Loading election data...

परिवार नियोजन के लिए चाहिए अलग नजरिया

हम समस्या से दूर नहीं भाग सकते- भारत में जनसंख्या नियंत्रण का सारा दारोमदार महिलाओं पर थोपा जाता रहा है. यह आज भी जारी है, और महिला नसबंदी से साफ प्रकट होता है.

By लेखा रतनानी | September 12, 2023 8:05 AM
an image

सरकार का परिवार कल्याण अभियान ‘मिशन परिवार विकास’ अपने सातवें वर्ष में पहुंच गया है. इसे उन 146 जिलों में कुछ सफलता मिली है जिनकी पहचान ‘हाई फर्टिलिटी’ क्षेत्रों के तौर पर होती है, जहां कुल प्रजनन दर तीन से ज्यादा है. ये जिले सात राज्यों में हैं- राजस्थान, असर, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड. उम्मीद है कि इस अभियान से इस दर को वर्ष 2025 तक घटाकर 2.1 तक किया जा सकेगा. प्रयासों के परिणाम अवश्य दिखायी दे रहे हैं, मगर उनमें समस्याएं भी छिपी हैं. उदाहरण के तौर पर, इन इलाकों में गर्भनिरोधकों का इस्तेमाल बढ़ा है.

मगर इसका सबसे ज्यादा प्रचलित तरीका ऑपरेशन है, जो एक स्थायी उपाय है. यह परिणाम के नजरिये से तो अच्छा है, मगर महिलाओं के नजरिये से हमेशा सही नहीं है. राष्ट्रीय स्तर पर भी यही सबसे लोकप्रिय तरीका है, और पांचवें राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार 36.3 फीसदी विवाहित महिलाओं ने इसे अपनाया. मिशन परिवार विकास वाले क्षेत्रों में ज्यादातर महिलाएं ऑपरेशन का चुनाव करती हैं, लेकिन इन इलाकों के पिछड़े होने तथा स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के कारण, महिला नसबंदी के दुष्प्रभाव भी यहीं ज्यादा दिखाई देते हैं.

आम तौर पर ऑपरेशन का तरीका ऐसे दंपति अपनाते हैं जिनके बच्चे हो चुके होते हैं, और जो और बच्चे नहीं चाहते. लेकिन, ग्रामीण भारत में बच्चों और युवाओं की मौत असामान्य बात नहीं होती. खास तौर पर, आदिवासी समुदायों में कभी सांप काटने से, कभी तेंदुए के हमले से, कभी पेड़ से गिरने से, कभी तालाब में डूबने से, और कई बार ऐसी बीमारियों से मौत हो जाती है जिनका समय पर इलाज होने से मरीज को बचाया जा सकता है.

ऐसे में, कई बार नसबंदी करा लेने वालों के घर में किसी अप्रिय घटना के बाद अचानक से बच्चे कम हो जाते हैं, या बिल्कुल नहीं होते. नसबंदी को पलटना असंभव तो नहीं है, मगर यह बहुत मुश्किल होता है. महिला नसबंदी के इस दुष्प्रभाव के अलावा, एक और समस्या नसबंदी के ऑपरेशन के दौरान खराब स्वास्थ्य सुविधाओं की वजह से होनेवाली जटिलताएं और इस वजह से मौत तक होने की है. स्वास्थ्य और परिवार कल्याण राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल ने वर्ष 2018 में लोकसभा को बताया था कि 2014 से 2017 के बीच नसबंदी के बाद कुल 358 महिलाओं की मौत दर्ज की गयी.

संख्या के हिसाब से, ग्रामीण इलाकों में विवाहित महिलाओं में नसबंदी बढ़ी है. तीसरे से पांचवें राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के बीच राजस्थान में यह 32.2 से बढ़कर 44.5 प्रतिशत, बिहार में 22.6 से बढ़कर 35.3 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 39.8 से बढ़कर 47.6 प्रतिशत, झारखंड में 19.8 से बढ़कर 37.4 प्रतिशत, और मध्य प्रदेश में 46.9 से बढ़कर 55.7 प्रतिशत हो गयी है. ऐसा संभवतः तीन कारणों से हुआ. पहला, हर गांव में आशा कार्यकर्ताओं के पहुंचने से परिवार नियोजन को लेकर भरोसा और विश्वसनीयता बढ़ी.

दूसरा, स्मार्टफोन और इंटरनेट के चलन से ग्रामीणों की आकांक्षाएं बढ़ीं. गांव के लोग भी अब शहरों में छोटे परिवारों और वहां की जीवन शैली को समझने लगे हैं और उसे अपनाने की कोशिश कर रहे हैं. तीसरा कारण, मर्दों का काम के लिए शहरों में जाने के चलन में आती वृद्धि है. ऐसे में ज्यादा बच्चे होने से भार महिलाओं पर पड़ता है, और ऑपरेशन एक अच्छा उपाय लगने लगता है.

वरिष्ठ प्रसूति विशेषज्ञ ऑपरेशन से बचने का सुझाव देते हैं क्योंकि शरीर के साथ किसी भी तरह की सर्जरी के अपने खतरे होते हैं. वे दूसरे गर्भनिरोधक तरीकों को बेहतर बताते हैं. लेकिन, महिला नसबंदी की जटिलताओं और मौत तक के मामलों के सामने आने के बाद भी, इसे अपनाने वाली महिलाओं की संख्या बढ़ रही है (या शायद प्रलोभन देकर उन्हें राजी कराया जा रहा है). लेकिन, हम समस्या से दूर नहीं भाग सकते- भारत में जनसंख्या नियंत्रण का सारा दारोमदार महिलाओं पर थोपा जाता रहा है. यह आज भी जारी है, और महिला नसबंदी से साफ प्रकट होता है. अंतिम राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे (2005-06) से लेकर 10 साल बाद सरकार के 2015-16 में कराए गए सर्वे तक में यही देखा गया.

आज कॉपर-टी या नसबंदी के अन्य तरीकों की उपलब्धता के कारण महिलाओं के लिए नसबंदी को मना करना ज्यादा मुमकिन हो गया है. जिन जगहों पर जन स्वास्थ्य केंद्र नियमित रूप से नहीं खुलते, जहां डॉक्टर और नर्स हमेशा नहीं मिलते, जहां लोगों का सरकारी स्वास्थ्य तंत्र पर भरोसा नहीं, वहां नसबंदी जरूर कारगर हो सकती है. वैकल्पिक उपायों के चलन में तेजी लाने के लिए, डॉक्टरों और नर्सों को प्रशिक्षित करना होगा, और संचार के सहारे इन उपायों को लेकर लोगों में मनों में बैठे डर या धारणाओं को दूर करना होगा.

उदाहरण के लिए, कॉपर-टी को लेकर एक आम डर यह होता है कि ‘कहीं यह पेट में तो नहीं चला जाएगा’. इसका सामना करने के लिए लोगों की चिंताओं को सुनना और उन्हें समझाना होगा. साथ ही, स्वास्थ्य केंद्रों की स्थिति बेहतर करनी होगी, ताकि गर्भनिरोध के दूसरे उपायों के इस्तेमाल से पेट दर्द या ब्लीडिंग जैसे किसी साइड इफेक्ट के मामलों में मदद दी जा सके.

(ये लेखिकाद्वय के निजी विचार हैं.)

Exit mobile version