डीएमके की नकारात्मक राजनीति

संघ पर अक्सर बांटने का आरोप लगाया जाता है. विडंबना ही है कि विखंडन का यह आरोप पेरियारवादी भी लगाते हैं, जिन्होंने समाज को बांटा और एक छोटे समुदाय को सबसे ज्यादा नकारात्मक तरीके से निशाना बनाया है.

By उमेश चतुर्वेदी | September 12, 2023 7:53 AM

इसे संयोग ही कहेंगे कि जिस समय नागपुर में हिंदू समुदाय को समर्थ बनाने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई, ठीक उसी वक्त सुदूर दक्षिण में हिंदू समुदाय के कथित ब्राह्मणवाद को नष्ट करने के उद्देश्य से रामास्वामी पेरियार द्वविड़ आंदोलन की नींव रख रहे थे. दोनों संगठनों ने एक साथ तकरीबन शतकीय यात्रा पूरी कर ली है. इस पूरी यात्रा में आरएसएस विराट संगठन के रूप में उभरता है. पेरियार के समर्थक भी बढ़ चुके हैं. दोनों संगठनों में अंतर सिर्फ इतना है कि पेरियार के उत्तर भारत में समर्थक कम हैं, तो संघ की पेरियार की धरती तमिलनाडु में उपस्थिति अपेक्षानुकूल नहीं हो पायी है.

दो साल बाद दोनों ही संगठनों की शतकीय पारी पूरी होगी. तमिलनाडु के युवा और खेल मंत्री उदयनिधि स्टालिन के बयान ने इन दोनों ही संगठनों, विशेषकर पेरियार की वैचारिकी पर चर्चा का मौका दे दिया है. उदयनिधि ने हाल ही में सनातन धर्म के उन्मूलन पर केंद्रित एक सेमिनार में अपने लिखित भाषण में कोरोना वायरस और कुछ अन्य संक्रामक बीमारियों के साथ सनातन धर्म की तुलना करते हुए कहा कि इनका सिर्फ विरोध नहीं, उन्मूलन किया जाना चाहिए. कुछ यही भाषा पेरियार भी बोलते थे.

शुरू में गांधी के अनुयायी रहे पेरियार ने 1925 में तमिलनाडु के कांग्रेसी आंदोलन में ब्राह्मण वर्चस्व के विरोध में कांग्रेस छोड़ दिया, और ब्राह्मणों के विरोध में उतर गये. तमिलनाडु में देखते-देखते उनका आंदोलन फैल गया. तमिलनाडु में कांग्रेस के समानांतर उनका संगठन फैलता चला गया. पिछली सदी के 80 के दशक में एक शब्द बड़ी तेजी से फैला और राजनीति की केंद्रीय धुरी बन गया- सामाजिक न्याय. यह शब्द सही मायने में पेरियार के ही आंदोलन से उभरा. पेरियार कहने को तो छुआछूत और भेदभाव के खिलाफ थे. इसके लिए उन्होंने जो शब्दावली चुनी, वह ब्राह्मणवाद का विरोध रही.

सामाजिक न्याय और पिछड़ी जातियों को बराबरी का हक दिलाने को लेकर शुरू पेरियार का आंदोलन ब्राह्मणों के खिलाफ हो गया. उनकी भाषा इतनी आक्रामक रही कि आजादी के बाद तो एक बार धर्मनिरपेक्षता के पैरोकार माने जाने वाले पहले प्रधानमंत्री नेहरू ने पेरियार को पागलखाने तक में डालने की बात कह डाली थी. पेरियार का मानना था कि हिंदू या सनातन धर्म में जो भी कुरीतियां हैं, उसके लिए ब्राह्मण ही जिम्मेदार हैं. पेरियार का आंदोलन ब्राह्मणवाद के विरोध में था, लेकिन देखते-देखते वह ब्राह्मण विरोध में बदल गया. पेरियार यहीं पर नहीं रुके.

वे नास्तिकवाद की पैरोकारी करते-करते तमिल इलाकों के लिए अलग द्रविड़ देश की मांग पर उतर आए. उसमें आज का श्रीलंका भी था. लेकिन पेरियार के अनुयायी सीएन अन्नादुर्रै को अलग राष्ट्र की मांग पसंद नहीं आयी. उन्होंने 1949 में पेरियार के आंदोलन से नाता तोड़ द्रविड़ मुनेत्र कषगम् बनायी. देखते-देखते उनका कद पेरियार से बड़ा हो गया. साठ के दशक के बाद से कुछ सालों का अपवाद छोड़ तमिलनाडु की सत्ता द्रमुक आंदोलन के हाथ रही. उदयनिधि स्टालिन उन्हीं अन्नादुर्रै के अनुयायी करुणानिधि के राजनीतिक और पारिवारिक वारिस हैं.

चूंकि तमिलनाडु में करीब 70 फीसद आबादी पिछड़े वर्ग की है और करीब 21 प्रतिशत लोग दलित हैं, लिहाजा ब्राह्मणवाद और कालांतर में ब्राह्मणविरोध की राजनीति को वहां परवान चढ़ना ही था. इसका असर यह हुआ कि राज्य के करीब तीन फीसद ब्राह्मणों के खिलाफ सूबे में माहौल जहरीला बनता गया. जिन ब्राह्मणों के खिलाफ पेरियार ने कांग्रेस छोड़ी, उस कांग्रेस की ओर से सिर्फ एक ब्राह्मण मुख्यमंत्री बन पाया, और वे रहे चक्रवर्ती राजगोपालाचारी.

सौ साल की यात्रा में पेरियार की नास्तिक विचारधारा ने ना सिर्फ हिंदू या सनातन धर्म को खारिज किया, बल्कि आर्य समाज आंदोलन, रामकृष्ण मिशन के साथ ही गांधी के सनातनी चिंतन पर भी हमला बोला. इस दौर में गांधी के साथ जिस विवेकानंद ने समानता आधारित सनातनी विचार को बढ़ावा दिया, उनको भी पेरियार ने नहीं बख्शा. अगर पेरियार की नास्तिकवादी विचारधारा और अन्नादुर्रै के द्रविड़ आंदोलन को देखें तो शुरू में वह ब्राह्मण विरोधी नजर आता है, बाद में वह उग्र हिंदी विरोधी हो जाता है. कई बार वह उत्तर भारत विरोधी भी होता नजर आता है. यह पूरा विरोध कुल मिलाकर सनातन या हिंदू दर्शन और धर्म का विरोध बनकर उभर आता है.

उदयनिधि का बयान एक तरह से पेरियार और अन्नादुर्रै के आंदोलन का समेकित रूप है. रामास्वामी पेरियार और अन्नादुर्रै के आंदोलन के बरक्स राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आंदोलन को देखिए. संघ पर अक्सर बांटने का आरोप लगाया जाता है. विडंबना ही है कि विखंडन का यह आरोप पेरियारवादी भी लगाते हैं, जिन्होंने समाज को बांटा और एक छोटे समुदाय को सबसे ज्यादा नकारात्मक तरीके से निशाना बनाया है. वहीं समन्वय की विचारधारा पर चलता संघ तकरीबन पूरे भारत में फैल चुका है.

उसकी वैचारिकी देश की सत्ता की केंद्रीय ताकत बन चुकी है. लेकिन रामास्वामी पेरियार की वैचारिकी को देखिए, वह तमिलनाडु से बाहर अपने विस्तार के बारे में सोच भी नहीं सकती. उदयनिधि इस सीमा को जानते हैं, इसलिए वह विखंडन और नकार की राजनीति केंद्रित बयान दे रहे हैं. लेकिन एक सवाल यह भी उठता है कि क्या तमिलनाडु अब भी वैसा ही है, जैसा 1960 के दशक में था, जब वह हिंदी और उत्तर भारत के विरोध के नाम पर उबल पड़ता था, जब वह ब्राह्मण विरोध में आगे आता था?

इस सवाल का जवाब तलाशते वक्त उस पीढ़ी के विचार को भी जानना चाहिए, जिसने हिंदी विरोधी आंदोलन में हिंदी से किनारा कर लिया. अब उस पीढ़ी को हिंदी ना सीख पाने का अफसोस है. उसे लगता है कि ऐसा करके उसने अखिल भारतीय अवसर खोया है. इसलिए वह पीढ़ी अगर चाहती है कि उसका बच्चा अखिल भारतीय सेवा में जाए तो हिंदी सिखाना नहीं भूलती. भले ही वह उत्तर भारत की तरह हिंदी ना जान पाए.

आखिर में एक अनुभव. सात साल पहले कोयंबटूर से दिल्ली लौटते वक्त हवाई जहाज को वाया चेन्नई आना था. शाम को छूटने वाले जहाज पर तमिल ब्राह्मण परिवार भी थे. यात्रा के बीच ही सूर्यास्त का समय हो गया, और फ्लाइट में तकरीबन हर पंक्ति में संध्या और तर्पण शुरू हो गया. यह दृश्य उस सोच का प्रतीक था, जो तमाम झंझावातों के बावजूद खड़ी रही. ऐसे में देखना होगा कि उदयनिधि स्टालिन की वैचारिकी को क्या आज का तमिलनाडु अब भी वैसे ही स्वीकार करेगा?

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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