खुद को जोड़ते थे़ दरअसल, देश के विभाजन ने पंजाब के लाखों परिवारों को विस्थापित कर दिया था़ विस्थापन का दंश झेल रहे ये परिवार देश के छोटे-बड़े शहरों में आकर रहने लगे़ इन्हीं में से एक महाशय धर्मपाल गुलाटी का परिवार भी था, जो मौजूदा पाकिस्तान के सियालकोट शहर से आकर जम्मू में रहने लगा़
जम्मू में कुछ समय रहने के बाद यह परिवार दिल्ली के करोलबाग में सिंतबर 1947 में आकर बसा़ उनके परिवार में माता-पिता और छोटे भाई-बहन थे़ करोल बाग के एक कमरे के घर से महाशय धर्मपाल जी और उनके पिता चुन्नी लाल जी ने मसालों का धंधा शुरू किया. वे सुबह मसाले कूटकर तैयार करते और फिर घर-घर जाकर बेचते थे़ घर की आय बढ़ाने के लिए महाशय जी मसाला बेचने के साथ दिल्ली के कुतुब रोड पर तांगा भी चलाते थे़ दूसरे शब्दों में कहें, तो वे विभाजन के कारण तबाह हो गयी जिंदगी के बिखरे तार जोड़ने में लगे थे़ धीरे-धीरे उन्हें पराये शहर में सफलता मिलने लगी़ घर में पैसा आने लगा़ मसालों की महक को महसूस किया जाने लगा़
महाशय जी बताते थे कि उन्होंने अपना धंधा करते हुए कभी भी शर्म नहीं की़ उनका मानना था कि जिसे शर्म आती है उसका बिजनेस की दुनिया से दूर रहना ही बेहतर है़ कुछ नये दौर के सफल उद्यमियों के विपरीत, महाशय जी अपनी सफलता पर कभी इतराते नहीं थे़ बस इतना ही कहते थे, ‘ईमानदारी से मेहनत करोगे, तो सफलता अवशय मिलेगी़ इसके न मिलने का सवाल ही नहीं है़ इसलिए सभी को पूरी लगन से मेहनत करनी ही चाहिए़’ अपने अनुभव के आधार पर वे यह सब ज्ञान साझा करते थे़
पर यह करते हुए वे अपने को महान साबित नहीं करते थे़ दिल्ली आने के सात दशकों बाद, यानी 2017 में महाशय जी देश के उपभोक्ता उत्पाद (कंज्यूमर प्रॉडक्ट) के कारोबार में लगी किसी भी कंपनी के सबसे अधिक सैलरी लेने वाले सीइओ बने़ उस वर्ष उन्हें 21 करोड़ रुपए सैलरी मिली जो आदी गोदरेज (गोदरेज कंज्यूमर), संजीव मेहता (हिंदुस्तान यूनिलीवर और वाइसी देवेश्वर (आइटीसी) जैसे मशहूर सीइओ से अधिक थी़
पर यह भी सच है कि महाशय जी की कमाई और एमडीएच के लाभ का एक बड़ा भाग जन-कल्याण की योजनाओं में जाता रहा है़ वे राजधानी में कई अस्पताल, स्कूल और धर्मशालाएं चला रहे थे, जिनमें सैकड़ों कर्मी काम करते है़ं महाशय जी के करीबियों को पता है कि वे बहुत मितव्ययी किस्म के इंसान थे़ वे धन का दुरुपयोग किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं करते थे़ महाशय जी के मसाले और उनकी उद्यमशीलता से हटकर यदि बात करें, तो वे पक्के आर्य समाजी और हिंदी प्रेमी थे़ उनके घर में प्रतिदिन हवन होता था़ वे वेदों का निरंतर अध्ययन करते थे़ आर्य समाज से जुड़ा साहित्य बांटते थे़ उनके जीवन पर पिता और दयानंद सरस्वती का गहरा प्रभाव था़ वे समाज मे व्याप्त रूढ़ियों, कुरीतियों, आडंबरों, पाखंडों पर आर्य समाज के कार्यक्रमों में लगातार हल्ला बोलते थे़
पंजाब के शेष आर्य समाज परिवारों की तरह वे भी हिंदी के पक्के समर्थक थे, जबकि उनकी मातृभाषा पंजाबी थी़ महाशय जी की चाहत थी कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक देश में हिंदी बोली और समझी जाये़ हालांकि वे हिंदी को थोपने के पक्ष में नहीं थे़ उनका मानना था कि हिंदी प्रेम और मैत्री की भाषा है़ यह अपने लिए खुद जगह बनाती जायेगी़ इसमें दो राय नहीं कि देश को महाशय जी धर्मपाल गुलाटी जैसे उद्यमी की आवश्यकता है़ उनके समूह पर कभी टैक्स चोरी या किसी अन्य तरह की अनियमितता का आरोप नहीं लगा़ नि:संदेह, उनके दिवंगत होने से एक बड़ी रिक्तता आ गयी है, पर उनकी जिंदादिल शख्सियत और विचार सबको प्रेरित करते रहेंगे़
Posted by: Pritish Sahay