देश की प्रगति में रोड़ा बनता मधुमेह

Diabetes: मधुमेह वैसे तो खुद एक रोग है, पर इससे मरीजों की जेब भी खोखली हो रही है और मानव संसाधन की कार्य क्षमता पर विपरीत असर पड़ रहा है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, भारत में लोगों ने एक साल में डायबिटीज या उससे उपजी बीमारियों पर सवा दो लाख करोड़ रुपये खर्च किये, जो हमारे सालाना बजट का 10 फीसदी है.

By पंकज चतुर्वेदी | October 21, 2024 6:30 AM
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Diabetes: मद्रास डायबिटीज रिसर्च फाउंडेशन और आइसीएमआर के शोध के अनुसार, चिप्स, कुकीज, केक, फ्राइड फूड और मेयोनीज जैसी चीजों के सेवन से डायबिटीज का खतरा तेजी से बढ़ रहा है. रिसर्च में कहा गया है कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड की वजह से भारत डायबिटीज की राजधानी बनता जा रहा है. भारत की कोई 8.29 करोड़ वयस्क आबादी का 8.8 प्रतिशत हिस्सा मधुमेह की चपेट में है. अनुमान है कि 2045 तक यह संख्या 13 करोड़ से अधिक हो जायेगी. यह वह काल होगा, जब बुजुर्गों की संख्या भी बढ़ेगी.

मधुमेह वैसे तो खुद एक रोग है, पर इससे मरीजों की जेब भी खोखली हो रही है और मानव संसाधन की कार्य क्षमता पर विपरीत असर पड़ रहा है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, भारत में लोगों ने एक साल में डायबिटीज या उससे उपजी बीमारियों पर सवा दो लाख करोड़ रुपये खर्च किये, जो हमारे सालाना बजट का 10 फीसदी है. बीते दो दशक में इस बीमारी से ग्रस्त लोगों की संख्या में 65 प्रतिशत की बढ़ोतरी बेहद चिंताजनक है. दुर्भाग्यपूर्ण है कि यह रोग फिलहाल चिकित्सा जगत के लिए महज कमाई का जरिया है. दर्जनों किस्म के डायबिटीज मॉनिटर, हजारों किस्म की आयुर्वेदिक दवाएं और नुस्खे बेचे जा रहे हैं. लंदन में यदि किसी को मधुमेह है, तो पूरे परिवार का इलाज निशुल्क है. भारत में ऐसा कोई संवेदनशील नजरिया नहीं हैं.


एक अनुमान है कि एक मधुमेह मरीज को औसतन 4,200 से 5,000 रुपये दवा पर खर्च करने पड़ते हैं. यह रोग ग्रामीण, गरीब बस्तियों और तीस साल तक के युवाओं को भी शिकार बना रहा है. डायबिटीज खराब जीवन शैली से उपजने वाला रोग है, तभी बेरोजगारी, अधिक भौतिक सुख जोड़ने की अंधी दौड़ खून में शर्करा की मात्रा बढ़ा ही रही है, कुपोषण, घटिया गुणवत्ता वाला पैक्ड भोजन भी मरीजों की संख्या बढ़ाने का बड़ा कारक है. लेह-लद्दाख पहाड़ी इलाका है, जहां लोग खूब पैदल चलते थे, मेहनत करते थे, सो कभी बीमार नहीं होते थे.

पिछले कुछ दशकों में वहां बाहरी प्रभाव और पर्यटक बढ़े. बाहरी दखल के चलते यहां चीनी का इस्तेमाल होने लगा. अब वहां डायबिटीज जैसे रोग घर कर रहे हैं. दवा कंपनी सनोफी इंडिया के एक सर्वे में डरावने तथ्य सामने आये हैं कि मधुमेह की चपेट में आये लोगों में से 14.4 फीसदी को किडनी और 13.1 को आंखों की रौशनी जाने का रोग लग जाता है, 14.4 प्रतिशत मरीजों के पैरों की धमनियां जवाब दे जाती हैं, जिससे उनके पैर खराब हो जाते हैं तथा लगभग 20 फीसदी लोग दिल की किसी बीमारी के चपेट में आ जाते हैं. इतना ही नहीं, 6.9 प्रतिशत लोगों को न्यूरो यानी तंत्रिका से संबंधित दिक्कतें भी होती हैं.


अमेरिकी मानक संस्थाओं ने भारत में रक्त में चीनी की मात्रा को कुछ अधिक दर्ज करवाया है, जिससे प्री-डायबिटीज वाले भी दवाओं के फेर में आ जाते हैं. यह सभी जानते हैं कि एक बार डायबिटीज हो जाने पर मरीज को जिंदगी भर दवा खानी पड़ती है. मधुमेह नियंत्रण के साथ-साथ रक्तचाप और कोलेस्ट्रॉल की दवाएं लेना आम बात है. किडनी बचाने की दवा भी लेनी पड़ती है. जब इतनी दवा लेंगे, तो पेट में बनने वाले अम्ल के नाश के लिए भी दवा जरूरी है, जिसे नियंत्रित करने के लिए कोई मल्टी-विटामिन भी अनिवार्य है. एक साथ इतनी दवाओं के बाद लीवर पर असर पड़ेगा ही. इसमें शुगर मापने वाली मशीनों व दीगर जांचों को तो जोड़ा ही नहीं गया है. दूरस्थ अंचलों की बात तो जाने दें, महानगरों में ही हजारों ऐसे लैब हैं, जिनकी जांच रिपोर्ट संदिग्ध रहती है.

प्रधानमंत्री आरोग्य योजना के तहत इलाज की निशुल्क व्यवस्था में मधुमेह जैसे रोगों के लिए जगह नहीं है. स्वास्थ्य सेवाओं की जर्जरता की बानगी सरकार की सबसे प्रीमियम स्वास्थ्य योजना सीजीएचएस यानी केंद्रीय कर्मचारी स्वास्थ्य सेवा है, जिसके तहत पत्रकार, पूर्व सांसद आदि भी आते हैं. इसके तहत पंजीकृत लोगों में चालीस फीसदी डायबिटीज के मरीज हैं और वे हर महीने केवल नियमित दवा लेने जाते हैं. मरीज डॉक्टर के पास जाता है और उसे किसी विशेषज्ञ के पास भेजा जाता है. विशेषज्ञ कई जांच लिखता है और मरीज को फिर अपनी डिस्पेंसरी में आकर जांच कराना होता है. फिर विशेषज्ञ के पास जाना होता है. इस प्रक्रिया में कम से कम पांच दिन लगते हैं, लंबी कतार झेलनी होती है. बहुत से मरीज इससे घबरा कर नियमित जांच भी नहीं करवाते. जिला स्तर के सरकारी अस्पतालों में तो जांच से ले कर दवा तक का खर्च मरीज को खुद वहन करना होता है.


आज भारत मधुमेह को ले कर बेहद खतरनाक मोड़ पर खड़ा है. जरूरत है कि इस पर सरकार अलग से नीति बनाये. स्टेम सेल से डायबिटीज के स्थायी इलाज का व्यय महज सवा लाख से दो लाख रुपये है, पर सीजीएचएस में यह इलाज शामिल नहीं है. इस पद्धति को सरकार की विभिन्न योजनाओं में शामिल किया जाना चाहिए. बाजार में मिलने वाले पैक्ड और अन्य खाद्य सामग्री की कड़ी पड़ताल हो, योग और कसरत को बढ़ावा देने के अधिक प्रयास हों. ऐसे प्रयास युवा आबादी की कार्यक्षमता बढ़ाने और इस बीमारी से बढ़ती गरीबी के निदान में सकारात्मक कदम हो सकते हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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